Book Title: Jivan me Guru ki Mahatta Author(s): Gautammuni Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf View full book textPage 5
________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 43 हितकारी वचनों की रगड़ से उन विद्वान् शिष्यों की अन्तश्चेतना में आत्मज्योति प्रज्वलित हो जाती है । उनकी विद्वत्ता सार्थक हो जाती है । आप महा प्रभावकारी 'कल्याण मंदिर स्तोत्र' का पाठ करते होंगे । आपको पता होगा कि इस स्तोत्र की रचना करने वाले आचार्य सिद्धसेन दिवाकर एक महान् प्रतिभाशाली प्रज्ञावान आचार्य हुए हैं जिन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की, जिनमें कई आज भी उपलब्ध हैं। मुनि बनने के पूर्व वे अपनी प्रज्ञा और बुद्धिबल के समक्ष अन्य विद्वानों को तृणवत् समझते थे । उन्होंने अपने मन में एक संकल्प लिया कि जो मुझे शास्त्रार्थ में हरा देगा मैं उन्हीं का शिष्य बन जाऊँगा। वे एक बार, उस समय के महान् आचार्य वृद्धवादी के पास पहुँचे और बोले-“मैं आपसे शास्त्रार्थ करना चाहता हूँ।” आचार्य ने कहा- “ठीक है, पर जय-पराजय का निर्णय कौन करेगा?” सिद्धसेन अति विश्वास के साथ बोल पड़े कि इसका निर्णय ये आसपास में खड़े गोपाल ही कर देंगे। सिद्धसेन संस्कृत के उद्भट विद्वान थे, अतः उन्होंने संस्कृत में बड़ी सुन्दर लालित्यपूर्ण शैली में शास्त्रों का अर्थ प्रस्तुत किया । वहाँ खड़े गोप उनकी संस्कृत में प्रस्तुति को बिलकुल भी नहीं समझ सके और सुनकर चुप रहे। आचार्य वृद्धवादी ने समय और स्थिति को जानकर अपना पक्ष सीधी-सादी लोक प्रचलित भाषा में संगीत की लय के साथ प्रस्तुत किया जिसे सुनकर गोप वाह-वाह करने लगे। आचार्य की जीत हो गई। सिद्धसेन अपने मन के संकल्प के अनुसार वृद्धवादी के शिष्य बन गये । 1 1 शिष्य बनने के बाद भी सिद्धसेन की विद्वत्ता का अहं कम नहीं हुआ। वह राजा-महाराजाओं के यहाँ अपनी विद्वत्ता का प्रदर्शन कर अपना प्रभाव बढ़ाते रहे। राजाओं से उन्हें बड़ा सम्मान मिला। " प्रभुता पाई काहि मद नाही" की उक्ति के अनुसार वह मद में मस्त होकर राजा-महाराजाओं की तरह पालकी में बैठकर आने-जाने लगे । आचार्य वृद्धवादी को शिष्य के इन कृत्यों का पता चला तो उन्होंने उसे संयम-मार्ग में लाने की योजना बनाई । वे भेष बदलकर पालकी वाहक बनकर सिद्धसेन की पालकी उठाने वालों के साथ हो गये और सिद्धसेन की पालकी उठाने लग गये । वृद्ध व्यक्ति को पालकी उठाते देख सिद्धसेन ने उस वृद्ध से संस्कृत में पूछ लिया- “भूरिभारभराक्रान्तः बाधति स्कन्ध एष ते?” (अर्थात् पालकी के भार से आपके कन्धे तो नहीं दुःख रहे हैं?) सिद्धसेन के प्रश्न में व्याकरण की अशुद्धि थी । 'बाधति' की जगह 'बाधते' होना चाहिए था । पालकी वाहक के रूप में आचार्य को उन्हें प्रतिबोध देने का उचित अवसर मिला। वे बोले- तथा न बाधते स्कन्धः, यथा बाधति बाधते ।” (अर्थात् पालकी से मेरे कन्धों को इतना भार रूपी दुःख नहीं लगता, जितना अशुद्ध संस्कृत से) । सिद्धसेन ने सोचा- “मेरी भूल बताने वाला यह कौन है?" उन्होंने पालकी वाले की तरफ ध्यान से देखा तो आचार्य को पहचान लिया । तत्क्षण उसका सारा अहं पिघल गया । वह पालकी से नीचे उतर कर गुरु चरणों में गिर पड़ा । उसका अहं गुरु के यथा समय दिये एक ही उपालम्भ से विनय और समर्पण में रूपान्तरित वृद्धवादी गुरु के रूप में एक ऐसे कलाकार थे जिन्होंने शिष्य की विद्वत्ता की अंधेरी भित्ति पर ज्योति के अक्षर लिख दिये । शिष्य ने जब उन्हें पढ़ा तो अनेक महान् ग्रन्थों की रचना कर दी। पालकी वाहक के रूप में गुरु की पहचान उनके जीवन का निष्कर्ष हो गया। अगर गुरु का बोध नहीं मिलता तो सम्भवतः जिनशासन में वे इतने प्रभावक आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित नहीं हो पाते । गया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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