Book Title: Kalidas ki Rachnao me Ahimsa ki Avadharna
Author(s): Ravishankar Mishr
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_3_Pundit_Dalsukh_Malvaniya_012017.pdf

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Page 5
________________ १८२ डा० रविशंकर मिश्र अरहंत शब्द प्राकृत का है, इसका संस्कृत रूप है - अर्हत अर्हन् । महाकवि ने जैन धर्म के इस आराध्य अर्हत् और अर्हन् शब्द का अपनी रचनाओं में अनेकशः श्रद्धापूर्वक प्रयोग किया है । रघुवंश के प्रथम सर्ग में कवि ने 'नयचक्षुषे' विशेषण के साथ मुनियों के लिए अर्हत् शब्द का प्रयोग किया है, जिसके आधार पर सम्भवतः उन्होंने अर्हत् अर्थात् मुनि के नयों के ज्ञातृत्व की ओर सङ्केत किया है पञ्चम सर्ग में कवि ने ऋषि कौत्स की पूजनीयता - पवित्रता आदि के कथा प्रसङ्ग में राजा रघु के मुख से 'अर्हत्' शब्द कहलवाया है तस्मै सभ्याः सभार्याय गोप्त्रे गुप्ततमेन्द्रियाः । अर्हाम चक्रुर्मुनयो चक्षुषे ॥ आगे इसी सर्ग में राजा रघु ने ऋषि कौत्स के आदरसूचक सम्बोधनस्वरूप 'हे अर्हन्' शब्द प्रयुक्त किया है - १. २. ३. तवार्हतो नाभिगमेन तृप्तं मनो नियोगक्रियतोत्सुकं मे । अप्याज्ञया शासितुरात्मना वा प्राप्तोऽसि सम्भावयितुं वनान्माम् ॥ २ इसी प्रकार कुमारसम्भव में भी कवि ने महनीय जनों के कथन-प्रसङ्ग में 'अर्हतु' शब्द प्रयुक्त किया है ४. Jain Education International स त्वं प्रशस्ते महिते मदीये वसंश्चतुर्थोऽग्निरिवाग्न्यगारे | द्वित्राण्यहान्यर्हसि सोढुमर्हन्यावद्यते साधयितुं त्वदर्थम् ॥ इन सन्दर्भों के आधार पर हम कह सकते हैं कि महाकवि ने अपनी रचनाओं में सर्वत्र अर्हत्अर्हन् शब्द का प्रयोग प्रायः ऋषि-मुनियों के लिए ही किया है, जो पूजनीय, महनीय एवं पवित्रता के अन्यतम साधक होते थे । इधर जैन धर्म में भी यह अर्हत् अर्हन् शब्द उन तीर्थंकरों के लिए ही प्रयुक्त मिलता है, जो जैन धर्म के तत्त्वदृष्टा अन्यतम पूजनीय एवं महनीय साधक होते हैं । तो क्या यह सम्भव नहीं कि कवि ने अपनी रचनाओं में इस शब्द का प्रयोग जैन धर्म के अर्हतों तीर्थंकरों की पूजनीयता, महनीयता एवं पवित्रता से प्रभावित होकर ही किया हो ? यहाँ यह कथन कोई निश्चित तो नहीं है, फिर भी इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि महाकवि अहिंसानुरागी थे तथा जैन-धर्म-दर्शन के मौलिक सिद्धान्तों के प्रति उनका अगाध विश्वास एवं आदर भाव था । तभी अद्यप्रभृति भूतानामधिगम्योऽस्मि शुद्धये । यदध्यासितमर्हद्भिस्तद्धि तीर्थं प्रचक्षते ॥ रघुवंश: महाकवि कालिदास, १ / ५५ । वही, ५ / ११ । वही, ५/२५ । कुमारसम्भव : महाकवि कालिदास, ६ / ५६ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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