Book Title: Jay Vardhaman
Author(s): Ramkumar Varma
Publisher: Bharatiya Sahitya Prakashan

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Page 111
________________ पांचवां अंक वर्धमान : साधक ! न तुम अपनी प्रशंसा करो, न दुसरों की निन्दा । जो कुछ कहो, उस पर आचरण करो। पूर्वजों के जीवन पर किसी प्रकार का आक्षेप न हो। बाहरी दिखावे मे कोई श्रेष्ठ नहीं होता. भीतर की शुद्धि से ही श्रेष्ठता प्राप्त होती है। छोटे मन से महान कार्य नहीं होते, जिम तरह छोटे द्वार मे हाथी नहीं निकल सकता। सुबती बनो. निर्गंध पुष्प की भाँति लता का बोझ मत बनो ! चल्लक : मुनिगज ! आपके उपदेश मुनकर मेरे मन में वैमी ही शान्ति हो गई जैसे स्त्री के प्रमन्न होने पर घर में शान्ति हो जाती है । इन्द्रगोप : (चुल्लक से) तुम हर बात में अपनी स्त्री क्यों ले आने हो ? चल्लक : क्योंकि वह कहती है कि मेरे बिना तुम अधूरे हो। वर्धमान : प्रकृति ने प्रत्येक वस्तु पूर्ण बनायी है। मूर्य, चन्द्र, भूमि, मरिता, पर्वत, अग्नि, आकाश-इनमें कौन अपूर्ण है ? तुम भी अपूर्ण नहीं हो, माधक ! विकारों में मन भ्रमित होता है. जिसमे अपर्णता का आभाम होता है। जिम प्रकार वाय मे उठी धुल मंघ मे पध्वी पर लौट आती है, उमी प्रकार विवेक में भ्रमित मन शान्त हो जाता है । चुल्लक : अब मंग मन पूर्ण शान हो गया. मुनिगज ! इ-दगोप : मेरी माधना का क्या रूप होना चाहिए, मुनिगज ! वर्धमान : तुम श्रावक बनो, माधक ! ममम्न मंस्कारों में मक्त हो जाओ। किमी मे किमी प्रकार की अपेक्षा न हो, इसलिए किमी मे किमी प्रकार का भय न हो । मंमार को यथार्थ रूप में देखने पर किसी प्रकार की तृष्णा न हो। आयु के समाप्त होने पर उसी प्रकार मन्तुष्ट रहा जिस प्रकार गंग के अन्न होने पर मुख और शान्ति का अनुभव होता है । धर्म रूपी दर्पण में अपना मन देखो । इमम मन रज-रहित हो जायगा, दुःख का निगंध होगा और मन शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की भाँति विकमित होगा। १०७

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