Book Title: Japayoga ki Vilakshan Shakti
Author(s): Pushkar Muni
Publisher: Z_Ashtdashi_012049.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म० जपयोग की विलक्षण शक्ति जप क्या है? स्थूलदृष्टि से देखने पर यही मालूम होता है कि जप शब्दों का पुनरावर्तन है। किसी भी इष्टदेव, परमात्मा या वीतराग प्रभु के नाम का बार-बार स्मरण करना, या किसी मंत्र या विशिष्ट शब्द का बार-बार उच्चारण करना जप है। इसे जाप भी कहते हैं। पदस्थ ध्यान का यह एक विशिष्ट अंग है। शब्दों के बार-बार उच्चारण से क्या लाभ? प्रश्न होता है- शब्दों का उच्चारण तो संसार का प्रत्येक मानव करता है। पागल या विक्षिप्त है चित्त व्यक्ति भी एक ही बात (वाक्य) को बार-बार दोहराता है अथवा कई राजनीतिज्ञ या राजनेता भी अपने भाषण में कई लोग रात-रात भर हरे राम, हरे कृष्ण आदि की धुन लगाते हैं। अथवा कीर्तन करते-कराते हैं, क्या इनसे कोई लाभ होता है? क्या ये शब्दोच्चारण आध्यात्मिक लक्ष्ण की पूर्ति करते हैं? शब्द शक्ति का प्रभाव इसका समाधान यह है कि वैसे प्रत्येक उच्चारण किया हुआ या मन में सोचा हुआ शब्द चौदह रज्जू प्रमाण (अखिल) लोक (ब्रह्माण्ड) में पहुँच जाता है। जैसे भी अच्छे या बुरे शब्दों का उच्चारण किया जाता है, या सामूहिक रूप से नारे लगाये जाते हैं, या बोले जाते हैं, उनकी लहरें बनती हैं, वे आकाश में । व्याप्त अपने सजातीय विचारयुक्त शब्दों को एकत्रित करके लाती है। उनसे शब्दानुरूप अच्छा या बुरा वातावरण तैयार होता है। अच्छे शब्दों का चुनाव अच्छा प्रभाव पैदा करता है, और बुरे शब्द बुरा प्रभाव डालते हैं। अधिकांश लोग शब्द शक्ति को केवल जानकारी के आदान-प्रदान की वस्तु समझते हैं। वे लोग शब्द की विलक्षण शक्ति से अपरिचित हैं। अच्छे-बुरे शब्दों का अचूक प्रभाव वीतरागी या समतायोगी को छोड़कर शब्द का प्रायः सब लोगों के मन पर शीघ्र असर होता है। अच्छे-बुरे, प्रिय-अप्रिय शब्द के असर से प्रायः सभी लोग परिचित हैं। महाभारत की कथा प्रसिद्ध है। दुर्योधन को द्रौपदी द्वारा कहे गए थोड़े से व्यंग भरे अपमानजनक शब्द "अंधे के पुत्र अंधे ही होते हैं" की प्रतिक्रिया इतनी गहरी हुई कि उसके कारण महाभारत के ऐतिहासिक युद्ध का सूत्रपात हुआ, जिसमें अठारह अक्षौहिणी सेना मारी गई। स्वामी विवेकानंद के पास कुछ पंडित आए। वे कहने लगेक्या पड़ा है- शब्दों में। जप के शब्दों का कोई प्रभाव या अप्रभाव नहीं होता। वे जड़ हैं। आत्मा पर उनका क्या असर हो सकता है? स्वामीजी कुछ देर तक मौन रहकर बोले- “तुम मूर्ख हो, बैठ जाओ।" इतना सुनते ही सब आगबबूला हो गए और उनके चेहरे क्रोध से लाल हो गए। उन्होंने कहा- “आप इतने बड़े संन्यासी होकर गाली देते हैं। बोलने का बिल्कुल ध्यान नहीं है आपको?'' विवेकानंद ने मुस्कराते हुए कहा- "अभी तो आप कहते थे, शब्दों का क्या प्रभाव होता है? और एक "मूर्ख' शब्द को सुनकर एकदम भड़क गए। हुआ न शब्दों का प्रभाव आप पर?' वे सब पंडित स्वामी विवेकानन्द का लोहा मान गए। जैन इतिहास में प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की घटना प्रसिद्ध है। वे वन में प्रसन्न मुद्रा में पवित्र भावपूर्वक ध्यानस्थ खड़े थे। मगध नरेश श्रेणिक नृप भगवान महावीर के दर्शनार्थ जाने वाले थे। उनसे पहले दो सेवक आगे-आगे जा रहे थे। उनमें से एक ने उनकी प्रशंसा की, जबकि दूसरे ने उनकी निन्दा की और कहा"यह काहे का साधु है? यह जिन सामन्तों के हाथ में अपने छोटे-से बच्चे के लिए राज्यभार सौंप कर आया है, वे उस अबोध बालक को मारकर स्वयं राज्य हथियाने की योजना बना रहे हैं। इस साधु को अपने अबोध बच्चे पर बिल्कुल दया नहीं है।" इस प्रकार के निन्दा भरे शब्द सुनते ही प्रसन्नचन्द्र राजर्षि अपने आप में न रहे। वे मन ही मन शस्त्रास्त्र लेकर शत्रओं से लडने का उपक्रम करने लगे। श्रेणिक राजा द्वारा भगवान महावीर से पूछने पर उन्होंने सारी घटना का रहस्योद्घाटन करते हुए राजर्षि की पहले, दूसरे से बढ़ते-बढ़ते सातवें नरक गमन की अशुभ भावना बताई परन्तु कुछ ही देर बाद राजर्षि की भावधारा एकदम मुड़ी वे पश्चात्ताप ० अष्टदशी / 2110 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और तीव्रतम आत्मनिन्दा करते-करते सर्वोच्च देवलोक गमन शब्दों का सूक्ष्म एवं अदृश्य प्रभाव की संभावना से जुड़ गए। फिर घोर पश्चात्ताप से घाती शब्द का अत्यन्त सक्ष्म एंव अदृश्य प्रभाव भी होता है। मंत्र कर्मदलिकों को नष्ट करके केवलज्ञान को प्राप्त हुए और फिर के शब्दों और संगीत के शब्दों द्वारा वर्तमान युग में कई अद्भुत सर्वकर्मों का क्षय करके सिद्ध बुद्ध मुक्त बन गए। परिणाम ज्ञात हुए है। मंत्रशक्ति और संगीत शक्ति दोनों ही शब्द यह था शब्द का अमोघ प्रभाव। की शक्ति है। पंच परमेष्ठी नमस्कार मंत्र गर्भित विभिन्न मंत्रों मंत्र जप से अनेक लाभ द्वारा आधि-व्याधि, उपाधि पीड़ा, विविध दुःसाध्य रोग, चिन्ता आदि का निवारण किया जाता है। अन्य मंत्रों का भी प्रयोग वैज्ञानिकों ने अनुभव किया है कि समवेत स्वर में उच्चारित विविध लौकिक एवं लोकोत्तर लाभ के लिए किया जाता है। मंत्र पृथ्वी के अयन मण्डल को घेरे हुए विशाल चुम्बकीय प्रवाह शूमेन्स रेजोनेन्स से टकराते हैं और लौटकर समग्र पृथ्वी के गायन द्वारा अनेक रोगों से मुक्ति संभव वायुमण्डल को प्रभावित करते हैं। शूमेन्स रेजोनेन्स के अन्तर्गत आयुर्वेद के भेषजतंत्र में चार प्रकार के भेषज बतलाये गए जो गति तरंगों की रहती है, वही गति मंत्रजाप करने वाले हैं- पवनौकष, जलौकष, नौकष और शाब्दिक। इसमें अन्तिम साधकों की तन्मयता एवं एकाग्रता की स्थिति में मस्तिष्क से भेषज से आशय है- मंत्रोच्चारण एवं लयबद्ध गायन, आयुर्वेद रिकार्ड की जाने वाली अल्फा-तरंगों की (७ से १३ सायकल के प्रमुख ग्रन्थ चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता आदि में ज्वर, दमा, प्रति सेकेण्ड) होती है। व्यक्ति चेतना और समष्टि चेतना में सन्निपात, मधुमेह, हृदयरोग, राजयक्ष्मा, पीलिया, बुद्धिमन्दता कितना ठोस साम्य है, यह साक्षी वैज्ञानिक उपलब्धि देती है। आदि रोगों में मन्त्रों से उपचार का उल्लेख है। जबकि सामवेद इतना ही नहीं, मंत्रविज्ञानवेत्ता विभिन्न मंत्रों द्वारा शाप-वरदान, में ऋषिप्रणीत ऋचाओं के गायन द्वारा अनेक रोगों से मुक्ति का विविध रोगों से मुक्ति, अधि-व्याधि-उपाधि से छटकारा, भूत · उपाय बताया गया है। प्रेतादिग्रस्तता-निवारण तथा मारण, मोहन, उच्चाटन, कृत्याघात मंत्र विज्ञानवेत्ताओं का कहना है - ह्रस्व उच्चारण से पाप आदि प्रयोगों का दावा करते हैं और कर भी दिखाते हैं। नष्ट होता है, दीर्घ उच्चारण से धनवृद्धि होती है और प्लुत संगीतगत शब्दों का विलक्षण प्रभाव उच्चारण से होती है- ज्ञानवृद्धि। इनके अतिरिक्त अध्यात्म विज्ञानवेत्ता तीन प्रकार के उच्चारण और बताते हैं १. सूक्ष्म २. लय-तालबद्ध गायन तथा सामूहिक कीर्तन संगीत के रूप में शब्दशक्ति की दूसरी महत्वपूर्ण विधा है। इसका विधिपूर्वक अति सूक्ष्म और ३. परम सूक्ष्म। ये तीनों प्रकार के उच्चारण मंत्र जप करने वाले साधक को ध्येय की अभीष्ट दिशा में सुनियोजन करने से प्रकृति में वांछित परिवर्तन एवं मन-वचन-काया योगदान करते हैं। एक ही "ॐ" शब्द को लें, इसका ह्रस्व, को रोग मुक्त करना संभव है। संगीत से तनाव शैथिल्य हो जाता है। वह अनेकानेक मनोविकारों के उपचार की भी एक मनोवैज्ञानिक दीर्घ और प्लुत उच्चारण करने से अभीष्ट लाभ होता है। किन्तु विधा है। संगीत के सुनियोजन से रोग-निवारण, भावात्मक इसका सूक्ष्मातिसूक्ष्म जप करने पर या ‘सोऽहं'' आदि के रूप में अजपाजपन करने पर तो धीरे-धीरे ध्येय के साथ जपकर्ता का अभ्युदय, स्फूर्तिवर्धन, वनस्पति-उन्नयन, गोदुग्ध-वर्धन तथा प्राणियों की कार्यक्षमता में विकास जैसे महत्वपूर्ण लाभ संभव हैं। तादात्म्य बढ़ता जाता है। सामीप्य भी होता जाता है। इस प्रकार मंत्रोच्चारण एवं संगीत प्रयोग से असाध्य से शब्द में विविध प्रकार की शक्ति असाध्य समझे जाने वाले रोगों की चिकित्सा, मानसिक, बौद्धिक शब्द में मित्रता भी उत्पन्न करने की शक्ति है, शत्रुता भी। चिकित्सा का विधान पुरातन ग्रन्थों में है। शब्दतत्व में असाधारण पाणिनी ने महाभाष्य में बताया है - “एक: शब्द- सुष्ठु प्रयुक्त: जीवनदात्री क्षमता विद्यमान है। यह सिद्ध है। स्वर्गे लोके च कामधुक भवति'' प्रयोग किया एक भी अच्छा मंत्र जप की ध्वनि जितनी सूक्ष्म, उतना ही अधिक शक्ति शब्द स्वर्गलोक और इहलोक में कामदुहा धेनु के समान होता लाभ है। शोक-संवाद सुनते ही मनुष्य अर्धमूच्छित सा एवं विह्वल हो जाता है। उसकी नींद, भूख और प्यास मारी जाती है। तर्क, एक चिन्तक ने बताया कि जैसे हम "अर्हम्' का युक्ति, प्रमाण एवं शास्त्रोक्ति तथा अनुभूति के आधार पर उच्चारण नाभि से शुरू करके क्रमश: हृदय, तालु, बिन्दु, और प्रभावशाली वक्तव्य देते ही तुरन्त जनसमूह की विचारधारा अर्धचन्द्र तक ऊपर ले जाते हैं, तो इस उच्चारण से क्या बदल जाती है, वह बिल्कुल आगा-पीछा विचार किए बिना प्रतिक्रिया होती है? इस पर भी ध्यान दें। जब हमारा उच्चारण कुशल वक्ता के विचारों का अनुसरण करने को तैयार हो जाता सूक्ष्म हो जाता है, तब ग्रन्थियों का भेदन होने लगता है। है। ये तो शब्द के स्थूल प्रभाव की बातें हैं। आज्ञाचक्र तक पहुँचते-पहुँचते हमारी ध्वनि यदि अतिसूक्ष्मसूक्ष्मतम हो जाती है तो उन ग्रन्थियों का भी भेदन शुरू हो जाता ० अष्टदशी /2120 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, जो ग्रन्थियां सुलझती नहीं है, वे भी इन सूक्ष्म उच्चारणों से के द्वारा अल्पसमय में हीरा काटा जाता है। शब्दों की सूक्ष्म सुलझ जाती है। ध्वनि से वस्त्रों की धुलाई होती है। मकान के बंद द्वार, फाटक निष्कर्ष यह है कि जब हमारा संकल्प सहित मंत्रजप भी आवाज से खुलते और पुन: आवाज से बंद हो जाते हैं। यह स्थूलवाणी से होगा, तो इतना पावरफुल नहीं होगा, न ही हम यथेष्ट । है शब्दशक्ति का चमत्कार। जप में शब्द शक्ति का ही लाभ प्राप्त कर सकेंगे, हमारा जप तभी शक्तिशाली और चमत्कार है। लाभदायी होगा, जब हमारा संकल्पयुक्त जप सूक्ष्म वाणी से होगा। अश्राव्य शब्द के आघात का चमत्कार भावना, शुद्ध उच्चारण और तरंगों से मंत्रजप शक्तिशाली एक क्रम, सरीखी गति से सतत किए जाने वाले सूक्ष्म, एवं लाभदायी अश्राव्य शब्द के आघात का चमत्कार वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं मंत्र शक्तिशाली और अभीष्ट फलदायी तभी होता है, जब में देखा जा चुका है। इसी प्रकार प्रयोगकर्ताओं ने अनुभव करके मंत्र के शब्दों के साथ भावना शुभ और उच्चारण शद्ध होता है। बताया है कि एक टन भारी लोहे का गार्डर किसी छत के बीच उससे विभिन्न तरंगें पैदा होती जाती हैं। अत: मंत्रों की। में लटका कर उस पर सिर्फ ५ ग्राम वजन के कार्क का . शब्दशक्ति के साथ तीन बातें जुड़ी हुईं १. भावना, २. उच्चारण लगातार शब्दाघात एक क्रम व गति से कराया जाए तो कुछ और ३. उच्चारण से उत्पन्न हुई शक्ति के साथ पैदा होने वाली ही समय के पश्चात् लोहे का गार्डर कांपने लगता है। पुलों पर तरंगें। किसी शब्द के उच्चारण से अल्फा तरंगे, किसी शब्द के से गुजरती सेना के लेफ्ट-राइट के ठीक क्रम से तालबद्ध पैर उच्चारण से थेटा या बेटा तरंगें पैदा होती हैं। ॐ के भावनापूर्वक पड़ने से उत्पन्न हुई एकीभूत शक्ति के प्रहार से मजबूत से उच्चारण से अल्फा तरंगे पैदा होती है, जो मस्तिष्क को प्रभावित मजबूत पुल भी टूटकर मिट सकता है। इसलिए सेना को पैर एवं शिथिलीकरण करती हैं। ॐ ह्रीं, श्री, क्लीं, ब्लू, ए, अर्हम्, मिलाकर पुल पर चलने से मना कर दिया जाता है। मंत्रजप के अ सि आ उ सा आदि जितने भी मंत्र या बीजाक्षर हैं, उनसे क्रमबद्ध उच्चारण से इसी प्रकार का तालक्रम उत्पन्न होता है। उत्पन्न तरंगे ग्रंथि संस्थान को प्रभावित करती हैं तथा अन्त:स्रावी मंत्रगत शब्दों के लगातार आघात से शरीर के अंत:स्थानों में ग्रन्थियों को संन्तुलित एवं व्यवस्थित करती है। विशिष्ट प्रकार की हलचलें उत्पन्न होती हैं, जो आन्तरिक मंत्र जप के लिए शब्दों का चयन विवेकपूर्वक हो मूर्च्छना को दूर करती हैं एवं सुषुप्त आन्तरिक क्षमताओं को जागृत कर देती है। जैनाचार्यों ने वाक्सूक्ष्मत्व, वाग्गुप्ति तथा भाषासमिति का जप के साथ योग शब्द जोड़ने के पीछे आशय ध्यान रखते हुए उन शब्दों का चयन किया है जो मंत्ररूप बन जाते हैं। उन्होंने कहा कि साधक को यतनापूर्वक उन शब्दों का जप के साथ योग शब्द जोड़कर अध्यात्मनिष्ठों ने यह चुनाव करना चाहिए, जिनसे बुरे विकल्प रुक जाएं, जो उसकी संकेत किया है कि जप उन्हीं शब्दों और मंत्रों का किया जाए, संयम यात्रा को विकासशील और स्व-पर कल्याणमय बनाएं एवं जो आध्यात्मिक विकास के प्रयोजन को सिद्ध करता हो, जिससे विघ्नबाधाओं से बचाएँ। जीवन में सुगन्ध भर जाए, दुर्गन्ध मिट व्यक्ति में परमात्मा या मोक्ष रूप ध्येय की प्रति तन्मयता, जाए, जीवन मोक्ष के श्रेयस्कर पथ की ओर गति प्रगति करे, प्रेय एकाग्रता, तल्लीनता एवं दृढ़निष्ठा जगे, आंतरिक, सुषुप्त के पथ से हटे, उसी प्रकार से संकल्प एवं स्वप्न हृदयभूमि में शक्तियां जगेता, जपयोग में मंत्रशक्ति के इसी आध्यात्मिक प्रादुर्भूत हों, जिनसे आत्म स्वरूप में या परमात्मभाव में रमण हो प्रभाव का उपयोग किया जाता है तथा आत्मा में निहित ज्ञानसके, परभावों और विभावों से दूर रहा जा सके। “णमो दर्शन-चारित्र सुख (आनंद) आत्मबल आदि शक्तियों को अरिहंताणं" आदि पंचपरमेष्ठी नमस्कार मंत्र तथा नमो नाणस्स, अभिव्यक्त करने का पुरुषार्थ किया जाता है। नमो दंसणस्स, नमो चरित्तस्स और नमो तवस्स" आदि नवपद नामजप से मन को प्रशिक्षित करने हेतु चार भूमिकाएँ ऐसे शक्तिशाली शब्दों का संयोजन है। भावना और श्रद्धा के नाम जप से मन को प्रशिक्षित करने हेतु मनोविज्ञान शास्त्र साथ उनके उच्चारण (जप) से आधि-व्याधि और उपाधि मिट में चार स्तर बताए हैं, १. लर्निंग का अर्थ बार-बार स्मरण कर अन्तरात्मा में समाधि प्राप्त हो सकती है। करना, दोहराना है। इस भूमिका में पुनरावृत्ति का आश्रय लिया शब्दशक्ति का चमत्कार जाता है। दूसरी परत हैं रिटेंसन अर्थात् प्रस्तुत जानकारी या पहले बताया जा चुका है कि शब्द शक्ति के द्वारा विविध कार्यप्रणाली को स्वभाव का अंग बना लेना। तीसरी भूमिका हैरोगों की चिकित्सा होती है। अब तो शब्द की सूक्ष्म तरंगों के - रिकॉल, उसका अर्थ है - भूतकाल की उस संबंध में अच्छी द्वारा ऑपरेशन होते हैं, चीर-फाड़ होती है। ध्वनि की सूक्ष्म तरंगों बातों को पुन: स्मृतिपथ पर लाकर सजीव कर लेना, चौथी भूमिका है रिकाम्बिशन अर्थात् उसे मान्यता प्रदान कर देना, उसे ० अप्टदशी / 2130 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निष्ठा, आस्था एवं विश्वास में परिणत कर देना। जप साधना में चक्रों एवं उपत्यकाओं (नाड़ी संस्थानां) में एक विशिष्ट स्तर का इन्हीं सब प्रयोजनों को पूरा करना पड़ता है। व्यक्ति को समष्टि शक्ति संचार होता है। इस प्रकार के विशिष्ट शक्ति-संचार की सत्ता से अथवा आत्मा को परमात्म-सत्ता से जोड़ने के लिए मन अनुभूति जपकर्ता अपने भीतर में करता है, जबकि बाहरी को बार-बार स्मरण दिलाना, उसे अपने स्वभाव में बुन लेना, प्रतिक्रिया यह होती है कि लगातार एक नियमित क्रम से किए उससे संबंधित आध्यात्मिक एवं मानसिक बौद्धिक लाभों को याद जाने वाले विशिष्ट मंत्र के जप से विशिष्ट प्रकार की ध्वनि तरंगे करके सजीव कर लेना तथा उस पर निष्ठा एवं आस्था में दृढ़ता निकलती है, जो समग्र अन्तरिक्ष में विशेष प्रकार का स्पन्दन लाना, ये ही तो जपयोग के मूल उद्देश्य हैं। उत्पन्न करती है, वह तरंग स्पंदन प्राणिमात्र को और समूचे जपयोग का महत्व क्यों? वातावरण को प्रभावित करता है। वास्तव में जपयोग अचेतन मन को जागृत करने की एक मंत्रजाप से दोहरी प्रतिक्रिया : विकार निवारण, प्रतिरोधशक्ति वैज्ञानिक विधि है। आत्मा के निजी गुणों के समुच्चय को प्राप्त प्रत्येक चिकित्सक दो दिशाओं में रोगी पर चिकित्सा कार्य करने के लिए परमात्मा से तादात्म्य जोड़ने का अद्भुत योग है। करता है। एक ओर वह रोग के कीटाणुओं को हटाने की दवा इससे न केवल साधक का मनोबल दढ होता है. उसकी आस्था देता है, तो दूसरी ओर रोग को रोकने हेतु प्रतिरोधात्मक शक्ति परिपक्व होती है उसके विचारों में विवेकशीलता और समर्पण बढ़ाने की दवा देता है। क्योंकि जिस रोगी में प्रतिरोधात्मक वृत्ति आती है, बुद्धि भी निर्मल एवं पवित्र बनती है। जप से मनुष्य शक्ति बढ़ाने की दवा देता है। क्योंकि जिस रोगी में प्रतिरोधात्मक भौतिक ऋद्धि-सिद्धियों का स्वामी बन जाता है, यह इतना महत्पूर्ण । शक्ति कम होती है, उसे दी जाने वाली दवाइयां अधिक नहीं, उससे भी बढ़कर है, आध्यात्म्कि समृद्धियों का स्वामी . लाभदायक नहीं होती। जिस शरीर में रोगों से लड़ने की क्षमता बनना। जपयोग एक ऐसा विधान है, जिससे मनुष्य प्रेरणा प्राप्त होती है, वही दवाइयां ठीक काम करती हैं। इसीलिए डॉक्टर या कर भव-बन्धनों से मुक्त होने की दिशा में तीव्रता से प्रयाण कर चिकित्सक इन दोनों प्रक्रियाओं को साथ-साथ चलाता है। इसी सकता है, साथ ही वह व्यक्तिगत जीवन में शांति, कषायों की प्रकार मंत्रजप से भी दोहरी प्रतिक्रिया होती है- १. मन के उपशांति, वासनाओं से मुक्ति पाने का अधिकारी हो जाता है। विकार मिटते हैं, २. आन्तरिक क्रोधादि रोगों से लड़ने की प्रतिरोधात्मक शक्ति विकसित होती है। मंत्र जाप से ऊर्जाशक्ति शरीर पर मैल चढ़ जाता है तो उसे धोने के लिए लोग स्नान करते हैं। इसी तरह मन पर भी वातावरण में नित्य उड़ती प्रबल हो जाती है, फलत: बाहर के आघात-प्रत्याघातों को फिरने वाली दुष्प्रवृत्तियों की छाप पड़ती है, उस मलिनता को समभावपूर्वक झेलने और ठेलने की प्रतिरोधात्मक शक्ति बढ़ धोने के लिए जप ही सर्वश्रेष्ठ सुलभ एवं सरल उपाय है। जाती है। मन पर काम, क्रोध, लोभ तथा राग-द्वेषादि विकारों का नामजप से इष्ट का स्मरण, स्मरण से आह्वान, आह्वान से हृदय प्रभाव प्राय: नहीं होता। मंत्रजाप से इस प्रकार की प्रतिरोधात्मक में स्थापना और स्थापना से उपलब्धि का क्रम चलना शास्त्रसम्मत शक्ति के अभिवर्धन के लिए तथा मन को इस दिशा में अभ्यस्त भी है और विज्ञान-सम्मत भी अनभ्यस्त मन को जप द्वारा सही करने के लिए शास्त्रीय शब्दों में संयम और तप से आत्मा को रास्ते पर लाकर उसे प्रशिक्षित एवं परमात्मा के साथ जुड़ने के भावित करने के लिए मंत्रजाप के साथ तदनुरूप भावना या अनुप्रेक्षा का प्रयोग करना चाहिये। ऐसा होने पर वह मंत्रजाप लिए अभ्यस्त किया जाता है। परमात्म (शुद्ध आत्म) चेतना को वज्रपंजर या सुदृढ़ कवच होता जाता है, जिससे मंत्र जपसाधक जपकर्ता अपने मानस पटल पर जप द्वारा प्रतिष्ठित कर लेता है। जपयोग की प्रक्रिया से ऐसी चेतनशक्ति का प्रादुर्भाव हो जाता पर बाहर के आघातों का कोई असर नहीं होता और न ही कामहै, जो साधक के तन-मन-बुद्धि में विचित्र चैतन्य हलचलें पैदा क्रोधादि विकार उसके मन को प्रभावित कर सकते हैं। कर देती है। जप के द्वारा अनवरत शब्दोच्चारण से बनी हुई जपयोग में शब्दों के अनवरत पुनरावर्तन का लाभ लहरें (Vibrations) अनन्त अन्तरिक्ष में उठकर विशिष्ट विभूतियों, बार-बार रगड़ से गर्मी अथवा बिजली पैदा होने पर पानी व्यक्तियों और परिस्थितियों को ही नहीं, समूचे वातावरण को के बार-बार संघर्षण से बिजली (हाइड्रो इलैक्ट्रिक) पैदा होने के प्रभावित कर देती है। सारे वातावरण में जप में उच्चरित शब्द सिद्धांत से भौतिक विज्ञानवेत्ता भली भंति परिचित हैं। जपयोग गूंजने लगते हैं। में अमुक मंत्र या शब्दों का बार-बार अनवरत उच्चारण एक जपयोग से सबसे बड़ा प्रथम लाभ प्रकार का घर्षण पैदा करता है। जप से गतिशील होने वाली उस घर्षण प्रक्रिया से साधक अन्तर में निहित दिव्य शक्ति संस्थान . जपयोग का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इसकी प्रक्रिया उत्तेजित और जागृत होते हैं, तथा आन्तरविद्युत (तेजस् शक्ति) दोहरी प्रतिक्रिया उत्पन्न करती है- एक भीतर में, दूसरी बाहर अथवा ऊर्जाशक्ति की वृद्धि होती है। श्वास के साथ शरीर के में. जप के ध्वनि प्रवाह से शरीर में यत्र-तत्र सन्निहित अनेक भीतर शब्दों के आवागमन से तथा रक्ताभिसरण से गर्मी उत्पन्न ० अष्टदशी / 2140 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती है, जो जपकर्ता के सूक्ष्म (तैजस्) शरीर को तेजस्वी, अब प्रश्न होता हे कि जपयोग का साधक जप किसका वर्चस्वी एवं ओजस्वी तथा आध्यात्मिक साधना के लिए करें? वैसे तो जप करने के लिए कई श्रेष्ठ मंत्र है, कई पद हैं, कार्यक्षम बनाती है। साधक के जीवन की त्रियोग-प्रवृत्तियाँ उसी कई श्लोक और गाथाएं हैं। जैन धर्म में सर्वश्रेष्ठ महामंत्र ऊर्जा (तैजस्) शक्ति के सहारे चलती है। पंचपरमेष्ठी नमस्कार मंत्र है। वैदिक धर्म में गायत्री मंत्र को जपनीय शब्दों की पुनरावृत्ति के अभ्यास का चमत्कार सर्वश्रेष्ठ समझा जाता है। यह बात मंत्र का चयन करते समय मनुष्य की मानसिक संरचना ऐसी है, जिसमे कोई भी बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिये। गहराई तक जमाने के लिए उसकी लगातार पुनरावृत्ति का मंत्रों में अर्थ का नहीं, ध्वनि विज्ञान का महत्व है। अभ्यास करना होता है। पुनरावृत्ति से मष्तिष्क एक विशेष ढाँचे मंत्रों में उनके अर्थ का उतना महत्व नहीं होता, जितना कि में ढलता जाता है। जिस क्रिया को बार-बार किया जाता है, वह ध्वनिविज्ञान का। अर्थ की दृष्टि से नवकार महामंत्र या गायत्री मंत्र आदत में शुमार हो जाती है। जो विषय बार-बार पढ़ा, सुना, सामान्य लगेगा, परन्तु सामर्थ्य की दृष्टि से अद्भुत और सर्वोपरि बोला, लिखा या समझा जाता है, वह मस्तिष्क में अपना एक हैं ये, इसका कारण यह है कि मंत्र स्रष्टा वीतराग की दृष्टि में विशिष्ट स्थान जमा लेता है। किसी भी बात को गहराई से जमाने अर्थ का इतना महत्व नहीं रहा, जितना शब्दों का गुंथन महत्वपूर्ण के लिए उसकी पुनरावृत्ति करना आवश्यक होता है। रहा है। कितने ही बीजमंत्र ऐसे हैं, जिनका कोई विशिष्ट अर्थ नहीं एक ही रास्ते पर बार-बार पशुओं व मनुष्यों के चलने से निकलता, परन्तु वे सामर्थ्य की दृष्टि से विलक्षण है। "ही" पगडंडियां बनती हैं। इसी प्रकार मंत्र जप के द्वारा नियमित रूप "श्री" "क्ली' ब्लूँ,ऐं, हूं यं, फट् इत्यादि बीज मंत्रों का अर्थ से अनवरत मंत्रगत शब्दों की आवृत्ति करने से जपकर्ता के समझने की माथापच्ची करने पर भी सफलता नहीं मिलती, अन्तरंग में वह स्थान जमा लेता है। उस लगातार जप का ऐसा क्योंकि उनका मंत्र के साथ सृजन यह बात ध्यान में रखकर किया गहरा प्रभाव व्यक्ति के अन्तर पर पड़ जाता है कि उसकी स्मृति गया है कि उनका उच्चारण किस स्तर का तथा कितनी सामर्थ्य लक्ष्य से संबधित अपनी जगह मजबूती से पकड़ लेती है। चेतन का शक्तिकम्पन उत्पन्न करता है, एवं जपकर्ता, अभीष्ट प्रयोजन मन में तो उसका स्मरण पक्का रहता ही है, अचेतन मन में भी और समीपवर्ती वातावरण पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है? उसका एक सुनिश्चित स्थान बन जाता है। फलत: बिना ही जपकर्ता की योग्यता, जपविधि और सावधानी प्रयास के प्राय: निद्रा और स्वप्न में भी जप चलने लगता है। यह बीजमंत्रों का तथा अन्य मंत्रों का जाप करने से पूर्व इन है जपयोग से पहला महत्वपूर्ण लाभ। तथ्यों पर अवश्य ही ध्यान देना चाहिये। दूसरी बात यह है कि जपयोग से दूसरा लाभ : शब्द तरंगों का करिश्मा जप द्वारा किसी मंत्र को सिद्ध करने के लिए उसकी मंत्रस्रष्टा जपयोग से दसरा लाभ - अन्तरिक्ष में प्रवाहित होने वाले द्वारा बताई गई विधि पर पूरा ध्यान देना चाहिये। कई विशिष्ट दिव्य चैतन्य प्रवाह से अभीष्ट परिमाण में शक्ति खींचकर उससे मंत्रों की जप साधना करने के साथ मंत्रजपकर्ता की योग्यता का लाभ उठाना। जैन दृष्टि से भी देखा जाए तो मंत्र के अधिष्ठायक भी उल्लेख किया गया है कि मंत्रजपकर्ता भूमिशयन करे, देवी-देव जपकर्ता साधक को अभीष्ट लाभ पहुंचाते हैं। इसका ब्रह्मचर्य का पालन करे, सत्यभाषण करे, असत्य व्यवहार न अर्थ हैं- मंत्रजाप से उत्पन्न होने वाली सक्ष्म तरंगें विश्वब्रह्मण्ड करे, मंत्रजाप के दौरान किसी से वाद-विवाद कलह, झगड़ा न (चौदह रज्जूप्रमाण लोक) में प्रवाहित ऊर्जाप्रवाह को खींच लाती करे, कषाय उपशान्त रखे, मंत्र के प्रति पूर्ण श्रद्धा-निष्ठा रखे, है। जिस प्रकार किसी सरोवर में ढेला फेंकने पर उसमें से लहरें _आदर के साथ निरन्तर नियमित रूप से जाप करे। एक बात जप उठती हैं और वे वहीं समाप्त न होकर धीरे-धीरे उस सरोवर के करने वाले व्यक्ति को यह भी ध्यान में रखनी है कि जप करने अन्तिम छोर तक जा पहँचती हैं, उसी प्रकार मंत्रगत शब्दों के का स्थान पवित्र, शुद्ध एवं स्वच्छ हो, वहां किसी प्रकार की अनवरत जाप (पुनरावर्तन) से चम्बकीय विचारतरंगे पैदा होती गन्दगी न हो, जीवजन्तु कीड़े-मकोड़े मक्खी-मच्छर आदि का हैं, जो विश्व-ब्राह्मण्ड रूपी सरोवर का अंतिम छोर विश्व के उपद्रव या कोलाहल न हो, जपस्थल के एकदम निकट या गोलाकार होने के कारण, वही स्थान होता है, जहां से मंत्रगत एकदम ऊपर शौचालय (लेट्रीन) या मूत्रालय न हो, हड्डी या ध्वनि तरंगों का संचरण प्रारंभ हुआ था। इस तरह मंत्रजप द्वारा चमड़े की कोई चीज वहाँ न रखी जाए। जप करने वाला व्यक्ति पुनरावर्तन होने से पैदा होने वाली वाली ऊर्जा-तरंगे धीरे-धीरे मद्य, मांस, व्यभिचार, हत्या, दंभ मारपीट, आगजनी, जुआ, बहती व बढ़ती चली जाती हैं और अन्त में एक परी परिक्रमा चोरी आदि से बिल्कुल दूर रहे तथा जप करने का स्थान, करके अपने मूल उद्गम स्थान जपकर्ता के पास लौट आती है। व्यक्ति, दिशा (पूर्व या उत्तर), माला समय, आसन, वस्त्र आदि किसका जप किया जाए? जो निर्धारित किये हों वे ही मंत्र की सिद्धि तक रखे जाएं। ० अष्टदशी /2150 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जप के साथ लक्ष्य के प्रति तन्मयता, भावना एंव तीव्रता हो तरंगे दूर-दूर तक फैलकर वातावरण को शुद्ध बनाती है। कई भक्तिपरायण व्यक्ति अपने इष्टदेव पंचपरमेष्ठी वीतराग अजपाजप-स्वरूप और प्रक्रिया जीवनमुक्त अरिहंत या निरंजन निराकार सिद्ध परमात्मा के जप प्राणायाम की ही एक विधा, जो विशुद्ध आध्यात्मिक है, को ही अभीष्ट मानते हैं। इष्ट देव का जाप करने से उनका जिसे अजपाजप “सोऽहं साधना या' हंसयोग कहा जाता है। सान्निध्य और सामीप्य प्राप्त होता है। ऐसे दिव्यात्मा भी कभी विपश्यना ध्यान एवं प्रेक्षा ध्यान के साथ जप काफी सुसंगत है। कभी प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं और कार्यसिद्धि में सहायक होते हैं। किन्तु प्रेक्षा ध्यान एवं विपश्यना ध्यान में और इसमें थोड़ा सा परमात्मा या परमात्मपद की प्राप्ति ही मुमुक्षु साधक के जीवन अन्तर है। प्रेक्षा ध्यान या विपश्यना ध्यान में प्रारंभ में केवल का लक्ष्य होना चाहिये। ऐसे मुमुक्षु जपकर्ता को एकमात्र निरंजन श्वास के आवागमन को देखते रहने का अभ्यास है, परन्तु निराकार परमात्मा के प्रति पूर्णश्रद्धा रखकर जप प्रारंभ करने से अजपाजप में पहले स्थिर शरीर और शांत चित्त होकर श्वास पूर्व उन्हें विधिपूर्वक वंदना-नमस्कार करना चाहिये। उस जपकर्ता, के आवागमन की क्रिया प्रारंभ की जाती है। सांस लेते समय पुण्यात्मा में परमात्मा के प्रति तीव्र तन्मयता, तल्लीनता, "सो" और छोडते समय "हम" की ध्वनिश्रवण पर चित्त को एकाग्रता एवं पिपासा होनी चाहिये, ऐसे शुद्ध आत्मा से मिलन एकाग्र किया जाता है। या तादात्म्य पिपासा जितनी तीव्र होगी, उसी अनुपात में मिलन की संभावना निकट आएगी। जाप जप या नामस्मरण जितनी इस अनायास जप साधना में ध्यान योग भी जुड़ा है। इसमें समर्पणवृत्ति शरणागति एवं भक्ति, प्रीति के साथ किया जाएगा, श्वास के आवागमन पर सतर्क होकर ध्यान रखना और चित्त उतनी ही शीघ्र सफलता मिलनी संभव है। इसीलिए भक्तिवाद को एकाग्र करना पड़ता है। इतना न बन पड़े तो वायु के भीतर प्रवेश के साथ "सो" और निकलने के साथ "हम" के श्रवण के आचार्य ने कहा- "जपात् सिद्धिः जपात् सिद्धिः जपात् सिद्धिर्न संशयः" जप से सिद्धि होती है, जप से सिद्धि होती है, का तालमेल ही नहीं बैठता। इसलिए प्रत्येक श्वास की गतिविधि जप से अवश्य ही सिद्धि होती है, इसमें कोई संशय नहीं है। अत: पर ध्यान रखना पड़ता है। इतना ध्यान जम जाए, तभी जपकर्ता में जप के फल के प्रति आशंका या संशय नहीं होना ध्वनिश्रवण का अगला कदम उठता है। चाहिये। सोऽहं मंत्र का अर्थ और रहस्य जप का अन्तस्तल एवं महात्म्य ___'सोऽहम्' मंत्र वेदान्त का है, परन्तु जैनधर्म के आध्यात्मिक जप का महात्म्य बताते हुए कवि ने कहा है आचार प्रधान आगम-आचारांग-सूत्र के प्रथम अध्ययन के प्रथम स्थिर मन से सारे जाप करो, उद्देशक में आत्मा के अस्तित्व सूचक सूत्र में “सोहं" शब्द भव-भव का संचित ताप हरो।।ध्रुव।।। प्रयुक्त किया है। वह भी आत्मा का परमात्मा के साथ आत्मगुणों यह जाप शांति का दाता है, दुविधा को दूर भगाता है। में आत्म स्वरूप में एकत्व का सूचक है। वेसे भी सोऽहं में "सो" मानस का सब सन्ताप हरो।।स्थिर।।१।। का अर्थ वह और "अहम्" का अर्थ में है। यानी वह परमात्मा जप से सब काम सुधरते हैं, दिल में शुभ भाव उभरते हैं। मैं (शुद्ध आत्मा) हूँ। तात्पर्य है मैं परमात्मा के गुणे के समकक्ष चेतन से सदा मिलाप करो। स्थिर।।२।। हूँ। जितने मूल गुण परमात्मा में हैं, वे ही मेरी शुद्ध आत्मा में है। जब जप का दीपक जलता है, तब अन्तर का सुख फलता है। वेदान्त तत्वज्ञान का मूलभूत आधार है, उसी प्रकार "अप्पा सो करणी से अपने आप तरो।स्थिर।।३।। परमप्पा' इस जैनतत्वज्ञान के निश्चयदृष्टिपरक तत्वज्ञान का गर अन्तर का मन चंगा है, यह जाप पावनी गंगा है। आधार है। तत्त्वमसि, शिवोऽहं, “य: परमात्मा स एवाऽहम्', तरंगों से "सुमेरू" नाप करो। स्थिर।।४।। सोऽहम्, सच्चिदानन्दोऽहम्, अयमात्मा ब्रह्म आदि सूत्रों में आत्मा और परमात्मा में समानता है। "पंचदशी" आदि ग्रन्थों में इसी कवि ने जप का अन्त:स्तल खोल कर रख दिया है। जप अनुभूति का दर्शन एवं प्रयोग विस्तृत रूप से बताया गया है। के समय किसी प्रकार की दुविधा, दुश्चिन्ता, अशांति, बेचैनी, वस्तुत: अद्वैतसाधना, अथवा आत्मोपम्य साधना अथवा “ऐगे स्पृहा, फलाकांक्षा, लौकिक वांछा, ईर्ष्या, द्वेषभावना आदि नहीं आया" की साधना का अभ्यास भी इसी प्रयोग के साथ संगत हो हो तो जप शांति, शुभ भावनाओं, समर्पण वृत्ति, दृढ़श्रद्धा एवं । जाता है। सर्वतापहारी, मानस में तन्मयता, एकाग्रता और आराध्य के प्रति तल्लीनता लाने वाला है। जप से सम्यग्ज्ञान-दर्शन आत्मिक गायत्री साधना की उच्च स्तरीय भूमिका में प्रवेश करते आनंद और आत्मशक्ति पर आए आवरण दूर होकर इनका समय साधक को सोऽहम् जप की साधना का अभ्यास करना जागरण हो जाता है। गंगा की तरंगों के समान जप से उद्भुत आवश्यक होता है। अन्य जपों में तो प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करना ० अष्टदशी / 2160 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है, जबकि सोऽहम् का अजपाजप बिना किसी प्रयत्न के अनायास हो जाता है। इसीलिए इसे बिना जप किये जप - "अजपाजप" कहा जाता है। इसे योग की भाषा में अनाहत नाद भी कहते हैं। सोऽहम् जप में आत्मबोध एवं तत्वबोध दोनों है। सोऽहम् जप-साधना में आत्मबोध और तत्वबोध दोनों का सम्मिश्रण है। मैं कौन हूँ, इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है स: = वह परमात्मा अहम् = मैं हूँ। इसे ब्रह्मदर्शन में आत्मदर्शन भी कह सकते हैं, यह आत्मा, परमात्मा की एकता-अद्वैत का ब्रह्मज्ञान है। इस ब्रह्मज्ञान के उदित हो जाने पर आत्मज्ञान, सम्यग्ज्ञान, तत्वज्ञान, व्यवहार्य-सद्ज्ञान आदि सभी की शाखा-प्रशाखाएँ फूटने लगती हैं। इसलिए “सोऽ "ह" जप को अतीव उच्चकोटि का जपयोग माना गया है। जैनदृष्टि से जाप एक प्रकार का पदस्थ ध्यान का रूप है। जाप के इन सब रूपों के लाभ, महत्व स्वरूप तथा प्रक्रिया एवं विधि-विधान को समझकर जपयोगसाधना करने से व्यक्ति परम लक्ष्य-मोक्ष को प्राप्त कर सकता 0 अष्टदशी /2170