Book Title: Jinakrupachandrasuriji aur Unka Sadhu Samudaya
Author(s): Bhanvarlal Nahta
Publisher: Z_Manidhari_Jinchandrasuri_Ashtam_Shatabdi_Smruti_Granth_012019.pdf

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Page 1
________________ श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिजी और उनका साधु समुदाय [भंवरलाल नाहटा] बीसवीं शताब्दी के चारित्रनिष्ठ प्रभावक महापुरुषों मन्दिर, नाल को धर्मशाला आदि लाखों की सम्पत्तिमें श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजी का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण परिग्रह का त्याग कर क्रियोद्धार किया। इन्दौर में पैंताहै। उन्होंने अपने जीवन में जैन शासन की उल्लेखनीय लीस आगम वांचे। आपने बत्तीस वर्ष पर्यन्त विद्याध्ययन सेवायें की और गुजरात, राजस्थान, कच्छ और मध्यप्रदेश किया था । यति अवस्था में आपने ज्योतिष विषयकग्रन्थों का में उनविहार करके खरतरगच्छ को प्रतिष्ठा में समुचित भी गहन अध्ययन किया था पर साधु होने के बाद उस ओर अभिवृद्धि की थी। वे एक तेजस्वी, विद्वान और महान् लक्ष नहीं दिया। कायथा में एक दोक्षा दी। यति अवस्था प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी थे। उन्हें देखकर पूर्वाचार्यों के शिष्य तिलोकमुनि भी कुछ दिन साधुपने में रहे थे । की स्मृति साकार हो जाती थी। खरतरगच्छ की सुवि- सं० १९५२ में उदयपुर चौमासा कर केशरियाजी पधारे । हित परम्परा में अनेक महापुरुषों ने यतिपने के परिग्रह खैरवाड़ा में जैनमन्दिर की प्रतिष्ठा करवायो। सं० १९५३ त्याग स्वरूप क्रियोद्धार करके आत्म-साधना क्रम को देसूरी, १९५४ जोधपुर, सं० १६५५ जेसलमेर, १९५६ अक्षुण्ण रखा है उन्हीं में से आप एक थे। फलौदी चौमासा करके १६५७ में बीकानेर पधारे और ___ आपका जन्म जोधपुर राज्य के चानु गांव में बाफणा अपनी यतिपने की सारी सम्पत्ति को जिसे पहले ही परिमेघराजजी की धर्मपत्नी अमरादेवी को कुक्षि से सं० त्याग कर चुके थे विधिवत् ट्रष्टी आदि कायमकर संघ को सुपुर्द १९१३ में हुआ था। पूर्व पुण्य के प्राबल्य से आपको की। सं० १६५८ जैतारण चौमासा कर गोड़वाड़ पंचतीर्थी साधारण विद्याध्ययन के पश्चात् गुरुवर्य श्रीयुक्तिअमृत करते हुए फलोदी निवासी सेठ फूलचन्दजी गोलछा के संघ मुनि का संयोग प्राप्त हुआ जिससे पंचप्रतिक्रमणादि धार्मिक सहित शत्रुञ्जय-यात्रा की। सं० १९५६ पालीताना, अभ्यास के पश्चात् व्याकरण, न्याय, कोष आदि विषयों का १९६० पोरबन्दर चातुर्मास कर कच्छ देश में पदार्पण अच्छा ज्ञान हो गया। सदाचारी और त्याग वैराग्यवान् किया । मुंद्रा, मांडवी, बिदड़ा, भाडिया, अंजार आदि होने से सिद्धान्त पढ़ाने योग्य ज्ञात कर गुरुजी ने आपको स्थानों में पाँच वर्ष विचरे और पाँच उपधान करवाये। सं. १९३६ में यति दीक्षा दी। गुरुमहाराज के साथ दस साधु-साध्वियों को दोक्षा दी। माण्डवी से आपके अनेक स्थानों को तीर्थयात्रा व धर्मप्रचार हेतु आपने अनेक उपदेश से सेठ नाथाभाई ने शत्रुजय का संघ निकाला। स्थानों में चातुर्मास किये। रायपुर, नागपुर आदि मध्य सं० १९६६ में आपश्री ने १७ ठाणों से चातुर्मास पालीप्रदेश में आपने पर्याप्त विचरण किया था। संयम मार्ग में ताना में किया। नन्दीश्वर द्वीप की रचना हुई और पाँच आगे बढ़ने की भावना थी ही । सं० १९४१ में गुरु महाराज साधु-साध्वियों को दीक्षित किया। सं० १९६० में जामका स्वर्गवास हो जाने से वैराग्य परिणति में और भी अभि- नगर चातुर्मास कर उपधानतप कराया, चार दीक्षाएं हुई। वृद्धि हुई । परिणाम स्वरूप आपने ज्ञानभंडार, दो उपाश्रय सं० १९६८ में मोरबी चातुर्मास कर भोयणी, संखेश्वर होते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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