Book Title: Jainmat me Punarjanma Author(s): Prahlad N Vajpai Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf View full book textPage 2
________________ ताम ण णज्जई अप्पा विसएसु णरो पवट्ठए जाम। विसए विरत्तचित्रों, जोई जाणेइ अप्पाणं॥ जैन मत में कर्म को विजातीय तत्व माना गया है। यह शद्ध आत्मा से अलग है। इसीलिये शुद्ध आत्मा के लिये कर्म का आकर्षण नहीं होता। जिस आत्मा के साथ इसका सम्पर्क है, वही आत्मा कर्म का आकर्षण करता है। कर्म ग्रहण के तीन केंद्र हैं। -मन, वाणी और शरीर। इन तीनों की जो शुभात्मक अवस्था है, वह शुभ कर्म को ग्रहण करती है। कर्म दोनों ही हेय हैं। शुभ और अशुभ दोनों ही के द्वारा संसार होता है। आत्मा का दोनों से अलग होना ही निर्वाण है, मोक्ष है। अज्ञान की गाँठ खुलने का नाम मोक्ष है। लिंग और शरीर वियोजित अवस्था मोक्ष है। मुक्तात्मा का पुनर्जन्म नहीं होता। पुराणों और गीता में कहा भी गया है पुनर्जन्म ने विद्यये। मुक्ति के अभाव में पुनर्जन्म का प्रभाव रुकता नहीं है। उसे रोकना है तो कर्म प्रवाह को रोकना है। कर्म प्रवाह को रोकने की प्रक्रिया है-अशुभ का निरोध और सत् में प्रवर्तन। अशुभ निरोध के पश्चात् शुभ के निरोध का अभ्यास करना। स्वाध्याय और ध्यान शुभ कर्म के संवरण के साधन हैं। इन दोनों के होते हुए पुनर्जन्म को रोका नहीं जा सकता। वह होता है और होता रहेगा। आकार परिवर्तन ही पुनर्जन्म हैं। कुछ ऐसे व्यक्ति भी होते है जिन्हें अपने पूर्व जन्म की स्मृति बनी रहती है। उनके रोचक संस्मरण हमें प्राय: पढ़ने व सुनने को मिलते हैं। जैन आगम साहित्य में पूर्व जन्म की स्मति को जाति स्मति कहा गया है और इस तरह के अनेक व्यक्तियों का उल्लेख हैं. जिन्हें पर्व जन्म की स्मृति थी। आज तो इस संबंध में सभी जगह वैज्ञानिक दृष्टि से खोज की जा रही है। सत्य यह है कि जन्म जन्मातंर का क्रम सृष्टि के आदिकाल से चलता आया है। वर्तमान जन्म पूर्व जन्म से असंबद्ध नहीं है, नहीं रह सकता। आत्मा की अजरता, अमरता और शाश्वतता का मत पूर्व जन्म की धारणा का सशक्त आधार है। गीता में श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा- तू, मैं और ये राजा आदि पहले भी थे, आज भी हैं और भविष्य में भी रहेंगे, प्राण वियोजन से आत्मा का विनाश नहीं होता। विद्वान व्यक्ति नश्वर प्राणों की चिंता नहीं करते। प्राचीन मिस्र के इतिहासवेक्ता होरोडोट्स के अनुसार मिस्री प्रथम जाति है, जिसने इस सिद्धांत को निकाला है कि आत्मा अजन्मा है। यूनानी दार्शनिक बाजल के शब्दों में- पहले आत्मा यमलोक में जाता है, वहां पर उसका न्याय होता है उसके पश्चात् वह पुनः लोट आता है। ____ अफलातून ने कहा था-पशु से उन्नति करते करते मनुष्य योनि मिलती है। सेन्ट अगस्ताइन का विचार था-मेरे अतिरिक्त और ईसाई भी मानते हैं कि क्या माता के गर्भ में आने के पूर्व में विद्यमान नहीं था? वह स्वयं ही उत्तर देता है कि हाँ मैं विद्यमान था। सुप्रसिद्ध उपन्यासकार सर वाल्टर स्काट ने १७ फरवरी, १८२८ को अपनी डायरी में लिखा था - जब मैं भोजन कर रहा था तो मुझे यह विचार उत्पन्न हुआ कि मैं संसार में पहले भी आ चुका हूँ। सुप्रसिद्ध कवि शैले ने भी बादल नामक कविता में आत्मा की अमरता का घोष करते हुए लिखा था - मैं बदल तो सकता हूँ किंतु मर नहीं सकता। (२४५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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