Book Title: Jignasaye aur Samadhan
Author(s): 
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 8
________________ 15, 17 नवम्बर 2006 जिनवाणी 371 केवल स्वाध्याय के लिए पर्युषण में आने वाले नवीन बंधुओं में धर्मरुचि जागृत करने, व्रत ग्रहण की भावना बढ़ाने के लिए जानकार भाई सामूहिक करा दें, विशेष जानकार अपना अलग प्रतिक्रमण करें, यह उचित है। स्थान की समस्या होने पर सामूहिक करते हुए भी अपने-अपने अतिचारों के चिन्तन रूप प्रथम आवश्यक में मौन - ध्यान के साथ एकान्त हो ही जाता है। प्रथम आवश्यक में अपने-अपने ध्यान लिये हुए दोषों को चतुर्थ आवश्यक में सामूहिक उच्चारण में साधक अपनी जागृति के साथ तद्-तद् अतिचारों का अन्तर से मिथ्या दुष्कृत करता है और विस्मृत हो जाने से ध्यान नहीं रहे हुए शेष अतिचारों का भी मिच्छामि दुक्कडं करते शुद्धि करता है। स्तुति वंदना आदि में सामूहिक उच्चारण से वातावरण की पवित्रता के साथ भावों में भी उत्कृष्टता आती है, प्रेरणा भी जगती है अतः आत्म-साधना की इस प्रणाली को भी अनुपादेय कहना उचित नहीं । हाँ, पर सामूहिक पर ही एकान्त जोर दे, वैयक्तिक करने से रोकना युक्तिसंगत नहीं। संघ की शोभा - गौरव के लिए एक सामूहिक प्रतिक्रमण हो व वैयक्तिक करने वालों को अपनी साधना करने की स्वतंत्रता हो। अलग-अलग समूह में सामूहिक अधिक होने पर विडम्बना खड़ी हो सकती है। जिज्ञासा - प्रतिक्रमण में कुछ अणुव्रतों के अतिचार की भाषा में ऐसे शब्दों का प्रयोग जो अनाचार व्यक्त करते हैं, क्यों हुआ है? जैसे चौथे व्रत में 'इत्तरिय गमणे' 'अपरिग्गहिय गमणे' इत्यादि । इन शब्दों से भ्रान्ति न हो, इस हेतु इन शब्दों की जगह यह प्रयोग क्यों न किया जाय कि 'इत्तरिय गमणे' हेतु 'आलापसंलाप किया हो' 'अपरिग्गहिय गमणे' हेतु 'आलाप-संलाप किया हो।' इसी तरह अन्य पाठों में भी अनाचार द्योतक शब्दों में सुधार / संशोधन क्यों न किया जाय ? समाधान- व्रत भंग की ४ अवस्थाएँ बताई जाती हैं अतिक्रम इच्छा जानिये, व्यतिक्रम साधन संग अतिचार देश भंग है, अनाचार सर्व भंग ॥ अर्थात् एक ही कार्य / इरादा / प्रवृत्ति किस अभिप्राय से किस स्तर की है इससे व्रत भंग की अवस्था का निर्णय होता है । महाबली जी (मल्ली भगवती का पूर्वभव) और शंखजी की क्रिया समान थी, पर परिणाम बिल्कुल भिन्न । महाबली जी माया के कारण संयम से गिरकर पहले गुणस्थान में चले गए और शंखजी सरलता के कारण भगवद् मुखारविन्द से प्रशंसित हुए । प्रायः सभी व्रतों के अतिचार अभिप्राय पर निर्भर करते हैं । अन्यथा वे अनाचार भी बन सकते हैंभूलचूक से सामायिक जल्दी पारना तो अनाचार ही है। अतिचार से भी बचने के लिये प्रेरणा देते हुए, जाणियव्वा न समायरयव्वा कहा जाता है। यदि मारने की भावना से बंधन या वध किया गया और वह जीव बच भी गया तो अनाचार ही होगा- अतः अतिचार और अनाचार में शब्द की अपेक्षा नहीं भाव की अपेक्षा भेद रहता है। बार-बार अतिचार का सेवन स्वयं ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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