Book Title: Japayoga ki Vilakshan Shakti
Author(s): Pushkar Muni
Publisher: Z_Ashtdashi_012049.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 5
________________ होती है, जो जपकर्ता के सूक्ष्म (तैजस्) शरीर को तेजस्वी, अब प्रश्न होता हे कि जपयोग का साधक जप किसका वर्चस्वी एवं ओजस्वी तथा आध्यात्मिक साधना के लिए करें? वैसे तो जप करने के लिए कई श्रेष्ठ मंत्र है, कई पद हैं, कार्यक्षम बनाती है। साधक के जीवन की त्रियोग-प्रवृत्तियाँ उसी कई श्लोक और गाथाएं हैं। जैन धर्म में सर्वश्रेष्ठ महामंत्र ऊर्जा (तैजस्) शक्ति के सहारे चलती है। पंचपरमेष्ठी नमस्कार मंत्र है। वैदिक धर्म में गायत्री मंत्र को जपनीय शब्दों की पुनरावृत्ति के अभ्यास का चमत्कार सर्वश्रेष्ठ समझा जाता है। यह बात मंत्र का चयन करते समय मनुष्य की मानसिक संरचना ऐसी है, जिसमे कोई भी बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिये। गहराई तक जमाने के लिए उसकी लगातार पुनरावृत्ति का मंत्रों में अर्थ का नहीं, ध्वनि विज्ञान का महत्व है। अभ्यास करना होता है। पुनरावृत्ति से मष्तिष्क एक विशेष ढाँचे मंत्रों में उनके अर्थ का उतना महत्व नहीं होता, जितना कि में ढलता जाता है। जिस क्रिया को बार-बार किया जाता है, वह ध्वनिविज्ञान का। अर्थ की दृष्टि से नवकार महामंत्र या गायत्री मंत्र आदत में शुमार हो जाती है। जो विषय बार-बार पढ़ा, सुना, सामान्य लगेगा, परन्तु सामर्थ्य की दृष्टि से अद्भुत और सर्वोपरि बोला, लिखा या समझा जाता है, वह मस्तिष्क में अपना एक हैं ये, इसका कारण यह है कि मंत्र स्रष्टा वीतराग की दृष्टि में विशिष्ट स्थान जमा लेता है। किसी भी बात को गहराई से जमाने अर्थ का इतना महत्व नहीं रहा, जितना शब्दों का गुंथन महत्वपूर्ण के लिए उसकी पुनरावृत्ति करना आवश्यक होता है। रहा है। कितने ही बीजमंत्र ऐसे हैं, जिनका कोई विशिष्ट अर्थ नहीं एक ही रास्ते पर बार-बार पशुओं व मनुष्यों के चलने से निकलता, परन्तु वे सामर्थ्य की दृष्टि से विलक्षण है। "ही" पगडंडियां बनती हैं। इसी प्रकार मंत्र जप के द्वारा नियमित रूप "श्री" "क्ली' ब्लूँ,ऐं, हूं यं, फट् इत्यादि बीज मंत्रों का अर्थ से अनवरत मंत्रगत शब्दों की आवृत्ति करने से जपकर्ता के समझने की माथापच्ची करने पर भी सफलता नहीं मिलती, अन्तरंग में वह स्थान जमा लेता है। उस लगातार जप का ऐसा क्योंकि उनका मंत्र के साथ सृजन यह बात ध्यान में रखकर किया गहरा प्रभाव व्यक्ति के अन्तर पर पड़ जाता है कि उसकी स्मृति गया है कि उनका उच्चारण किस स्तर का तथा कितनी सामर्थ्य लक्ष्य से संबधित अपनी जगह मजबूती से पकड़ लेती है। चेतन का शक्तिकम्पन उत्पन्न करता है, एवं जपकर्ता, अभीष्ट प्रयोजन मन में तो उसका स्मरण पक्का रहता ही है, अचेतन मन में भी और समीपवर्ती वातावरण पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है? उसका एक सुनिश्चित स्थान बन जाता है। फलत: बिना ही जपकर्ता की योग्यता, जपविधि और सावधानी प्रयास के प्राय: निद्रा और स्वप्न में भी जप चलने लगता है। यह बीजमंत्रों का तथा अन्य मंत्रों का जाप करने से पूर्व इन है जपयोग से पहला महत्वपूर्ण लाभ। तथ्यों पर अवश्य ही ध्यान देना चाहिये। दूसरी बात यह है कि जपयोग से दूसरा लाभ : शब्द तरंगों का करिश्मा जप द्वारा किसी मंत्र को सिद्ध करने के लिए उसकी मंत्रस्रष्टा जपयोग से दसरा लाभ - अन्तरिक्ष में प्रवाहित होने वाले द्वारा बताई गई विधि पर पूरा ध्यान देना चाहिये। कई विशिष्ट दिव्य चैतन्य प्रवाह से अभीष्ट परिमाण में शक्ति खींचकर उससे मंत्रों की जप साधना करने के साथ मंत्रजपकर्ता की योग्यता का लाभ उठाना। जैन दृष्टि से भी देखा जाए तो मंत्र के अधिष्ठायक भी उल्लेख किया गया है कि मंत्रजपकर्ता भूमिशयन करे, देवी-देव जपकर्ता साधक को अभीष्ट लाभ पहुंचाते हैं। इसका ब्रह्मचर्य का पालन करे, सत्यभाषण करे, असत्य व्यवहार न अर्थ हैं- मंत्रजाप से उत्पन्न होने वाली सक्ष्म तरंगें विश्वब्रह्मण्ड करे, मंत्रजाप के दौरान किसी से वाद-विवाद कलह, झगड़ा न (चौदह रज्जूप्रमाण लोक) में प्रवाहित ऊर्जाप्रवाह को खींच लाती करे, कषाय उपशान्त रखे, मंत्र के प्रति पूर्ण श्रद्धा-निष्ठा रखे, है। जिस प्रकार किसी सरोवर में ढेला फेंकने पर उसमें से लहरें _आदर के साथ निरन्तर नियमित रूप से जाप करे। एक बात जप उठती हैं और वे वहीं समाप्त न होकर धीरे-धीरे उस सरोवर के करने वाले व्यक्ति को यह भी ध्यान में रखनी है कि जप करने अन्तिम छोर तक जा पहँचती हैं, उसी प्रकार मंत्रगत शब्दों के का स्थान पवित्र, शुद्ध एवं स्वच्छ हो, वहां किसी प्रकार की अनवरत जाप (पुनरावर्तन) से चम्बकीय विचारतरंगे पैदा होती गन्दगी न हो, जीवजन्तु कीड़े-मकोड़े मक्खी-मच्छर आदि का हैं, जो विश्व-ब्राह्मण्ड रूपी सरोवर का अंतिम छोर विश्व के उपद्रव या कोलाहल न हो, जपस्थल के एकदम निकट या गोलाकार होने के कारण, वही स्थान होता है, जहां से मंत्रगत एकदम ऊपर शौचालय (लेट्रीन) या मूत्रालय न हो, हड्डी या ध्वनि तरंगों का संचरण प्रारंभ हुआ था। इस तरह मंत्रजप द्वारा चमड़े की कोई चीज वहाँ न रखी जाए। जप करने वाला व्यक्ति पुनरावर्तन होने से पैदा होने वाली वाली ऊर्जा-तरंगे धीरे-धीरे मद्य, मांस, व्यभिचार, हत्या, दंभ मारपीट, आगजनी, जुआ, बहती व बढ़ती चली जाती हैं और अन्त में एक परी परिक्रमा चोरी आदि से बिल्कुल दूर रहे तथा जप करने का स्थान, करके अपने मूल उद्गम स्थान जपकर्ता के पास लौट आती है। व्यक्ति, दिशा (पूर्व या उत्तर), माला समय, आसन, वस्त्र आदि किसका जप किया जाए? जो निर्धारित किये हों वे ही मंत्र की सिद्धि तक रखे जाएं। ० अष्टदशी /2150 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 3 4 5 6 7