Book Title: Jignasaye aur Samadhan
Author(s): 
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 5
________________ - - | जिनवाणी ||15,17 नवम्बर 2006 को छोड़, काया के व्यापार को, चेष्टा को रोक, काया से ऊपर उठना कायोत्सर्ग है। सो पुण काउरसगो दव्वतो भावतो य भवति । दव्यतो कायचेट्ठानिरोहो, भावतो काउरसग्गो झार्ण ।। - -आवश्यक चूर्णि, आचार्य जिनदासगणि प्रायः कायोत्सर्ग में २ ही प्रकार के कार्य का विधान है१. निज स्खलना दर्शन/चिन्तन इच्छाकारेणं का कायोत्सर्ग एवं प्रतिक्रमण के पहले सामायिक आवश्यक में कायोत्सर्ग। २. गुणियों के गुणदर्शन/कीर्तन लोगस्स का कायोत्सर्ग (सामायिक पालते व प्रतिक्रमण का पाँचवां आवश्यक) दशवैकालिक की द्वितीय चूलिका तो साधक को 'अभिक्खणं काउस्सग्गकारी' से कदम-कदम पर कायोत्सर्ग अर्थात् काया की ममता को छोड़ने की प्रेरणा कर रही है। संक्षेप में समाधान का प्रयास है, विस्तृत विवेचना व्याख्या सहित ग्रन्थों में उपलब्ध है। जिज्ञासा- वर्तमान में प्रत्याख्यान आवश्यक के अंतर्गत मात्र आहारादि का प्रत्याख्यान किया जाता है। दसों प्रत्याख्यान आहारादि के त्याग से ही संबंधित है । मिथ्यात्व, प्रमाद, कषायादि के त्याग का प्रयोजन इस आवश्यक से कैसे हल हो सकता है? समाधान- जिज्ञासा में सबसे पहला शब्द है- 'वर्तमान'। यह केवल वर्तमान में ही नहीं, पूर्व से प्रचलित है। उत्तराध्ययन के २६वें अध्याय की गाथा ५१, ५२ में देखिए किं तवं पडिवज्जामि एवं तत्थ विचिंता। काउस्सग्गं तु पारित्ता वंदिऊण तओ गुरुं ।१५१ ।। पारिय काउस्सगो, दित्ताण तओ गुरुं । तयं सेपडिवज्जेत्ता करिज्जा सिद्धाण संथवं ।।५२ ।। स्पष्ट है पाँचवें आवश्यक में चिन्तन करके छठे आवश्यक में तप स्वीकार करें। रात्रिकालीन प्रतिक्रमण के पाँचवें आवश्यक में अपना सामर्थ्य तोले- क्या मैं ६ मास तप अंगीकार कर सकता हूँ? यदि नहीं, तो क्या ५ मास...? यावत् उपास, आयंबिल....नहीं तो कम से कम नवकारसी उपरांत तो स्वीकार करूं। देवसिक में चिन्तन बिना, छठे आवश्यक में गुणधारण किया जाता है। यह भगवती सूत्र शतक ७ उद्देशक २ में वर्णित सर्वउत्तर गुण प्रत्याख्यान रूप होता है। सर्व मूलगुण (५ महाव्रत), देश मूलगुण(५ अणुव्रत) व देश उत्तर गुण (३ गुणव्रत, ४ शिक्षाव्रत) चारित्र अथवा चारित्राचारित्र में आते हैं, जबकि देश मूल गुण तप में। उत्तराध्ययन की गाथा 'तप' का ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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