Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिजी और उनका साधु समुदाय
[भंवरलाल नाहटा]
बीसवीं शताब्दी के चारित्रनिष्ठ प्रभावक महापुरुषों मन्दिर, नाल को धर्मशाला आदि लाखों की सम्पत्तिमें श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजी का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण परिग्रह का त्याग कर क्रियोद्धार किया। इन्दौर में पैंताहै। उन्होंने अपने जीवन में जैन शासन की उल्लेखनीय लीस आगम वांचे। आपने बत्तीस वर्ष पर्यन्त विद्याध्ययन सेवायें की और गुजरात, राजस्थान, कच्छ और मध्यप्रदेश किया था । यति अवस्था में आपने ज्योतिष विषयकग्रन्थों का में उनविहार करके खरतरगच्छ को प्रतिष्ठा में समुचित भी गहन अध्ययन किया था पर साधु होने के बाद उस ओर अभिवृद्धि की थी। वे एक तेजस्वी, विद्वान और महान् लक्ष नहीं दिया। कायथा में एक दोक्षा दी। यति अवस्था प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी थे। उन्हें देखकर पूर्वाचार्यों के शिष्य तिलोकमुनि भी कुछ दिन साधुपने में रहे थे । की स्मृति साकार हो जाती थी। खरतरगच्छ की सुवि- सं० १९५२ में उदयपुर चौमासा कर केशरियाजी पधारे । हित परम्परा में अनेक महापुरुषों ने यतिपने के परिग्रह खैरवाड़ा में जैनमन्दिर की प्रतिष्ठा करवायो। सं० १९५३ त्याग स्वरूप क्रियोद्धार करके आत्म-साधना क्रम को देसूरी, १९५४ जोधपुर, सं० १६५५ जेसलमेर, १९५६ अक्षुण्ण रखा है उन्हीं में से आप एक थे।
फलौदी चौमासा करके १६५७ में बीकानेर पधारे और ___ आपका जन्म जोधपुर राज्य के चानु गांव में बाफणा अपनी यतिपने की सारी सम्पत्ति को जिसे पहले ही परिमेघराजजी की धर्मपत्नी अमरादेवी को कुक्षि से सं० त्याग कर चुके थे विधिवत् ट्रष्टी आदि कायमकर संघ को सुपुर्द १९१३ में हुआ था। पूर्व पुण्य के प्राबल्य से आपको की। सं० १६५८ जैतारण चौमासा कर गोड़वाड़ पंचतीर्थी साधारण विद्याध्ययन के पश्चात् गुरुवर्य श्रीयुक्तिअमृत करते हुए फलोदी निवासी सेठ फूलचन्दजी गोलछा के संघ मुनि का संयोग प्राप्त हुआ जिससे पंचप्रतिक्रमणादि धार्मिक सहित शत्रुञ्जय-यात्रा की। सं० १९५६ पालीताना, अभ्यास के पश्चात् व्याकरण, न्याय, कोष आदि विषयों का १९६० पोरबन्दर चातुर्मास कर कच्छ देश में पदार्पण अच्छा ज्ञान हो गया। सदाचारी और त्याग वैराग्यवान् किया । मुंद्रा, मांडवी, बिदड़ा, भाडिया, अंजार आदि होने से सिद्धान्त पढ़ाने योग्य ज्ञात कर गुरुजी ने आपको स्थानों में पाँच वर्ष विचरे और पाँच उपधान करवाये। सं. १९३६ में यति दीक्षा दी। गुरुमहाराज के साथ दस साधु-साध्वियों को दोक्षा दी। माण्डवी से आपके अनेक स्थानों को तीर्थयात्रा व धर्मप्रचार हेतु आपने अनेक उपदेश से सेठ नाथाभाई ने शत्रुजय का संघ निकाला। स्थानों में चातुर्मास किये। रायपुर, नागपुर आदि मध्य सं० १९६६ में आपश्री ने १७ ठाणों से चातुर्मास पालीप्रदेश में आपने पर्याप्त विचरण किया था। संयम मार्ग में ताना में किया। नन्दीश्वर द्वीप की रचना हुई और पाँच आगे बढ़ने की भावना थी ही । सं० १९४१ में गुरु महाराज साधु-साध्वियों को दीक्षित किया। सं० १९६० में जामका स्वर्गवास हो जाने से वैराग्य परिणति में और भी अभि- नगर चातुर्मास कर उपधानतप कराया, चार दीक्षाएं हुई। वृद्धि हुई । परिणाम स्वरूप आपने ज्ञानभंडार, दो उपाश्रय सं० १९६८ में मोरबी चातुर्मास कर भोयणी, संखेश्वर होते
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
हुए अहमदाबाद पधारे। १९६१ का चातुर्मास किया। केशरीचन्द ने उद्यापन किया। धम्माभाई, पानाभाई, फिर तारंगाजो, खंभात यात्रा कर सं० १९७० का मोतीभाई आदि ने चतुर्थ व्रत ग्रहण किया। सं० १९७५-७६ चौमासा पालीताना किया। रतलाम वाले सेठ चाँदमलजी का चातुर्मास करके सं० १९७७ में बड़ौदा चातुर्मास किया। को धर्मपत्नी फूलकुंवर बाई ने आपसे भगवतीसूत्र बंचाया, रतलाम वाले सेठजो ने आकर मालवा पधारने की वीनती की उपधान करवाया । सोने को मोहरों की प्रभावना और और रुपया-नालेर की प्रभावना की । तदनन्तर आप अहमस्वधर्मीवात्सल्यादि किये।।
दाबाद, कपड़बंज, रम्भापुर, झाबुआ होते हुए रतलाम पालीताना से आपश्री भावनगर, तलाजा होते हुए पधारे। उपधानतप के अवसर पर रतलाम-नरेश सजनखंभात पधारे। वहाँ से सेठ पानाचन्द भगूभाई की विनती सिंहजी भी दर्शनार्थ पधारे। यहाँ पाँच साधु-साध्वियों से सूरत पधार कर सं० १९७१ का चौमासा किया। वहाँ को दीक्षित कर इन्दौर पधारे । सं० १९७६ का चातुर्मास साधुओं को दीक्षा दी। तदनन्तर जगड़िया, भरौंच, कावी कर भगवती मूत्र वांचा। रतलाम वाले सेठाणीजी ने तीर्थ होते हुए पादरा पाधारे । वहाँ से बड़ौदा होते हुए रुपया नारेल की प्रभावना को। श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिजी बम्बई पधारे । मोतोसाह सेठ के वंशज सेठ रतनचन्द खीम- ज्ञान भण्डार की स्थापना हुई। उ० सुमतिसागरजी को चन्द, मूलचन्द हीराचन्द, प्रेमचन्द कल्याणचन्द, के शरीचन्द महोपाध्याय पद, राजसागरजी को वाचक पद व मणिकल्याणचन्द आदि संघ ने आपका प्रवेशोत्सव बड़े ठाठ से सागरजी को पण्डित पद से विभूषित किया गषा। कराया। लालबाग में सं० १९८२ का चौमासा करके संघ सहित मांडवगढ़ की यात्रा कर भोपावर, राजगढ़, भगवतीसूत्र वाँचा। आपको विद्वत्ता, वाचनकला और खाचरोद, सेमलिया होते हुए सैलाना पधारे । सैलाना नरेश उच्चचरित्र से संघ बड़ा प्रभावित हुआ और आपकी इच्छा न आपके उपदेशों से बड़े प्रभावित हुए। तदनन्तर प्रतापगढ़ होते होते हुए भी संघ के अत्यन्त आग्रह से आचार्यपद स्वीकार हए मंदसौर में सं० १९७६ का चातुर्मास किया। वहाँ से करना पड़ा। इस अवसर पर लालबाग में पंचतीर्थी को नीमच, नींबाहेड़ा, चित्तौड़ होते हुए करहेड़ा पार्श्वनाथ और रचना हुई । बीकानेर से श्रीजिनचारित्रसूरिजी को साम्नाय देवलवाड़ा होकर उदयपुर पधारे। कलकत्ता बाले बाबू सूरिमंत्र देने के लिए बुलाया गया।
चंपालाल प्यारेलाल के संघ सहित केशरिया जी पधारे । सं० १६७३ का चौमासा भी बम्बई हुआ। विहार वहाँ से लौटकर सं० १९८१ का चातुर्मास ठाणा २५ से करके मार्ग में तीन साधुओं को दोक्षित किया । सूरतवालो उदयपर किया। तदनन्तर राणकपुर पंचतीर्थी करके जालौर, कमलाबाई को विनती से बुहारी पधार कर चातुर्मास
बालोतरा पधारे। सं० १९८२ का चातुर्मास बातोतरा किया और श्रीवासुपूज्य भगवान के जिनालय की प्रतिष्ठा
किया । नाकोड़ा पार्श्वनाथ यात्राकरके संघसहित जेसलमेर करवायी। तीन दीक्षाएं दीं। सुरत चातुर्मास के लिए पधारे । साध-विहार न होने से मारवाड़ में लोग धर्म पानाचन्द भगुभाइ आर कल्याणचन्द घलाभाइ आदि का विमख हो गये थे। ओपने जिनप्रतिमा के आस्थावान करके विशेष विनति से शोतलवाड़ो उपाश्रय में विराजे । पाना• बाहड़मेर में एक दिन में ४०० मुहपत्तियां तोड़वाकर श्रद्धालु चन्द भाई ने जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार बनवाया व उद्यान
बनाया। सं० १९८३ में जेसलमेर चातुर्मासकर वहां के किया। इस अवसर पर श्रीजयसागरजी को उपाध्यायपद श्रीजिनभद्रसरि ज्ञानभंडार के ताडपत्रीय ग्रन्थों का जीर्णोव सुखसागरजी को प्रवर्तक पद से विभूषित किया। प्रेमचंद द्धार कराया । कई प्रतियों के फोटो स्टेट व नकले करवाई।
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
कई ग्रन्थों की प्रेसकापियाँ करवा लाये । सं० १९८४ का का अवसर मिला। जो गुण उनमें देखे गये अद्यतन कालीन चौमासा फलौदी करके मा० सु० ५ को बीकानेर पधारे। साधुओं में दुर्लभ हैं। उनमें समय की पाबन्दी बड़ी बीकानेर में आपने तीन चातुर्मास किये जिसमें उपधान, दीक्षा ज़बर्दस्त थी। विहार, प्रतिक्रमणादि किसी भी क्रिया में उद्यापनादि हुए। श्री प्रेमचन्दजी खचानची ने उपधान कोई आवे या न आवे, एक मिनिट भी विलम्ब नहीं करते। करवाया। उस समय रुग्णावस्था में भी उन्होंने शिष्यों को शास्त्रों का अध्ययन-अभ्यास एवं स्मरणशक्ति भी बहुत समस्त आगमों की वाचना दी थी। हमारी कोटड़ी में गजब की थी। भगवती सूत्र जैसे अर्थ गंभीर आगम को चातुर्मास होने से हमें धार्मिक अभ्यास, धर्मचर्चा, बिना मूल पढ़े सीधा अर्थ करते जाते थे। यह उनके गहरे व्याख्यान-श्रवण, प्रतिक्रमणादि का अच्छा लाभ मिला। आगम ज्ञान का परिचायक था। ___ सं० १९८७ के चातुर्मास के अनन्तर आप सूरतवाले आप एक आसन पर बैठे हुए घण्टों जाप करते, व्याख्यान श्री फतचन्द प्रेमचन्द भाई की वीनति से पालीताना पधार देते । आपके पास गुरु-परम्परागत आम्नाय और गच्छमर्यादा कर सं० १६६४ मिती माघ सुदि ११ के दिन स्वर्गवासी आदि का पूर्ण अनुभव था। आपने अपने जीवन में जैन
संघ का जो उपकार किया, वर्णनातीत है। आप प्रतिदिन आपकी प्रतिमाएं शत्रुजय तलहटी मंदिर-धनावसही एकाशना व तिथियों के दिन प्रायः उपवास किया करते दादावाड़ी में, जैन भवन में, और बीकानेर श्रोजिन- थे। आप अप्रमत्त संयम पालन में प्रयत्नशील रहते थे। कृपाचन्द्रसूरि उपाश्रय में है रायपुर के मंदिर में भी आपकी आचार्य श्रीजयसागरसूरिजी प्रतिमा पूज्यमान है।
श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिजी का शिष्य-समुदाय बड़ा ___ आपके उपदेश से इन्दौर, सूरत, बीकानेर आदि ज्ञान- विशाल था। आपके विद्वान शिष्य आणंदमुनिजी का स्वर्गभंडार, पाठशालाएँ, कन्याशालाए, खुली। कल्याणभवन, वास आपके समक्ष ही बहुत पहले हो गया था। द्वितीय चांदभवन आदि धर्मशालाएं तथा जिनदत्तसरि ब्रह्मचर्याश्रम शिष्य उपाध्याय जयसागरजी थे जिन्हें आचार्य पद देकर संस्थाओं के स्थापन में आपका उपदेश मुख्य था। आपने आपने जयसागरसूरिजी बनाया, बड़े विद्वान और कियापात्र बहुत से स्तवन, सज्झाय, गिरनार पूजा आदि कृतियों को थे। श्रीजयसागरसूरिजी के छोटे भाई राजसागरजी ने भी रचना की जो कृपाविनोद में प्रकाशित हैं। कल्पसूत्र टीका सूरिजी के पास दीक्षा ली थी उन्होंने सूरिजी की बहुत सेवा द्वादश पर्वव्याख्यान व श्रीपाल चरित्र के हिन्दी अनुवाद की और छोटी बहिन ने भी दीक्षा ली थी जिनका नाम करके आपने हिन्दी भाषा की बड़ी सेवा की। हेतश्रीजी था, जिनकी शिष्याए' कीत्तिश्रीजी, महेन्द्रश्रीजी __सूरत से श्रीजिनदत्तसूरि प्राचीन पुस्तकोंडार फण्ड आदि हैं, कीतिश्रीजी अभी मन्दसौर में विराजमान हैं। ग्रन्थमाला चालू कर बहुत से महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन श्रीजयसागरसूरिजी महाराज प्रकाण्ड विद्वान थे । बिना करवाया। स्वर्गवास के समय आपकी साधु साध्वी समुदाय शास्त्र हाथ में लिए भी शृंखलाबद्ध व्याख्यान देने का लगभग ७० के आस पास था। तदनन्तर नए साधु दीक्षित अच्छा अभ्यास था। आपने श्रीजिनदत्तसूरि चरित्र दो न होने से घटते २ अभी साधुओं में केवल वयोवृद्ध मुनि भागों में तथा गणधर-सार्धशतक भाषान्तर आदि कई मंगलसागर जी और २०-२२ साध्वियाँ ही रहे हैं। पुस्तकें लिखी थीं। पाप ठाम चौविहार करते थे, अपने
सूरिजी के तीन चौमासा में हमें उन्हें निकट से देखने व्रत-नियमों में बड़े दृढ़ थे। बीकानेर की भयंकर गर्मी में
For Private &Personal Use Only
.
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी आपने पानी लेना स्वीकार नहीं किया और समाधि हुए। आपका नाम सुखसागर रखा गया । शास्त्राम्यास पूर्वक अपनी देह का त्याग कर दिया। बीकानेर रेलदादाजी करके विद्वान हुए और व्याख्यान-वाणी मैं निष्णात में आपके अग्निसंस्कार स्थान में स्मारक विद्यमान है। हो गए। सं० १९७४ मा० सु०१० को गुरुमहाराज गढसिवाणा, मोकलसर आदि में आपने चातुर्मास किए थे ने सूरत में मंगलसागरजी को दीक्षित करे आपके गडसिवाणा में आपके ग्रन्थों का दादावाड़ी में संग्रह विद्य- शिष्य रूप में प्रसिद्ध किया। उस समय कृपाचन्द्रमान है। श्रीजिनजयसागरसूरिजी कृत श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरि सूरिजी १८ ठाणों से थे, इनका १६वां नंबर था। सूरिजी चरित्र ५ सर्ग और १५७० पद्यों में सं० १६६४ फा० सु० के प्रत्येक कार्यो में आपका पूरा हाथ था। इन्दौर १३ पालीताना में रचित है जो जिनपालोपाध्यायकृन में श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरि ज्ञानभण्डार की स्थापना की। द्वादशकुलकवृत्ति के साथ श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरि ज्ञानभंडार आपको सूरिजी ने प्रवर्तक पद से विभूषित किया । पालोताना से प्रकाशित है। इसमें इन्होंने अपना जन्म बालोतरा चौमासा में बहुत से स्थानकवासियों को उपदेश १९४३ दीक्षा १६५६ उपाध्याय पद १९७६ व आचार्य देकर जिनप्रतिमा के प्रति श्रद्धालु बनाया। मध्याह्न में आप पद १९६० पालीताना में होना लिखा है।
जसौल गांव में व्याख्यान देने जाते व शास्त्रचर्चा व धर्मोउपाध्याय मुनिसुखसागरजी पदेश देकर जिनप्रतिमा-पूजा की पुष्टि करते थे। आप
श्रोजिनकृपाचन्द्रसूरिजी के शिष्यों में उपाध्यायजी का उपधान आदि की प्रेरणा करके स्थान-स्थान पर करवाते, स्थान बड़ा महत्त्वपूर्ण है। आप प्रसिद्ध वक्ता थे। आपकी संस्थाएं स्थापित करवाते एवं सामाजिक कुरीतियों के बुलन्द वाणी बहुत दूर-दूर तक सुनाई देती थी। आप विरुद्ध क्रान्तिकारी उपदेश देकर समाज में फैले हुए अधिकतर गुरुमहाराज के साथ विचरे और धार्मिक क्रियाएं मिथ्यात्व को दूर कर व्रत-पच्चक्खाण दिलाते थे। आपके कराने आदि से संघ को सम्भालने का काम आपके जिम्मे कई चातुर्मास गुरुमहाराज के साथ व कई अलग भी हुए । था। आप ने संस्कृत, काव्य, अलंकार आदि का भी
जैसलमेर चौमासे में ज्ञानभण्डार के जीर्णोद्धार, अच्छा अभ्यास किया था। बीकानेर चातुर्मास के समय
व प्राचीन प्रतियों की नकलें फोटोस्टेट करवाने में आपका आपको हजारों श्लोक कण्ठस्थ थे। ग्रन्थ सम्पादनादि
पूरा योगदान था। फलोदी, बीकानेर में भी उपधान आदि कामों में आप हरदम लगे रहते और श्रोजिनदत्तसूरि प्राचीन
हुए। फिर गुरुमहाराज के साथ पालीताना पधारे। सं. पुस्तकोद्धार फंड सूरत से सर्व प्रथम गणधर सार्द्धशतक
१६६२ में शत्रुञ्जय तलहटी की धनवसही में आपकी प्रेरणा प्रकरण व बाद में पचासौं ग्रन्थों का प्रकाशन हो पाये से भव्य दादावाडी हुई जिसमें श्रीपूज्य श्रीजिनचारित्रसुरिजी वह आप के ही परिश्रम और उपदेशों का परिणाम के पास प्रतिष्ठा सम्पन्न करवायी उस समय आप उपाथा। गुरुमहाराज के स्वर्गवास के पश्चात् भी आपने वह
ध्याय पद से विभूषित हुए एवं मुनि कान्तिसागरजी की काम जारी रखा और फलस्वरूप बहुत ग्रन्थ प्रकाश में टोक्षा हुई। इसके बाद सरत. अमलनेर, बम्बई आदि में आये।
चातुर्मास किया। ग्रन्थ सम्पादन-प्रकाशन तो सतत् चालू आप इन्दौर के निवासी मराठा जाति के थे। सेठ ही था। नागपुर, सिवनी, बालाघाट, गोंदिया आदि कानमलजी के परिचय में आने पर उल्लासपूर्वक उनके स्थानों में चातुर्मास किये। उपधान तप आदि हुए। सहाय्य से गुरुमहाराज के पास कच्छ में जाकर दीक्षित गोंदिया का पन्द्रह वर्षों से चला आता मनमुटाव दूर कर
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________ के सं० 1966 के माघ महीने में समारोह पूर्वक मन्दिर को उदयपुर चातुर्मास किया। तदनन्तर गढसिवाणा चातुर्मास प्रतिष्ठा करवायी / तदनन्तर राजनांदगांव के चातुर्मास में कर गोगोलाव जिनालय की प्रतिष्ठा कराई / गुजरात छोड़े भी उपधान आदि करवाये / रायपुर होकर महासमुन्द में बहुत वर्ष हो गये थे, अहमदावाद संघ के आग्रह से वहां चातुर्मास किया। धमतरी पधारकर सं० 2001 के चातुर्मास कर पालीताना पधारे सं० 2016 में उपधान फाल्गुन में अञ्जनशालाका प्रतिष्ठा, गुरुमूर्ति प्रतिष्ठादि तप हुआ। गिरिराज पर विमलवसही में दादासाहब को विशाल रूप में उत्सव करवाये। कान्तिसागरजी की प्रेरणा प्रतिष्ठा के समय जिनदत्तसूरि सेवासंघ के अधिवेशन व साधु से महाकोशल जैन सम्मेलन बुलाया गया जिसमें अनेक सम्मेलन आदि में सब से मिलना हुआ। विद्वान पधारे थे / फिर रायपुर चातुर्मास कर सम्मेतशिखर पालीताना-जैन भवन में चातुर्मास किये। आपकी महातीर्थ को यात्रार्थ पधारे। कलकत्ता संघ की वीनती प्रेरणा से जनभवन की भूमि पर गुरुमन्दिर का निर्माण से दो चातुर्मास किये, बड़ा ठाठ रहा। फिर पटना और वाराणसी में चातुर्मास किये, फिर मिर्जापुर, रीयां होते हुआ। दादा साहब व गुरुमूर्तियों की प्रतिष्ठा हुई। सं० 2022 में घण्टाकर्ण महावीर को प्रतिष्ठा हुई। पालनपुर हुए जबलपुर पधारे। वहां ध्वजदण्डारोपण, अनेक तप के गुरु भक्त केशरिया कम्पनी वालों के तरफ से 51 किलो श्चर्यादि के उत्सव हुए। वहां से सिवनी होते हुए राजनांद गांव में सं० 2008 का चातुर्मास किया। आपके उपदेश का महाघण्ट प्रतिष्ठित किया। दादासाहब के चित्र, से नवीन दादावाड़ी का निर्माण होकर प्रतिष्ठा सम्पन्न पंचप्रतिक्रमण एवं अन्य प्रकाशन कार्य होते रहे / हुई। वहां से सिवनी हो भोपाल व लश्कर, ग्वालियर वृद्धावस्था के कारण गिरिराज की छाया में ही विराजमान चातुर्मास किये। जयपुर पधारकर चातुर्मास किया। अज- " रह कर सं० 2024 के वैशाख सूदि६ को आपका स्वर्गमेर दादासाहब के अष्टम शताब्दी उत्सव में भाग लेकर वास हो गया। . पुरातत्व एवं कलामर्मज्ञ प्रतिभामूर्ति मुनि श्रीकान्तिसागरजी को श्रद्धांजलि [लेखक-अगरचन्द नाहटा ] संसार में दो तरह के विशिष्ट व्यक्ति मिलते हैं / जिनमें जीका असामयिक स्वर्गवास ताः 28 सितम्बर की शाम से किसी में तो श्रमकी प्रधानता होती है किसी में प्रतिभा को हो गया है, वे ऐसे ही प्रतिभा सम्पन्न विद्वान मुनि थे। को। वैसे प्रतिभा के विकास के लिए श्रमको भी आवश्य- जिनका संक्षिप्त परिचय यहां दिया जा रहा है / कता होती है और अध्ययन व साधना में परिश्रम करने वीसवीं शताब्दो के जैनाचार्यों में खरतरगच्छ के से प्रतिभा चमक उठती है / फिर भी जन्म जात प्रतिभा आचार्य श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिजी बडे गीतार्थ विद्वान और कुछ विलक्षण ही होती है, जो बहुत परिश्रम करने पर भी क्रियापात्र आचार्य हो गये हैं। जो पहले बीकानेर के प्रायः प्राप्त नहीं होती। अभी-अभी जयपुर में जिन साहि- यति सम्प्रदाय में दीक्षित हुए थे। आगे चलकर अपने सारे त्यालंकार पुरातत्ववेत्ता और कलामर्मज्ञ मुनिश्री कान्तिसागर परिग्रह को बीकानेर के खरतरगच्छ संघ को सुपुर्द करके