Book Title: Jina aur Jinashasan Mahatmya
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/210524/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाध्यायः एक अनुचिन्तन . -डॉ. सुव्रत मुनि अनादि काल से मानव सुखेच्छु रहा है। सुगति की प्राप्ति के लिए निरन्तर प्रायस करता रहा है। अब प्रश्न उठता है कि सुख कैसे मिलता है सुगति कैसे प्राप्ति होती है? इसके लिए भगवान कहते हैं कि नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा। एए मग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छन्ति सोग्गईं। उत्तरा २८/३ अर्थात्-ज्ञान और दर्शन, चारित्र और तप रूप जो मार्ग है, उसका अनुशरण करके जीव सुगति को प्राप्त करते हैं। दशवेकालिक सूत्र में भगवान महावीर ने साधक के लिए ज्ञान प्राप्ति को प्रथम कर्तव्य प्रतिपादित किया है -“पढमं नाणं तओ दया.” दश. ४/१०।। जिज्ञासा होती है कि ज्ञान कैसे प्राप्त होता है? ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक गुण है अनादि काल से एकत्र किए हुए अशुभ कर्मों के प्रभाव के कारण उस पर अज्ञान का आवरण आ गया है। बस उस अज्ञान के आवरण को हटाते ही ज्ञान प्रकट हो जाता है। अज्ञान का आवरण वह स्वाध्याय से टूटता है। यथा सज्झाएणं नाणावरणिज्जं कम्मं खवेश. उत्तरा. २९/१९ । स्वाध्याय से साधक ज्ञानावरणीय कर्म को क्षय करता है। यही कारण है कि चन्द्र प्रज्ञप्ति सूत्र में स्वाध्याय को परम तप बतलाया है -नवि अस्थि नवि य होइ सज्झाएण समं तवो कम्म। ८९ । स्वाध्याय से अनेक भवों के संचित 'दुष्कर्म क्षण भर में क्षीण हो जाते हैं। महर्षि पतञ्जलि ने तो यहाँ कहा कि -“स्वाध्यायादिष्ट देवता संप्रयोग": अर्थात् स्वाध्याय के द्वारा अभीष्ट देवता के साथ साक्षात्कार किया जा सकता है। स्वाध्याय साधना का प्राण है। इसीलिए स्वाध्याय के अभाव में साधना निर्जीव हो जाती है। स्वाध्याय ज्ञान का अक्षय निधान है। स्वाध्याय की प्रवृत्ति के कारण ही आज प्राचीन ज्ञान विज्ञान का अनुपम उपहार आज मानव जीवन में सुलभ है। इससे सिद्ध है कि स्वाध्याय ज्ञान के विकास का अनन्य साधन है। जो स्वाध्याय इतना महत्वपूर्ण है उसका क्या अर्थ है? स्वाध्याय और अध्ययन में क्या अन्तर सामान्यतया कुछ भी पढ़ना अध्ययन है। परन्तु स्वाध्याय इससे भिन्न है -स्वस्थ मन से सद्ग्रन्थों का अध्ययन करना स्वाध्याय कहलाता है। आगम टीकाकार आचार्य श्री अभयदेव सूरि ने कहा है- सुष्ठ-आ मर्यादया अधीयते इतिस्वाध्यायः”। स्थानांग टीका ५/३ (३०) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत् शास्त्र को मर्यादा के साथ पढ़ना स्वाध्याय है। स्वाध्याय की दूसरी परिभाषा है -“स्वेन स्वस्य अध्ययनम् स्वाध्यायः” अपने द्वारा अपना अध्ययन स्वाध्याय है। . इनमें प्रथम परिभाषा आगम ग्रन्थों के अध्ययन से सम्बन्धित है और दूसरी साधकों को अन्तर्मुखी बनाती है। इसमें साधक ग्रन्थ पठन रूप स्वाध्याय के द्वारा आत्मध्यान में प्रविष्ट होता है। इससे स्पष्ट है कि स्वाध्याय ध्यान का प्रवेश द्वार है। दशवैकालिक सूत्र के अनुसार -विसुज्झइजंसि मलं पुरेकडं समीरियं रूप्पमलं व जोइणो॥ दशवै. ८/६३ जैसे अग्नि द्वारा तपाये जाने पर सोने चांदी का मैल दूर होता है। वैसे ही स्वाध्याय करने से पूर्व भवों के संचित कर्म मैल दूर होकर आत्मा उज्ज्वल हो जाता है। इसीलिए उत्तराध्ययन सूत्र में बताया है -“सञ्झायं तओ कुज्जो सव्वभाव विभावणं” उत्तरा. ८/६३ सर्व भावों को प्रकाशित करने के लिए स्वाध्याय करना चाहिए। इस सूत्र में स्वाध्याय के फल की जिज्ञासा का समाधान किया गया है। स्वाध्याय एक उद्यम है, उपक्रम है तो ज्ञान का अनन्त प्रकाश उसका फल है। स्वाध्याय का सीधा प्रभाव ज्ञानावरणीय कर्म पर पड़ता है, स्वाध्याय की चोट में ज्ञानावरण की परतें टूटती है। ज्ञान का आलोक जगमगाने लगता है। यही प्रस्तुत प्रश्न का समाधान है। स्वाध्याय की विधि - स्वाध्याय के हेतु भगवान कहते हैं कि गुरु की सेवा करनी चाहिए. और अज्ञानी प्रमादी लोगों की संगति से दूर रहना चाहिए। एकान्त स्थान में जहाँ लोगों का अत्यधिक आवागमन न तथा शोरगुल का अभाव हो, वहाँ स्थिर आसन पर बैठ कर, मन को एकाग्र करके स्वाध्याय करना चाहिए। स्वाध्याय के लिए उत्तम ग्रंथ हो तथा उद्देश्य पवित्र होना चाहिए। सूत्र और अर्थ दोनों का धैर्य के साथ चिन्तन-मनन का करना चाहिए। १ स्वाध्याय नियमित होना चाहिए। इसके अतिरिक्त स्वाध्याय सूर्य के प्रकाश में हो तो अत्युत्तम है। वैसे आगमों का स्वाध्याय करने हेतु भगवान ने संयम निश्चित किया है। भगवान महावीर कहते हैं कि साधक को दिन के चार भाग करके, प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करें, दूसरे में ध्यान में लीन हो जावे तथा तीसरे पहर में भिक्षा आदि कार्यों से निवृत्त हो तथा चतुर्थ प्रहर में पुनः स्वाध्याय कना चाहिए। २ इसी प्रकार रात्रि के भी चार भाग करना चाहिए। अन्तर केवल इतना है कि रात्रि के तृतीय प्रहर में निद्रा से मुक्त हो अर्थात विश्राम करना चाहिए। २ स्थानांग सूत्र में इसे ही “चतुष्काल स्वाध्याय" कहा है। तस्सेस मग्गो गरुविद्ध सेवा, विवज्जणा बालजणस्स दूरा। सज्झाय एगन्त निसेवणा य, सुत्तत्थ संचिन्तणया धिई च। उत्तरा. ३२/३ २-३ दिवसस्स चतुरो भागे, भिक्खू कुज्जा वियक्खणे। वही, २६/११ पढमं पोरिसि सज्झायं, बितियं झाणं झियायई। तइयाए भिक्खायरियं, पुणोचउत्थीइसज्झाय। वही, २६/१२ तथा १८ स्थानांग सूत्र-चतुर्थ स्थान (३१) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कप्पइ निग्गंथाणं निग्गंथीणं वा चाउक्कालं सज्झायं करेत्तए, तंजहा - १ - पुत्वण्हे - दिन के प्रथम प्रहर में। २. अवरण्हे - दिन के अन्तिम (चतर्थ) पहर में। ३ - पओसे -रात्रि के प्रथम प्रहर (प्रदोष काल) में। ४ - पच्चू से रात्रि के अन्तिम (चतुर्थ) प्रहर में। उपर्युक्त देशना से स्पष्ट है कि साधक अहोरात्रि अर्थात् आठ प्रहर में से चार प्रहर स्वाध्याय में लगा वे तथा शेष चार प्रहर में शेष ध्याय, सेवा और भिक्षा आदि अन्य क्रियाएं पूर्ण करें। इससे स्वाध्याय का महत्व स्वतः सिद्ध हो जाता है। आगम स्वाध्याय के लिए काल मर्यादा का अवश्य ध्यान रखना चाहिए अन्यथा लाभ के स्थान पर हानि भी हो सकती है। . .. प्राचीन आचार्यों ने “द्वादशांगी रूप” श्रुत साहित्य को ही स्वाध्याय कहा है - बाइसंगो जिणकवाओ, सज्झाओकहिओ वुहे। तं उवईसंति जम्हा, उवज्झायातेण वुच्चति॥ ५ अर्थात् जिन भाषित द्वादशांग सज्झाय है। उस सज्झाय का उपदेश करने वाले उपाध्याय कहे जाते हैं। द्वादशांग रूप साहित्य स्वाध्याय कहलाता है। स्वाध्याय का उद्देश्य - स्वाध्याय का मुख्य उद्देश्य बताते हुए भगवान कहते हैं कि ज्ञान के सम्पूर्ण प्रकाश के तथा अज्ञान और मोह को नष्ट करने के लिए और राग द्वेष का क्षय एवं मोक्ष रूप एकान्त सुख की प्राप्ति हेतु स्वाध्याय करना चाहिए। ५ दशवैकालिक सूत्र में दूसरे ढंग से स्वाध्याय का उद्देश्य प्रतिपादित किया है। वह चार प्रकार की समाधि बताई है। १- विनय समाधि, २- श्रुत समाधि, ३ माधि, ४ -आचार समाधि। विनम्रता से ज्ञान प्राप्त होता है और ज्ञान से तप में प्रवृत्ति होती है। तप से आचार शुद्धि होती है। शिष्य पूछता है -श्रुत समाधि कैसे प्राप्त होती है? आचार्य बताते हैं स्वाध्याय से श्रुत समाधि अधिगत होती है। स्वाध्याय करने के चार लाभ-उद्देश्य होते हैं। १. सुयं में भविस्सइत्ति अल्झाइयव्वं भवई। मुझे जान प्राप्त होगा, इसलिये स्वाध्याय करना चाहिए। २. एगग्गचित्ते भविस्सामित्ति, अज्झाइयत्वं भवई। मैं एकाग्रिचित होऊंगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए। विशेषावश्यक भाष्य गाथा- ३१९७ नाणस्स सव्वस्स पगासणाए, अत्राणमोहस्स विवज्जणाए। रागस्स दोसस्स य संखएणं, एगन्त सोक्खं समुवेइ मोक्खं॥ उत्तरा. ३२/२ दश वैचालिक सूत्र अ. ९ उद्देश्य ४ (३२) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. अप्पाणं ठावइस्सामित्ति, अच्झाइयत्वं भवई। मैं आत्मा को धर्म में स्थिर कर लूंगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए। 4. ठिओ परं ठावइस्सामित्ति, अच्झाइयव्वं भवई। मैं स्वयं धर्म में स्थिर होकर दूसरों को भी धर्म में स्थिर कर सकूँगा इसलिए अध्ययन करना चाहिए। स्वाध्याय के यह चार उद्देश्य है। आचार्य अकलंक ने स्वाध्याय के सात लाभ बताए हैं। 8 1. स्वाध्याय से बुद्धि निर्मल होती है। 2. विचारों की शुद्धि होती है। 3. शासन की रक्षा होती है। 4. संशय की निवृत्ति होती है। 5. परपक्ष की शंकाओं का निरस्त होता है। 6. तप, त्याग, वैराग्य की वृद्धि होती है। 7. अतिचारों की शुद्धि होती है। स्वाध्याय के पांच भेद बताए गए हैं / 1. वाचना, 2. पृच्छना 3. परिवर्तना, 4. अनुप्रेक्षा, 5. धर्मकथा। आगमों का पढ़ना वाचना है। पढ़े हुए में शंकाओं को समाधित करना पृच्छना है। पढ़े हुए को पुनःपुनः स्मरण करना परिवर्तना है। उस पर चिनान-मनन करना अनुप्रेक्षा है और आगमिक आधार पर धर्मोपदेश करना धर्म कथा है। * * * * * 300035528000 03683830842200-80038888888888888888888888888888 जन्म मरण का यह क्रम अनादि काल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा। न यह भंग होता है और न उसमें परिवर्तन ही होता है। संसार में अनेक महापुरुष हुए अनन्त चक्रवर्ती और अनन्त तीर्थंकर भी हो चुके है। किन्तु इस नियम को कोई भी भंग नहीं कर सका। पृथ्वी को कंपा देने वाले महाशक्ति राजा, महाराजा भी इस पृथ्वी पर आ पर कोई भी अपने शरीर को टिका नहीं सके। अभिमानी और महा बलवान रावण का भी अंत एक कीड़े की तरह ही हुआ। * युवाचार्य श्री मधुकर मुनि 88285608900-004 8 . तत्त्वार्थ राजवार्तिक स्थानांग सूत्र 5 वा स्थान / (33)