Book Title: Jivan Drushti me Maulik Parivartan
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 2
________________ धर्म और समाज भक्ति तो उसके गुणोंका स्मरण, उसके रूपकी पूजा और उसके प्रति श्रद्धा है । पूजाका मूलमंत्र है 'सर्वभूतहिते रतः' (सब भूतोंमें परमात्मा है )अर्थात् हम सब लोगोंके साथ अच्छा बर्ताव करें, सबके कल्याणकी बात सोचें । और सच्ची भक्ति तो सबके सुखमें नहीं, दुःखमें साझीदार होनेम है । ज्ञान है आत्म-ज्ञान; जड़से भिन्न, चेतनका बोध ही तो सच्चा ज्ञान है । इसलिए चेतनके प्रति ही हमारी अधिक श्रद्धा होनी चाहिए, जड़ के प्रति कम । पर इस बातकी कसौटी क्या है कि हमारी श्रद्धा जड़में ज्यादा है या चेतनमें ? उदाहरणके रूप में मान लीजिए कि एक बच्चेने किसी धर्म-पुस्तकपर पाँव रख दिया । इस अपराधपर हम उसके तमाचा मार देते हैं । क्योंकि हमारी निगाहमें जड़ पुस्तकसे चेतन लड़का हेच है। यदि सही मानोंमें हम ज्ञान-मार्गका अनुसरण करें, तो सद्गुणोंका विकास होना चाहिए । पर होता है उल्टा । हम ज्ञान-मार्गके नामपर वैराग्य लेकर लँगोटी धारण कर लेते हैं, शिष्य बनाते हैं और अपनी इहलौकिक ज़िम्मेदारियोंसे छुट्टी ले लेते हैं । दरअसल वैराग्यका अर्थ है जिसपर राग हो, उससे विरत होना। पर हम वैराग्य लेते हैं उन जिम्मेदारियोंसे, जो आवश्यक है और उन कामोंसे, जो करने चाहिए। हम वैराग्यके नामपर अपंग पशुओंकी तरह जीवनके कर्म-मार्गसे हट कर दूसरोंसे सेवा करानेके लिए उनके सिरपर सवार होते हैं । वास्तवमें होना तो यह चाहिए कि पारलौकिक ज्ञानसे इह. लोकके जीवनको उच्च बनाया जाय । पर उसके नामपर यहाँके जीवनकी जो जिम्मेदारियाँ हैं, उनसे मुक्ति पानेकी चेन की जाती है । लोगोंने ज्ञान-मार्गके नामपर जिस स्वार्थान्धता और विलासिताको चरितार्थ किया है, उसका परिणाम स्पष्ट हो रहा है। इसकी ओटमें जो कविताएँ रची गई, वे अधिकांशमें शृङ्गार-प्रधान हैं । तुकारामके भजनों और बाउलों के गीतोंमें जिस वैराग्यकी छाप है, साफ-सीधे अर्थमें उनमें बल या कर्मकी कहीं गन्ध भी नहीं । उनमें है यथार्थवाद और जीवनके स्थूल सत्यसे पलायन । यही बात मन्दिरों और मठोंमें होनेवाले कोत्तनोंके संबंध भी कही जा सकती हैं । इतिहासमें मठों और मंदिरोंके ध्वंसकी जितनी घटनाएँ हैं, उनमें एक बात तो बहुत ही स्पष्ट है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4