Book Title: Jaypuri Kalam ka Ek Sachitra Lekh
Author(s): Bhanvarlal Nahta
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 3
________________ जीवानांच विधायकाः निखिल सार्वज्ञागमाझ्यासिनी, व्याख्यानामत वर्षणेन नितरां धर्मान्कुरोत्पादकाः ॥१२॥ सत्सिद्धान्त विचार-दक्ष-मतयो दीनोदिघीर्षा युताः पाखण्ड-दभ दाहने अग्नि-सदृशा श्री-संघ-संपूजिताः ।। उपयुक्त लेख में यह विक्षप्ति, किस संवत मिती में, कहां से भेजा गया, निर्देश नहीं है पर श्रावकों की हस्ताक्षर नामावली से इसे अजीमगंज से भेजा गया निश्चित होता है। जिन प्रधान-श्रावकों के नाम इसमें हैं, उनके वंशज आज भी विद्यमान हैं। श्री सुरपत सिंह जी दूगड जिनके संग्रह में यह विज्ञप्ति लेख है, सर्व प्रथम सही करने वाले सुप्रसिद्ध लक्ष्मीपत सिंह धनपति सिंह आदि के वंशज हैं उनसे पूछने पर इस लेख का समय सं० १४३० के लगभग का विदित हुआ । लेख जिन्हें भेजा गया वे पन विजय जी अपने समय के क्रिया पात्र व प्रभावशाली जैन मुनि थे । हमारे संग्रह में उनके कतिपय पत्र विद्यमान हैं ।। यह सचित्र विज्ञप्ति पत्र ऐसे विज्ञप्ति पत्रों का एक अन्तिम नमूना है। इसके बाद का कोई सचित्र-विज्ञप्ति-लेख हमारे अवलोकन में नहीं आया । लेख अधिक बड़ा न होने पर भी चित्रकला की दृष्टि से भी बड़ा ही मूल्यवान है । लेख से उस समय की भक्ति-भावना का चित्र-सा उपस्थित हो जाता है। जयपुर के दाधीच नानूलाल ने इस लेख का निर्माण किया। चित्रकार का नाम नहीं पाया जाता, पर यह किसी कुशल कलाकार की कृति है । जयपुर के कुशल चित्रकार गणेश मुसव्वर के बनाये हुए सुन्दर चित्र कलकते के जैन श्वेताम्बर पंचायती मंदिर में लगे हुए है, जो कि संवत् १९-२५ से १६-३५ के मध्य बने हए हैं। इन चित्रों व सुप्रसिद्ध राय बद्रीदास जी के मंदिर के विशाल चित्रों का परिचय फिर कभी कराया जाएगा। जयपर की चित्रकला का दूर-दूर तक कितना आदर था, यह कलकते के इन चित्रो से सुस्पष्ट है। जैन मंदिरों में चित्र करने के लिए जयपुर के चित्रकारों को कलकते तक में बुलाया जाता था । श्रमण धर्म ज्ञातृपुत्र महावीर को श्रमणधर्मा कहा गया है। प्राचीन भारतीय श्रमण धर्म की वास्तविक परम्परा जैसी महावीर के साधना-प्रधान धर्म में सुरक्षित पाई जाती है वैसी अन्यत्र नहीं। किन्तु इस श्रम का व्यापक अर्थ था। शरीर का श्रम श्रम है। बुद्धि का श्रम परिश्रम है । आत्मा का श्रम आश्रम है। एकतः श्रमः श्रमः । परितः श्रम. परिश्रमः । आ समन्तात् श्रमः आश्रमः । एक में जो शरीर मात्र से अधूरा या अवयव श्रम किया जाता है वह श्रम है। एक में जो कन और शरीर की सहयुक्त जक्ति से पूरा धर्म किया जाता है, वह परिश्रम है। और सबके प्रति चारों ओर प्रसृत होनेवाला जो श्रम भाव है वह आश्रम कहलाता है । ये तीन प्रकार के मानव होते हैं । केवल जो श्रमिक हैं, वे सीमित, जड़-भावापन्न, दुःखी और क्लान्त रहते हैं। जो अपने केन्द्र में जागरूक शरीर और प्रज्ञा से सतत प्रयत्नशील रहते हैं वे दूसरी उच्चतर कोटि के प्राणी हैं । वे सुखी होते हुए भी स्वार्थनिरत होते हैं। किन्तु तीसरी कोटि के उच्चतम प्राणी वे हैं जिनके मानस केन्द्र की रश्मियों का वितान समस्त विश्व में फैलता है और जिनका आत्मभाव सबके दुःख-सुख को अपना बना लेता है। ऐसे महानुभाव व्यक्ति ही सच्चे मानव हैं। वे ही विश्वमानव, महामानव या श्रेष्ठ मानव होते हैं । ऐसे ही उदार मानव सच्ची श्रमण-परम्परा के प्रतिनिधि और प्रवर्तक थे। वे किसी निजी स्वार्थ या सीमित स्वार्थ की प्राप्ति या भोगलिप्सा के लिये अरण्यवास नहीं करते थे, वह सुख स्वार्थ तो उन्हें गृहस्थ जीवन में भी प्राप्त हो सकता था । अनन्त सुख की संयम द्वारा उपलब्धि ही श्रमण जीवन का उद्देश्य था जिसमें समस्त सीमा-भाव विगलित हो जाते हैं। काश्यप महावीर द्वारा प्रवेदित धर्म एवं शाक्य-श्रमण गौतम द्वारा प्रवेदित धर्म दोनों इस लक्ष्य में एक सदृश हैं। दार्शनिक जटिलताओं को परे रखकर मानवता की कसौटी पर दोनों पूरे उतरते हैं । 0 डॉ० वासुदेव शरण अग्रवाल वैशाली-अभिनन्दन-ग्रन्थ से साभार १७६ आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनयम प्रस्थ www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International

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