Book Title: Kabir aur Maran Tattva
Author(s): Kanhiyalal Sahal
Publisher: Z_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf

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Page 4
________________ ३८ डॉ. कन्हैयालाल सहल महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त तुकाराम ने मरण-दशा के प्रत्यक्षीकरण का निम्नलिखित शब्दों में वर्णन किया है -- पापुले मरण पाहिले म्या डोला, तो झाला साहेला अनुपम । प्रानन्दे दाटली तिन्हीं त्रिभुवने, सर्वात्मउपणे भोग झाला। एकदेशी हो तो अहंकारे प्राथिला त्याच्या त्यागे झाला सुकाल हा । फिटले सुतक जन्मा मरगांचे, भो माझ्या संकोचे दूर झालो। नारायणे दिला वसतीस ठाव, ठेवोनिया भाव ठेलो पायी। तुका म्हणे दिले उमटूनी जगी, घेतले ते अंगी लावूनिया ।। अर्थात्- अाज अपने दिव्य नेत्र से हमने अपनी मरण-दशा का प्रत्यक्षीकरण किया । यह एक अनुपम आनन्द महोत्सव हुअा। तीनों भूवन प्रानन्द से भरे हैं, आज हमें सर्वात्मभाव से उनका भोग हुआ। आज तक देहाभिमान से हम एकदेशी बन बैठे थे, उस अहं भाव का त्याग होते ही सर्वात्मभाव का उदय हुआ । अानन्दमय रूप चारों ओर खुल गया । जन्म-मरण परम्परा का अशुचि-सम्बन्ध टूट गया। अब हमारे लिए परिच्छिन्न भाव कहीं रह ही नहीं। भगवान ने हमको अपने यथार्थ रूप में रहने के लिए विशाल जगह दी। अब हमें भगवान के चरणों के सिवाय और कोई नहीं देख पड़ता। तुकाराम कहते हैं कि यह तो हमारा अपरिच्छिन्न आनन्दमय नित्य रूप प्रकट हुआ, वही हम हैं-यह निश्चय अब त्रिकाल में भी मलिन नहीं हो सकता। तुकाराम की उक्त वाणी से सिद्ध है कि सन्त लोगो ने जिस मरण का वर्णन किया है, वह शरीरत्याग नहीं है, शरीराभिमान का त्याग है । यह वस्तुतः संकुचित अहं का मरण है जिसके द्वारा साधक उच्च भाव-भूमि पर प्रतिष्ठित होकर स्वरूपानन्द का लाभ प्राप्त करता है। यहां यह भली भांति स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यह मरण सामान्य मरण नहीं है, इस मरण के द्वारा भौतिक अस्तित्व की समाप्ति नहीं हो जाती । यह मरण एक प्रकार से "जीवन्मरण अथवा जीवन्मुक्ति" है। . जैसा ऊपर कहा गया है, संस्कृत साहित्य में मरण का जय जयकार न होकर अमरता का ही जय जयकार हुआ है । मैत्रेयी ने भी याज्ञवल्क्य से कहा था, "किं तेनाऽहं कुर्याम् येनाऽ हं नाऽ मृता स्याम् । अर्थात उसको लेकर मैं क्या करूं जिससे मुझे अमरत्व न मिले । किन्तु कबीर ने अपनी साखियों में मरण का जिस उल्लासपूर्वक वर्णन किया है और गोरख ने 'मरण है मीठा' कह कर जिसके माधुर्य का बखान किया है, उसकी छटा निराली है । अहं भाव का मरण अथवा नाश होने से ही साधक अपने रूप में स्थित हो पाता है, उसे अपने स्वरूप की उपलब्धि हो पाती है और अपने स्वरूप की उपलिब्ध किसे मधुर न लगेगी? सन्तों का यह मरण वास्तव में प्रात्मसाक्षात्कार का साधन है और आत्मसाक्षात्कार की स्थिति में पहचने पर तो मृत्यु की भी मृत्यु हो जाती है । इसीलिए कबीर ने तो यहां तक कह दिया था हम न मरिहैं, मरिहै संसारा। हमको मिला जिलावनहारा ॥" रवि बाबू ने मृत्यु के सम्बन्ध में जो कुछ लिखा है, उससे मृत्यु गौरवान्वित हुई है। मृत्यु की विभीषिकाओं से वे कभी विचलित नहीं हुए। उनका कहना था कि मृत्यु जिस दिन मेरे द्वार पर आएगी, मैं उसे खाली नहीं जाने दूंगा। अपने जीवन का अमोल रत्न (प्रारण) मैं उसे उपहार में दे दूंगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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