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पर तो कर दी जाती है परंतु इनमें से यहाँ मात्र एक ही आदिवाक्य दिया गया है. जबकि सूचीपत्र में तो तत-तत प्रतगत प्रथम स्तर व क्वचित् कृति के ज्यादा सही निर्धारण हेतु मंगल आदि के बाद के द्वितीय स्तर के आदिवाक्य भी दिए गए हैं. जो कि सम्भवतः यहाँ दिए गए आदिवाक्य से न भी मेल खाते हों. ऐसा ज्यादातर टबार्थ व बालावबोधों में पाया गया
• प्रत में प्रस्तुत कृति यदि प्रतिपूर्ण है अर्थात् प्रतिलेखक ने कृति को संपूर्ण न लिख कर प्रति में उपलब्ध अंश मात्र को ही लिखा है तो प्रत क्रमांक टेढ़े Italic अंकों में दिखाए गए हैं. यथा- ५८१६. कृति के आदिवाक्य के पहले कृति का धार्मिक स्रोत चिह्नित करने हेतु मूपू., स्था., ते., श्वे., दि., जै., वै., बौ. इन संकेतों का प्रयोग क्रमश: जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक, जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी, जैन श्वेताम्बर तेरापंथी, जैन श्वेतांबर, जैन दिगंबर, जैन, वैदिक व बौद्ध के लिए किया गया है. जहाँ पर ये संकेत नहीं हैं वे सामान्य कृतियाँ हैं. इन संकेतों को यथोपलब्ध सूचनाओं के आधार पर दिया गया है तथा इनकी कहीं-कहीं अंतिम रूप से पुष्टि होनी बाकी है. कहीं पर धर्म
स्रोत की निःशंक परिपुष्टि न हो पाई हो उन धर्म संकेतों के साथ प्रश्नार्थ चिह्न किया गया है. जैसे बौ?, जै?. • वाचकों की सुविधा एवं उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए कृति के साथ दिए हुए प्रत क्रमांक क्रमशः प्रत की शुद्धि आदि
महत्ता, संपूर्णता, दशा, अपूर्णता व अशुद्धि की वरीयता से दिए गए हैं. शुद्धता सूचक निशानी (+) वाले प्रत क्रमांकों को सर्वाधिक महत्व दिया गया है, उसके बाद संपूर्ण, पूर्ण व प्रतिपूर्ण प्रत क्रमांकों को तथा अंत में (5) (#) () निशानी वाले प्रत क्रमांकों को रखा गया है. अतः प्रत क्रमांक अपने स्वाभाविक अनुक्रम से नहीं मिलेंगे. • कृति माहिती के सामने प्रत क्रमांक तथा यदि प्रत में एकाधिक कृतियाँ हैं तो प्रस्तुत कृति प्रत में किस क्रमांक की पेटाकृति
है, वह पेटांक भी दिया गया है. यथा प्रत क्रमांक १०२०७ के तीसरे पेटांक में महावीरजिन स्तवन है, इसका क्रमांक इस प्रकार लिखा गया है - १०२०७-३.
पाप ताप के हरण को, चंदन रस श्रुतज्ञान |
श्रुत अनुभव रस राचिये, माचिये जिन गुण तान ||
दुषम काल जिन बिम्ब जिनागम |
भवियण कुं आधारा ।।
श्रुतथी शुभमति संपजे, श्रुतथी जाय विकार,
श्रुत वासित जाणे भला, तत्त्वातत्त्व विचार ||
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