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________________ सत् शास्त्र को मर्यादा के साथ पढ़ना स्वाध्याय है। स्वाध्याय की दूसरी परिभाषा है -“स्वेन स्वस्य अध्ययनम् स्वाध्यायः” अपने द्वारा अपना अध्ययन स्वाध्याय है। . इनमें प्रथम परिभाषा आगम ग्रन्थों के अध्ययन से सम्बन्धित है और दूसरी साधकों को अन्तर्मुखी बनाती है। इसमें साधक ग्रन्थ पठन रूप स्वाध्याय के द्वारा आत्मध्यान में प्रविष्ट होता है। इससे स्पष्ट है कि स्वाध्याय ध्यान का प्रवेश द्वार है। दशवैकालिक सूत्र के अनुसार -विसुज्झइजंसि मलं पुरेकडं समीरियं रूप्पमलं व जोइणो॥ दशवै. ८/६३ जैसे अग्नि द्वारा तपाये जाने पर सोने चांदी का मैल दूर होता है। वैसे ही स्वाध्याय करने से पूर्व भवों के संचित कर्म मैल दूर होकर आत्मा उज्ज्वल हो जाता है। इसीलिए उत्तराध्ययन सूत्र में बताया है -“सञ्झायं तओ कुज्जो सव्वभाव विभावणं” उत्तरा. ८/६३ सर्व भावों को प्रकाशित करने के लिए स्वाध्याय करना चाहिए। इस सूत्र में स्वाध्याय के फल की जिज्ञासा का समाधान किया गया है। स्वाध्याय एक उद्यम है, उपक्रम है तो ज्ञान का अनन्त प्रकाश उसका फल है। स्वाध्याय का सीधा प्रभाव ज्ञानावरणीय कर्म पर पड़ता है, स्वाध्याय की चोट में ज्ञानावरण की परतें टूटती है। ज्ञान का आलोक जगमगाने लगता है। यही प्रस्तुत प्रश्न का समाधान है। स्वाध्याय की विधि - स्वाध्याय के हेतु भगवान कहते हैं कि गुरु की सेवा करनी चाहिए. और अज्ञानी प्रमादी लोगों की संगति से दूर रहना चाहिए। एकान्त स्थान में जहाँ लोगों का अत्यधिक आवागमन न तथा शोरगुल का अभाव हो, वहाँ स्थिर आसन पर बैठ कर, मन को एकाग्र करके स्वाध्याय करना चाहिए। स्वाध्याय के लिए उत्तम ग्रंथ हो तथा उद्देश्य पवित्र होना चाहिए। सूत्र और अर्थ दोनों का धैर्य के साथ चिन्तन-मनन का करना चाहिए। १ स्वाध्याय नियमित होना चाहिए। इसके अतिरिक्त स्वाध्याय सूर्य के प्रकाश में हो तो अत्युत्तम है। वैसे आगमों का स्वाध्याय करने हेतु भगवान ने संयम निश्चित किया है। भगवान महावीर कहते हैं कि साधक को दिन के चार भाग करके, प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करें, दूसरे में ध्यान में लीन हो जावे तथा तीसरे पहर में भिक्षा आदि कार्यों से निवृत्त हो तथा चतुर्थ प्रहर में पुनः स्वाध्याय कना चाहिए। २ इसी प्रकार रात्रि के भी चार भाग करना चाहिए। अन्तर केवल इतना है कि रात्रि के तृतीय प्रहर में निद्रा से मुक्त हो अर्थात विश्राम करना चाहिए। २ स्थानांग सूत्र में इसे ही “चतुष्काल स्वाध्याय" कहा है। तस्सेस मग्गो गरुविद्ध सेवा, विवज्जणा बालजणस्स दूरा। सज्झाय एगन्त निसेवणा य, सुत्तत्थ संचिन्तणया धिई च। उत्तरा. ३२/३ २-३ दिवसस्स चतुरो भागे, भिक्खू कुज्जा वियक्खणे। वही, २६/११ पढमं पोरिसि सज्झायं, बितियं झाणं झियायई। तइयाए भिक्खायरियं, पुणोचउत्थीइसज्झाय। वही, २६/१२ तथा १८ स्थानांग सूत्र-चतुर्थ स्थान (३१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210524
Book TitleJina aur Jinashasan Mahatmya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherZ_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf
Publication Year1992
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Religion
File Size421 KB
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