Book Title: Jivan Paribodh Ka Marg Dharm
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf

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Page 1
________________ जीवन परिबोध का मार्ग : धर्म वर्तमान युग में धर्म के नाम पर अनेक विवाद चल रहे हैं, अनेक प्रकार के संघर्ष सामने पा रहे हैं। ऐसी बात नहीं है कि अभी वर्तमान में ही ये विवाद और संघर्ष उभर आए हैं। प्राचीन और बहुत प्राचीन काल से ही 'धर्म' एक विवादास्पद प्रश्न रहा है, पूर्व से ही वह संघर्ष का कुरुक्षेत्र बना रहा है। प्रत्यक्ष की बहत-सी बातों को लेकर भी जब कभी-कभी विवाद उठ खड़े होते हैं, संघर्ष की बिजलियाँ कौंधने लग जाती है, तो जो अप्रत्यक्ष वस्तु है, उसके लिए विवाद खड़ा होना कोई आश्चर्य की बात नहीं। वस्तुतः धर्म एक ऐसी आन्तरिक स्थिति है, जिसकी बाह्य स्थूल दृश्य पदार्थों के समान प्रत्यक्ष अनुभूति साधारण साधक को नहीं हो पाती। वह सिर्फ श्रद्धा और उपदेश के आधार पर ही धर्म के लिए चलता रहता है। यही कारण है कि परसर के मतभेदों के कारण धर्म के सागर में विवाद के तूफान मचल उठते हैं, तर्क-वितर्क का भंवर लहरा उठता है। धर्म क्या है? म्ल प्रश्न यह है कि धर्म क्या है ? अन्तर में जो पवित्र भाव-तरंगें उठती हैं, चेतना की निर्मल धारा बहती है, मानस में शुद्ध संस्कारों का एक प्रवाह उमड़ता है, क्या वही धर्म है ? या बाहर में जो हमारा कृतित्व है, क्रियाकांड है, रीति-रिवाज हैं, खाने-पीने, पहननेप्रोढ़ने के तौर-तरीके हैं, वे धर्म है ? हमारा आन्तरिक व्यक्तित्व धर्म है या बाह्य व्यक्तित्व ? हमारे व्यक्तित्व के दो रूप हैं-एक आन्तरिक व्यक्तित्व है, जो वास्तव में, हम जैसे अन्दर में होते हैं, उससे निर्मित होता है। दूसरा रूप है--बाह्य व्यक्तित्व । हम जैसा बाहर में करते हैं, उसी के अनुरूप हमारा बाह्य व्यक्तित्व निर्मित होता है। हमारे समक्ष प्रश्न यह है कि होना' या 'करना' इनमें धर्म कौन-सा है ? व्यक्तित्व का कौन-सा रूप धर्म है ? अन्दर में होना धर्म है, अथवा बाहर में करना धर्म है ? ___ होने' और 'करने में बहुत अन्तर है। अन्दर में हम जैसे होते हैं, उसे बहुत कम व्यक्ति समझ पाते हैं। आन्तरिक व्यक्तित्व को पकड़ना उतना ही कठिन है, जितना पारे को अंगुलियों से पकड़ना। बाह्य व्यक्तित्व को पकड़ लेना बहुत सरल है, उतना ही सरल, जितना कि जल की सतह पर तैरती हुई लकड़ी को छू लेना। बाहर में जो आचार-व्यवहार होता है, उसे साधारण बुद्धि वाला भी शीघ्र ही ग्रहण कर लेता है, और उसे ही हमारे व्यक्तित्व का प्रतिनिधि रूप मान लेता है। आज बाहरी व्यक्तित्व ही हमारा धर्म बन रहा है। जितने भी विवाद उठे हैं, संघर्ष उभरे हैं, मत और पंथ का विस्तार हुआ है, वे सब बाहर में धर्म को मान लेने से ही हुए हैं। दिगम्बर-श्वेताम्बर के रूप में जैन-धर्म के दो टुकड़े क्यों हुए? बौद्धों के हीनयान और महायान तथा वैदिकों के शैव और वैष्णव मतों की बात छोड़िए, हम अपने घर की ही चर्चा करें कि आखिर कौन-सा जागीरी, जमींदारी का झगड़ा हुआ कि एक बाप के दो बेटे अलग-अलग खेमों में जा डटे और एक-दूसरे से झगड़ने लगे। श्वेताम्बर और दिगम्बर आचार्यों ने एक ही बात कही है कि मन में निष्कामता और निस्पृहता का भाव हो, वीतराग दशा में स्थिरता हो, करुणा और परोपकार की वृत्ति हो, संयम एवं जीवन परिवोष का मार्ग : धर्म १०७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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