Book Title: Kabir aur Maran Tattva Author(s): Kanhiyalal Sahal Publisher: Z_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf View full book textPage 1
________________ कबीर और मरण-तत्व "जीवन मृतक को अंग" में कबीर ने कहा है कि यदि कोई मरना जानता हो तो जीवन से भररण श्रेष्ठ है । जो मृत्यु से पहले मर जाते हैं, वे कलियुग में अजर-अमर हो जाते हैं । जीवन थे मरिबों भलो, जो मरि जानें कोइ । मरने पहले जे मरें तो कलि अजरावर होइ । ८॥ ___इसी प्रकार विरोधाभास का आश्रय लेते हुए उन्होंने मुर्दे द्वारा काल के खाये जाने की बात कही है: एक अचंभा देखिया, मड़ा काल कों खाइ ॥४॥ निश्चय ही कबीर का तात्पर्य यहां जीवनमुक्त से है जिसे अपने जीवन-काल में ही मुक्ति प्राप्त हो जाती है। कबीर ने गुरु द्वारा "सबद-बाण" चलाये जाने के प्रसंग में भी शिष्य के धराशायी होने और उसके कलेजे में छिद्र हो जाने की बात कही है :--- सतगुर साचा सूरिवां, सबद जु बाह्या एक । लागत ही भे मिलि गया, पड्या कलेजे छेक ॥४॥ (सबद को अंग ) आगे चल कर "सूरातन को अंग” में यह निर्गुण संत उस मरण की अभिलाषा करता है जिसके द्वारा वह “पूरन परमानन्द" के दर्शन कर सकेगा जिस मरनें थे जग डरे, सो मेरे प्रानन्द । कब मरिहूं कब देखिहूं, पूरन परमानन्द ॥१३॥ कबीर की दृष्टि में प्रेम के घर में प्रवेश तभी हो सकता है जब साधक अपना सिर उतार कर हाथ में ले लेता है अथवा उसे पैरों के नीचे रख देता है : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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