Book Title: Jinchandrasuri ki Shreshth Rachna Samverangshala Aradhana
Author(s): Lalchandra B Gandhi
Publisher: Z_Manidhari_Jinchandrasuri_Ashtam_Shatabdi_Smruti_Granth_012019.pdf

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Page 2
________________ का अवलोकन बड़ी मुश्किल से कर सके। वहाँ की रिपोर्ट ३८-३६ में 'संवेग रंगशाला' के सम्बन्ध में अन्वेषण पूर्वक कच्ची नोध व्यवस्थित कर प्रकाशित कराने के पहिले ही वे संक्षिप्त परिचय सूचित किया था। उसकी रचना सं०११२५ ईस्वी सन् १९१७ अक्टोबर मास में स्वर्गस्थ हुए। में हुई थी। लि. प्रति सं० १२०७ की थी। रचना का ___ आज से ५० वर्ष पहिले-ईस्वी सन् १९२० अक्टोबर आधार नीचे टिप्पणी में मैंने मूलग्रन्थ की अर्वाचीन से० में बड़ौदा-राजकीय सेन्ट्रल लाइब्रेरी (संस्कृत पुस्तकालय) में ला० की ह० लि. प्रति से अवतरण द्वारा दर्शाया था'जैन पंडित' उपनामसे हमारी नियुक्ति हुई, और विधि- विक्कमनिवकालाओ समइक्कतेसु वरिसाण । वशात् सद्गत ची० डा० दलाल एम० ए० के अकाल एक्कारमसु सएसु पणवीस समहिएसु ॥ स्वर्गवास से अप्रकाशित वह कच्ची नोंध-आधारित निपत्ति संपत्ता एसाराहण त्ति फुडपायडपयत्था।" 'जेसलमेर दुर्ग-जैन ग्रन्थभण्डार-सूचीपत्र' सम्पादित-प्रकाशित भावार्थ-विक्रमनृपकाल से ११२५ वर्ष बीतने के कराने का हमारा योग आया। दो वर्षों के बाद बाद स्फुट प्रगट पदार्थवाली यह आराधना सिद्धि को ईस्वी सन १६२३ में उस संस्था द्वारा गायकवाड ओरि- प्राप्त हुई। यन्टल सिरीज नं० २१ में यह ग्रन्थ बहुत परिश्रम से इसके पीछे मैंने तह ट्रिप्पणिका का भी संवाद बम्बई नि सा द्वारा प्रकाशित हुआ है। बहुत ग्रन्थ टेववट भ्रातजिनचन्द्रीया १००५३" दर्शाया था-'संबेगरङ्गशाला ११२५ वर्षे नयागाभयगोषणा के बाद उसमें प्रस्तावना और विषयवार अप्रसिद्ध मैंने वहाँ संस्कृत संक्षेप में परिचय कराया था कि ग्रन्थ, ग्रन्थकृत-परिचय परिशिष्ट आदि संस्कृत भाषा में 'आराधनेत्यपराह्वयं नवाइवत्तकाराभयदेवसूरेरभ्यर्थनया मैंने तैयार किया था । उसमें जेसलमेर दुर्ग के बड़े भण्डार विरचिता। विरच यता चायं जिनेश्वरसूरे मुख्य: 'शष्योऽमें नं० १८३ में रही हुई उपर्युक्त सवेगरंगशाला (२८३४२३ भयदेवसुरेइन वृद्धगती यः ।" साइज) ३४७ पत्रवाली ताडपत्रीय पोथी का सूचन है। अभयदेवसूर पर टिपणी में मैंने उसी संवेगरंगशाला वहाँ अन्तिम उल्लेख इस प्रकार है : की से० ला० की ह० लि. प्रति से पाठ का अवतरण वहां __"इति श्रीजिनचन्द्रसूरिकृता तद्विनेय श्रीप्रसन्नचन्द्रा- दर्शाया था - चार्यसमभ्यर्थित-गुणचन्द्राण प्रतियत्कृ (संस्कृ)ता जिन- सिरिअभय देव सरि ति पत्तकित्ती परं भवणे ॥[१००४:] वल्लभागिना संशोधिता संवेपरंगशालाभिधानाराधना जे कोट महारिउ विम्ममाणस्प नरवइस्सेव । समाप्ता। सुपधम्पास दढतं, निव्वतियमंगवित्तीहि ॥ [१०० ४२] संवत् १२०७ वर्षे ज्येष्ठमुदि १० गुरौ अद्य ह श्रीवट- सम्भावसको सिरिणिचंदमुनिवरेण इमाण । पद्रके दंड० श्रीवोसरि प्रतिपत्तौ संवेगरंगशाला पुस्तकं मला गारेण द उच्च गऊण वरवणकुसुमाइं ॥ [१०० ४३] लिखित मिति ।" मूसुय-कागणाओ, गुंथित्ता नियय पइगुणेण दढं । -स्व० दलाल ने इसकी पीछे की २७ पद्योंवाली वित्रिहत्य-मोर धभरा, निम्मविया राहणामाला ॥[१००४४]' लिखानेवाले की प्रशस्ति का सूचन किया है, अवकाशा- भावार्थः - भवन में श्रेष्ठ कीर्ति पानेवाले श्री अभयभाव से वहाँ लिखो नहीं थी। देवसूरि हुए। जिसने कुबोध रूप महारिपु द्वारा विनष्ट जे० भां० सूचीपत्र में 'अप्रसिद्ध ग्रन्थ-ग्रन्थकृत्परिचय' किये जाते नरपति जैसे श्रुतधर्म का दृढ़त्व अंगों की कराने के समय मैंने 'जनोपदेशग्नन्याः' इस विभाग में पृ० वृत्तियों द्वारा किया। उनकी अभ्यर्थना के वश से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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