Book Title: Jaypuri Kalam ka Ek Sachitra Lekh Author(s): Bhanvarlal Nahta Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 1
________________ जयपुरी-कलम का एक सचित्र विज्ञप्ति लेख -श्री भंवरलाल नाहटा __ जैन धर्म में गुरुओं को अपने नगर में चातुर्मास के हेतु आमन्त्रित करने में विज्ञप्ति-पत्र प्रेषण की प्रथा बड़ी ही महत्त्वपूर्ण रही है। इसी प्रसंग से काव्य-कला व चित्र-कला को भी खूब प्रोत्साहन मिला । फलतः परिवर्तनशील जगत् के तत्कालीन नगरों, इमारतों, देवालयों, बगीचों तथा विशिष्ट व्यक्तियों के सुन्दर चित्र भी सुरक्षित रह गये। इनके माध्यम से हम अतीत के रीति-रिवाज, संस्कृति और रहन-सहन आदि सभी बातों का ज्ञान फिल्म की तरह चक्षुगोचर कर सकते हैं। इस प्रकार के विज्ञप्ति-पत्रों को चित्रित करने में चित्रकारों को महीनों का समय लगता था, तब जाकर सौ-सौ फीट लम्बे टिप्पणक विज्ञप्ति-पत्र बनते। तत्पश्चात् विद्वान् लोग अपनी काव्य-प्रतिभा की चमत्कार-पूर्ण अभिव्यक्ति किया करते, विज्ञप्ति-लेख लिख कर। ये विज्ञप्ति-लेख दो प्रकार के हुआ करते, एक तो मुनिराजों के क्षामणा पत्र, जिनमें चातुर्मास के समय धर्म-ध्यान की विविध प्रवृत्तियों व तीर्थयात्रा आदि का विशद वर्णन होता। दूसरे प्रकार के गुरुगुण-वर्णात्मक लेख रहता और श्रावक-संघ के द्वारा अपने नगर में पधारने का आ न्त्रण लिखा हुआ रहता, जिसमें प्रधान श्रावकों के हस्ताक्षर भी अवश्य रहते। सचित्र-विज्ञप्ति-पत्रों में दूसरे प्रकार के विविध चित्रमय ही अधिक मिलते हैं। ऐसे विज्ञप्ति-पत्रों का परिचय प्रकाशित करने से इतिहास के रिक्त पृष्ठों पर स्वर्ण-लेख आलोकित हो जाएगा। अतः यह चित्र-समृद्धि वाले पत्र जिनके भी पास या जानकारी में हो, उनका परिचय प्रकाशित करने का अनुरोध किया जाता है । उपलब्ध सचित्र-विज्ञप्ति-पत्रों में सबसे पहला पत्र जहांगीर कालीन विजयसेन सूरि का है। जैन सचित्र-विज्ञप्ति पत्रों के सम्बन्ध में बड़ोदा से प्राचीन विज्ञप्ति पत्र नामक सचित्र ग्रंथं भी प्रकाशित हो चुका है । - कलकता जैन समाज के अग्रगण्य धर्मिष्ठ श्रीयुत् स्व० सुरपतसिंह जी साहब दूगड के संग्रह में अजीमगंज से प्रेषित २०वीं शताब्दी का एक सचित्र-विज्ञप्ति-पत्र है जो मुनिराज श्री रत्नविजय जी की सेवा में ग्वालियर भेजा गया था। चित्रकला की दृष्टि से यह विज्ञप्ति-पत्र दड़ा सुन्दर और कला-पूर्ण है । इसमें एक विचित्रता तो यह है कि अजीमगंज से भेजा हुआ विज्ञप्ति-पत्र होते हुए भी उसमें इस स्थान का कोई नाम तक नहीं है। केवल सही करने वाले श्रावकों के नाम ही, इस स्थान का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं कि यह विज्ञप्ति पत्र बंगाल से मध्य प्रदेश-ग्वालियर-को भेजा गया था। इस विचित्रता का कारण यही मालूम देता है कि यह चित्रमय विज्ञप्ति-पत्र राजस्थान के कला-प्रधान सुरम्य नगर जयपुर से चित्रित करवाकर व लिखवाकर मंगवाया गया था, जिसे बिना किसी परिवर्तन व सम्बत् मिति लिखे, केवल श्रावकों की सहियां करके मुनिश्री को भेज दिया गया था। वह विज्ञप्ति-पत्र १६ फुट लम्बा व ११ इंच चौड़ा है। इसका यहां संक्षिप्त परिचय कराया जाता है। इस विज्ञप्ति-पत्र में सर्वप्रथम मंगलमय पूर्ण कलश का चित्र अंकित है जिसको पुष्पहार पहनाया हुआ है एवं ऊपर फूलों की टहनी लगी हुई है । दूसरा चित्र छत्र का है, जिसकी छाया में दो चामरधारी पुरुष व दो स्त्रियाँ हैं, जिनके हाथ में मयूर-पिच्छिकाएं हैं। तत्पश्चात् अष्ट मांगलिक के चित्र बने हुए हैं। फिर चतुर्दश-महास्वप्नों के नयनाभिराम चित्र हैं । सूर्य के चित्र में न मालूम किसके लिये व्याघ्र चित्रित किया गया है। इन महा स्वप्नों की दशिका श्री त्रिशला माता लेटी हुई दिखलाई है। जिन माता के पलंग के निकट चार परिचारिकाएं खड़ी हुई हैं तथा एक सिरहाने की ओर बैठी हुई है। चित्रकार ने उद्यान के मध्य में सिद्धार्थ राजा का महल बनाया है। जयपुर के किसी सुन्दर महल से इसकी समता की जा सकती है । तन्दुपरान्त एक जिनालय का चित्र है, जिसमें मूलनायक श्री पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा विराजमान है, सभामंडप में सात श्रावक खड़े-खड़े प्रभु-दर्शन कर रहे हैं, तीन श्रावक पंचांग-नमस्कार द्वारा चैत्यवन्दना करते हुये दृष्टिगोचर होते हैं। एक श्रावक मंदिर जी की सीढ़ियों पर चढ़ता हुआ एवं दो व्यक्ति बाहर निकलते हुए १. श्वेताम्बर जैन समाज में सांवत्सरिक पर्व के अवसर पर दूरवर्ती गुरुजनों को क्षमापत्र (खमापणा) भेजने की परिपाटी रही है । कालान्तर में किसी मुनि या आचार्य को चातुर्मास के लिए आमन्त्रित करने के लिए विज्ञप्ति-पत्र का उपयोग होने लगा। दिगम्बर जैन समाज में विज्ञप्ति पत्रों का प्रचलन नहीं है तथा मुनि एवं आचार्य को निमन्त्रित करने के लिए श्रावकगण श्रीफल भेंट करते हैं। सम्पादक १७४ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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