Book Title: Jina aur Jinashasan Mahatmya
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf

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________________ 3. अप्पाणं ठावइस्सामित्ति, अच्झाइयत्वं भवई। मैं आत्मा को धर्म में स्थिर कर लूंगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए। 4. ठिओ परं ठावइस्सामित्ति, अच्झाइयव्वं भवई। मैं स्वयं धर्म में स्थिर होकर दूसरों को भी धर्म में स्थिर कर सकूँगा इसलिए अध्ययन करना चाहिए। स्वाध्याय के यह चार उद्देश्य है। आचार्य अकलंक ने स्वाध्याय के सात लाभ बताए हैं। 8 1. स्वाध्याय से बुद्धि निर्मल होती है। 2. विचारों की शुद्धि होती है। 3. शासन की रक्षा होती है। 4. संशय की निवृत्ति होती है। 5. परपक्ष की शंकाओं का निरस्त होता है। 6. तप, त्याग, वैराग्य की वृद्धि होती है। 7. अतिचारों की शुद्धि होती है। स्वाध्याय के पांच भेद बताए गए हैं / 1. वाचना, 2. पृच्छना 3. परिवर्तना, 4. अनुप्रेक्षा, 5. धर्मकथा। आगमों का पढ़ना वाचना है। पढ़े हुए में शंकाओं को समाधित करना पृच्छना है। पढ़े हुए को पुनःपुनः स्मरण करना परिवर्तना है। उस पर चिनान-मनन करना अनुप्रेक्षा है और आगमिक आधार पर धर्मोपदेश करना धर्म कथा है। * * * * * 300035528000 03683830842200-80038888888888888888888888888888 जन्म मरण का यह क्रम अनादि काल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा। न यह भंग होता है और न उसमें परिवर्तन ही होता है। संसार में अनेक महापुरुष हुए अनन्त चक्रवर्ती और अनन्त तीर्थंकर भी हो चुके है। किन्तु इस नियम को कोई भी भंग नहीं कर सका। पृथ्वी को कंपा देने वाले महाशक्ति राजा, महाराजा भी इस पृथ्वी पर आ पर कोई भी अपने शरीर को टिका नहीं सके। अभिमानी और महा बलवान रावण का भी अंत एक कीड़े की तरह ही हुआ। * युवाचार्य श्री मधुकर मुनि 88285608900-004 8 . तत्त्वार्थ राजवार्तिक स्थानांग सूत्र 5 वा स्थान / (33) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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