Book Title: Jambudwip Ek Adhyayan
Author(s): Gyanmati Mataji
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 3
________________ २००० कोस को मील से गुणा कर एक महायोजन ४००० मील मानकर उसी से ही गुणा किया गया है। आजकल कुछ लोग ऐसा कह दिया करते हैं कि पता नहीं, आचार्यों के समय कोस का प्रमाण क्या था। और योजन का प्रमाण 'भी क्या था ! किन्तु जब परमाणु से लेकर अवसन्नासन्न आदि परिभाषाओं से आगे बढ़ते हुए जघन्य भोगभूमि के बाल के ८ अग्रभागों का एक कर्मभूमि का बालाग्र होता है, तब इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भोगभूमियों के बाल की अपेक्षा चतुर्थकाल के कर्मभूमि के प्रारम्भ का भी बाल मोटा था। पुनः आज पंचम काल के मनुष्यों का बाल तो उससे मोटा ही होगा। आज के अनुसंधानप्रिय विद्वानों का कर्तव्य है कि आज के बाल की मोटाई के हिसाब से ही आगे के अंगुल, पाद, हाथ आदि बनाकर योजन के हिसाब को समझने की कोशिश करें। 'जम्बूद्वीप-पण्णत्ति' की प्रस्तावना के २०वें पेज पर श्री लक्ष्मीचन्द जैन एम० एस-सी० ने कुछ स्पष्टीकरण किया है, वह पढ़ने योग्य है। देखिए इस योजन की दूरी आजकल के रेखिक माप में क्या होगी? यदि हम २ हाथ-१ गज मानते हैं तो स्थूलरूप से १ योजन ८०,०००,०० गज के बराबर अथवा ४५४५.४५ मील ( MILES) के बराबर प्राप्त होता है। यदि हम १ कोस को आजकल के २ मील के समान मान लें तो १ योजन ४००० मील (MILES) के बराबर प्राप्त होता है। कर्मभूमि के बालाग्र का विस्तार आजकल के सूक्ष्म यन्त्रों द्वारा किये गये मापों के अनुसार १/५०० इंच से लेकर १/२०० इंच तक होता है । यदि हम इस प्रमाण के अनुसार योजन का माप निकालें तो उपर्युक्त प्राप्त प्रमाणों से अत्यधिक भिन्नता प्राप्त होती है। बालाग्र का प्रमाण १/५०० इंच मानने पर १ योजन ४६६४८.४८ मील प्रमाण आता है। कर्म भूमि का बालाग्र १.३०० इंच मानने से योजन ८२७४७.४७ मील के बराबर पाया जाता है । बालाग्र को ११२०० इंच प्रमाण मानने से योजन का प्रमाण और भी बढ़ जाता है। इसलिए एक महायोजन में स्थूल रूप में ४००० मील समझना चाहिए, किन्तु यह लगभग प्रमाण है। वास्तव में एक महायोजन में इससे अधिक ही मील होंगे ऐसा हमारा अनुमान है। इस प्रकार से योजन आदि के विषय में तिलोयपण्णत्ति, जम्बूद्वीपपण्णत्ति, त्रिलोकसार, श्लोकवार्तिक आदि ग्रन्थों में दृढ़ श्रद्धा रखते हुए अपने सम्यक्त्व को सुरक्षित रखना चाहिए। जब तक केवली, श्रुतकेवली के चरणो का सान्निध्य प्राप्त न हो तब तक अपने मन को चंचल और अश्रद्धालु नहीं करना चाहिए। जम्बूद्वीप इस मध्यलोक में सबसे पहले द्वीप का नाम है जम्बूद्वीप। यह एक लाख योजन विस्तृत है और गोल है। इसमें दक्षिण से लेकर उत्तर तक छह पर्वत हैं, जो कि पूर्व-पश्चिम लम्बे हैं। उनके नाम हैं-हिमवान, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी। इन पर्वतों पर एक-एक सरोवर बने हुए हैं उनके नाम हैं पद्म, महापद्म, तिगिच्छ, केसरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक। इन सरोवरों के मध्य पृथ्वीकायिक जाति के बड़े-बड़े कमल हैं। उन कमलों पर भवन बने हुए हैं, जिनमें क्रम से श्री, ही, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी नाम वाली देवियां निवास करती हैं। ___ छह कुलपर्वतों के निमित्त से इस जम्बूद्वीप में सात क्षेत्र हो गये हैं । जिनके नाम हैं - भरत, हेमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत। हिमवान् पर्वत पर जो पद्म सरोवर है उसके पूर्व व पश्चिम भाग से क्रमश: गंगा-सिन्धु नदी निकलती हैं जो नीचे गंगासिन्धु कुण्ड में गिरकर आगे बढ़ती हुई विजयार्ध पर्वत के गुफा-द्वार से बाहर आ जाती हैं और आगे बढ़कर बहती हुई क्रम से पूर्व समुद्र और पश्चिम समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं। भरत क्षेत्र के बीच में पूर्व-पश्चिम लम्बा एक विजयाध पर्वत है। इसमें तीन कटनियां हैं। प्रथम कटनी पर अभियोग्य जाति के देवों का निवास है। दूसरी कटनी पर विद्याधर मनुष्यों का आवास है, और तृतीय कटनी पर ग्यारह कूट हैं जिसमें पूर्व दिशा की तरफ के कूट पर जिनमन्दिर है, शेष कूटों पर देवों के भवन बने हुए हैं। छह खण्ड-व्यवस्था भरत क्षेत्र के बीच में विजया पर्वत के होने से और हिमवान् पर्वत के सरोवर से गंगा-सिन्धु नदियों के निकलने से इस भरत क्षेत्र के छह खण्ड हो जाते हैं। इनमें से समुद्र की तरफ का बीच का भाग आर्य खण्ड कहलाता है, शेष पांच म्लेच्छ खण्ड माने जाते हैं। उत्तर की तरफ मध्य के म्लेच्छ खण्ड के बीचों-बीच में एक वृषाभाचल पर्वत है जिस पर चक्रवर्ती अपनी प्रशस्ति लिखते हैं । मध्य के आर्यखण्ड में ही हम लोगों का निवास है। आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:

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