Book Title: Jivan me Guru ki Mahatta Author(s): Gautammuni Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf View full book textPage 2
________________ 40 जिनवाणी 10 जनवरी 2011 दूरकर हमें प्रकाश की रश्मियाँ प्रदान करता है, अर्थात् हमारे अज्ञान और मिथ्यात्व रूपी अंधकार को दूर कर हमें ज्ञान का प्रकाश देकर आत्म-साक्षात्कार कराता है। आप देखते ही हैं कि आज अत्यधिक भौतिक प्रगति के बावजूद चारों ओर अशांति और संघर्ष के वातावरण में वृद्धि हो रही है। ज्यों-ज्यों व्यक्ति बाह्य सुखों की खोज में रात-दिन दौड़ा जा रहा है, त्यों-त्यों उसके मानसिक क्लेश बढ़ते ही जा रहे हैं। तनाव से मुक्ति नहीं मिल रही है । फलस्वरूप उसके जीवन में विषाद बढ़ जाता है और वह नैराश्य में डूबकर जीवन से पलायन का मार्ग ले लेता है । ऐसी मनःस्थिति में व्यक्ति कभी-कभी तो आत्महत्या का जघन्य कृत्य भी कर बैठता है । भौतिक संसाधनों की पूर्ति में आर्थिक प्रतिस्पर्धा अनेकानेक नई-नई समस्याओं को जन्म दे रही है। जीवन की इस दौड़-१ -भाग में ऐसा लग रहा है कि जीवन का एक मात्र उद्देश्य अधिक से अधिक धन का अर्जन कर सुख के साधन जुटाना रह गया है । भोगवादी संस्कृति में ये क्षणिक सुख अनेक दुःखों का सृजन करके जीवन को नरक बना रहे हैं। ऐसा न हो जाय कि शांति, प्रेम, वात्सल्य, मैत्री आदि किताबों के शब्द ही रह जायें। इस समस्या का समाधान न तो आज का विज्ञान ही दे सका है और न ही धन-दौलत दे सकी है। इस विषम वातावरण में शान्ति प्राप्त करने का समाधान देकर सत्य का दर्शन केवल गुरु ही करा सकता है । यदि इस जगत में आत्मबोध से युक्त गुरु नहीं होता, उसकी निष्काम साधना नहीं होती और ऐसे गुरु का हमें मार्गदर्शन नहीं मिलता, सान्निध्य नहीं मिलता, प्रेरणास्पद बोध नहीं मिलता तो आज संसार में जैसी भयावह स्थिति होती उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती । गुरु एक वरदान है, जीवन में अमृत का पान है, जीवन का समाधान है और एक प्रकाश स्तम्भ है जो हर समय हमें दिशा बोध देता है। इसीलिये उनका महत्त्व है । इस दृष्टि से गुरु वह होता है जो विषय-कषायों और भोग रे हो, इन्द्रियजयी हो, लक्ष्य के प्रति पूर्ण रूपेण समर्पित हो एवं आत्मबोध से परिपूर्ण होकर आत्म-साक्षात्कार के अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव कर रहा हो। ऐसा व्यक्ति केवल आत्म-कल्याण के मार्ग में निरन्तर गतिमान रहकर स्व के साथ पर-कल्याण में भी निस्पृह भाव से प्रवृत्त रहता है। वह आत्म-द्रष्टा और भविष्य - द्रष्टा होता है। ऐसे गुणों का धारी ही शिष्य के जीवन का निर्माण सम्यक् रूपेण कर सकता है। वह तो इतना निस्पृही होता है कि शिष्य को अपने समान ही नहीं, अपने से भी ऊँचा उठा देता है । यह जिनशासन की महत्ता है कि इसमें ऐसे सद्गुरुओं की परम्परा आज भी अविच्छिन्न रूप से चल रही है। वे शिष्य की मनोभूमि को देखकर उसमें उचित संस्कारों के बीज बोते हैं, उसे वात्सल्य का नीर देते हैं, अंकुरित होने पर अपने आश्रय की सुखद छाया में विकसित होने का पूर्ण अवसर देते हैं ताकि उसमें शान्ति, समता, मैत्री और आनन्द के फल-फूल लग सकें और वह अपने दुर्लभ मानव जीवन का कल्याणकारी उपयोग कर अपनी मुक्ति की राह प्रशस्त कर सकें । केवल शिष्य का निर्माण ही नहीं करता है, अपितु जब भी शिष्य जीवन में निराशा में डूब कर हतोत्साही हो जाता है, तब उसे अपनी प्रेरणा का प्रसाद देकर उसमें नवजीवन का संचार भी करता है । हमारे आगम ग्रन्थों में अनेक ऐसे दृष्टान्त मिलते हैं जिनमें मुनि यदि परीषहों को सहन करने में असमर्थता का अनुभव Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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