Book Title: Jivan Me Swa Ka Vikas Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf View full book textPage 3
________________ के क्षुद्र अहंकार और क्रोध का एक दुष्परिपाक ही प्रतीत होता है। निष्कर्ष यह है कि मनुष्य जाति के युद्ध, संघर्ष और विनाश के इतिहास का मूल उत्स ये ही वृत्तियाँ हैं। राग की वत्तियाँ : भीतरी आवरण : राग की वृत्तियाँ कभी-कभी उदात्त रूप में भी व्यक्त होती हैं, वह मनुष्य को धर्म, समाज और राष्ट्र के लिए बलिदान होने को भी प्रेरित करती हैं और मनुष्य अपना प्राण हथेली में ले कर मौत से पिल पड़ता है। राग के इस ऊर्ध्वमुखी प्रवाह के उदाहरण भी इतिहास के पृष्ठों पर चमक रहे हैं और उनसे एक आदर्श प्रेरणा प्रस्फुरित हो रही है। राग का यह ऊर्जीकरण मनुष्य के राष्ट्रिय एवं सामाजिक जीवन का मेरुदण्ड है, यह मानते हुए भी मैं आपसे उस भूमिका से ऊपर की एक बात और कह देना चाहता हूँ, वह है अध्यात्म की बात । अध्यात्म के चिंतनशील प्राचार्यों ने द्वेष को जिस प्रकार एक बंधन तथा आवरण माना है, उसी प्रकार राग को भी। उनकी दृष्टि में ये दोनों आवरण है, और चेतना के प्रावरण हैं, भीतर के प्रावरण है। अध्यात्म की यह अद्भुत विशेषता है कि उसने कभी भी बाहरी आवरण की चिता नहीं की। शरीर, इन्द्रियाँ, धन, परिवार ये सब केवल बाहरी आवरण है। अपने आप में ये न बुरे हैं, न भले । ये अकेले में कोई दुष्परिणाम पैदा नहीं करते, विनाश और संहार नहीं करते और न कल्याण ही कर सकते है। जैन-दर्शन ने इसीलिए इन प्रावरणों को 'अधातिया' कर्म कहा है। आघाती कर्म: घाती-प्रघाती कर्म की व्याख्या समझ लेने पर भगवान महावीर की जीवन-दृष्टि आपके समक्ष स्पष्ट हो जाएगी, ऐसा मुझे विश्वास है। आघाती का मतलब है, आत्मस्वरूप को किसी भी प्रकार की घात नहीं पहुँचानेवाला कर्म। आप जीवित है, आयुष्य का भोग कर रहे हैं, तो इससे यह मतलब नहीं कि आपकी आत्मज्योति मलिन हो रही है। आप कोई पाप, अनर्थ या बुराई कर रहे हैं। आप यदि शताधिक वर्ष भी जीवित रहते हैं, तो भी इससे कोई आत्मस्वरूप में बाधा पहुँचने जैसी बात नहीं है। नाम कर्म के उदय से सुन्दर एवं दृढ़ शरीर मिला है, इंद्रियों की संपूर्ण सुन्दर रचना हुई है, तो इससे भी प्रात्मा पतित नहीं हो जाती है। वेदनीय कर्म से सुख-दुःख की उपलब्धि होती है, किन्तु न सुख आत्मज्योति को मलिन करता है और न दुःख ही। ऊँच-नीच गोत्र मिलने से भी आत्मा कोई ऊँची-नीची नहीं हो जाती। इस प्रकार आप देखेंगे कि जैन-दर्शन का संघर्ष बाह्य में नहीं है। बाह्य से कभी वह न डरता है और न लड़ता है। उसका संघर्ष तो मात्र भीतर से है। बाहर में धन है, तो उससे क्या ? धन स्वयं में न कोई बुराई है, न भलाई। बुराई भलाई, हानि-लाभ तो उसके उपयोग में है। उपयोग का यह तत्त्व भावना में रहता है। यदि आप उसका सदपयोग करते हैं, तो उस धन से पुण्य भी कर सकते हैं, सेवा भी कर सकते है। घर में बच्चा भखा है, आप दूध पी रहे हैं, और उसे दूध नहीं मिला है। आप सोचते हैं कि मैं आज नहीं पाऊँगा, दूध बच्चे को दे देना चाहिए। घर या पड़ोस में कोई अस्वस्थ है, उसे आवश्यकता है, अब आप अपनी वस्तु को उसे समर्पित कर देते हैं, यह वस्तु का सदुपयोग है। यदि आप वस्तु का गलत नियोजन करते हैं, धन से शराब और वेश्या-गमन आदि की वृत्ति को प्रोत्साहन देते हैं, तो वही वस्तु बुरी भी बन जाती है । धर्म : एक शाश्वत दर्शन : कहने का अभिप्राय यह है कि धन से बुराई का जन्म नहीं होता, बल्कि मन से होता है। मन मैला है, घूरा है, तो वहाँ कुछ भी डाल दो, कीड़े ही पैदा होंगे। मन अगर स्वच्छ है, जीवन में 'स्व' का विकास १४६ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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