Book Title: Jainmat me Punarjanma Author(s): Prahlad N Vajpai Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf Catalog link: https://jainqq.org/explore/211034/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मत में पुनर्जन्म जैन धर्म आचार प्रधान धर्म है। इसमें सदाचार और अहिंसा को सबसे अधिक महत्व दिया गया है। जैन धर्म में साधारण से साधारण पाप कर्म को महान अपराध का कारण माना जाता है और उसके निवारण के लिये जीवात्मा के अनेक योनियों में जन्म लेने की बात कही गई हैं। श्री प्रहलाद नारायण वाजपेयी पुष्पदंत के “जसहर चरित्र" में महाराज जसहर ( यशोधर) की माता चंद्रमती द्वारा आटे के कुक्कट की बलि देने के कारण भाव हिंसा का अपराध हुआ जिसके फलस्वरूप उन दोनों के मयूर, नेवला, कुत्ता, मत्स्य, बकरी, भैंसा, कुक्कट आदि अनेक योनियों में जन्म लेकर नाना प्रकार के कष्ट भोगने का वर्णन मिलता है। इसी प्रकार जैन मत में कर्म विपाक ही पुनर्जन्म का एकमात्र कारण माना गया है। कर्म सिद्धांत के प्रश्न पर सभी भारतीय दर्शन एक मत प्रतीत होते हैं। न्याय दर्शन के अनुसार पूर्व जन्म में किये गये कर्मों के फलों के अनुरूप ही शरीर की उत्पत्ति होती है । पूर्वकृत फलानुबंधात् तदुत्पत्तिः । इसी प्रकार अन्यत्र कहा गया है कि प्रारब्ध कर्मानुसार ही शरीर की उत्पत्ति और उसके साथ आत्मा का संयोग होता है- शरीरोत्पत्तिनिमितवत् संयोगेत्पत्ति निमितं कर्म । न्याय दर्शन के उक्त कथन जैन कथन की कर्म संबंधी मान्यता के बहुत निकट हैं। जैन मतानुसार जीव इस संसार में कर्म से प्रेरित होकर भ्रमण करता है । पुष्पदंत के अनुसार ब्रह्मा विष्णु तथा महेश भी कर्म से लिप्त रहते हैं। संसार में कर्म विपाक अति बलवान है। जिस प्रकार चुंबक लोहे को अपनी ओर खींचता है उसी प्रकार कर्म भी जीव को अनेक पर्यायों की ओर खींच लेता है । संभुवि बंभुवि कम्मायत कम्मविवाउ लोइ बलवंत । लोहु व कढएण कढिज्जइ जीव सकम्मिं चउगइ णिज्जइ ॥ ( जसहर चरिउ ३ / २२/११-१२) जैन मत कर्म को पुनर्जन्म तथा तज्जन्य नाना प्रकार के दुःखों का मूल मानते हुए सांसारिक विषयादि अशुभ कर्मों के पृथक रहने तथा अपने आत्म स्वरूप को पहचानने की आवश्यकता प्रतिपादित करता है। आचार्य कुंदकुंद के अनुसार जीव जब तक विषयों में फंसा रहता है तब तक आत्मा को नहीं जान पाता । विषयों से विरक्त रहने पर ही वह आत्मा को पहचान सकता है । यथा: । (२४४) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताम ण णज्जई अप्पा विसएसु णरो पवट्ठए जाम। विसए विरत्तचित्रों, जोई जाणेइ अप्पाणं॥ जैन मत में कर्म को विजातीय तत्व माना गया है। यह शद्ध आत्मा से अलग है। इसीलिये शुद्ध आत्मा के लिये कर्म का आकर्षण नहीं होता। जिस आत्मा के साथ इसका सम्पर्क है, वही आत्मा कर्म का आकर्षण करता है। कर्म ग्रहण के तीन केंद्र हैं। -मन, वाणी और शरीर। इन तीनों की जो शुभात्मक अवस्था है, वह शुभ कर्म को ग्रहण करती है। कर्म दोनों ही हेय हैं। शुभ और अशुभ दोनों ही के द्वारा संसार होता है। आत्मा का दोनों से अलग होना ही निर्वाण है, मोक्ष है। अज्ञान की गाँठ खुलने का नाम मोक्ष है। लिंग और शरीर वियोजित अवस्था मोक्ष है। मुक्तात्मा का पुनर्जन्म नहीं होता। पुराणों और गीता में कहा भी गया है पुनर्जन्म ने विद्यये। मुक्ति के अभाव में पुनर्जन्म का प्रभाव रुकता नहीं है। उसे रोकना है तो कर्म प्रवाह को रोकना है। कर्म प्रवाह को रोकने की प्रक्रिया है-अशुभ का निरोध और सत् में प्रवर्तन। अशुभ निरोध के पश्चात् शुभ के निरोध का अभ्यास करना। स्वाध्याय और ध्यान शुभ कर्म के संवरण के साधन हैं। इन दोनों के होते हुए पुनर्जन्म को रोका नहीं जा सकता। वह होता है और होता रहेगा। आकार परिवर्तन ही पुनर्जन्म हैं। कुछ ऐसे व्यक्ति भी होते है जिन्हें अपने पूर्व जन्म की स्मृति बनी रहती है। उनके रोचक संस्मरण हमें प्राय: पढ़ने व सुनने को मिलते हैं। जैन आगम साहित्य में पूर्व जन्म की स्मति को जाति स्मति कहा गया है और इस तरह के अनेक व्यक्तियों का उल्लेख हैं. जिन्हें पर्व जन्म की स्मृति थी। आज तो इस संबंध में सभी जगह वैज्ञानिक दृष्टि से खोज की जा रही है। सत्य यह है कि जन्म जन्मातंर का क्रम सृष्टि के आदिकाल से चलता आया है। वर्तमान जन्म पूर्व जन्म से असंबद्ध नहीं है, नहीं रह सकता। आत्मा की अजरता, अमरता और शाश्वतता का मत पूर्व जन्म की धारणा का सशक्त आधार है। गीता में श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा- तू, मैं और ये राजा आदि पहले भी थे, आज भी हैं और भविष्य में भी रहेंगे, प्राण वियोजन से आत्मा का विनाश नहीं होता। विद्वान व्यक्ति नश्वर प्राणों की चिंता नहीं करते। प्राचीन मिस्र के इतिहासवेक्ता होरोडोट्स के अनुसार मिस्री प्रथम जाति है, जिसने इस सिद्धांत को निकाला है कि आत्मा अजन्मा है। यूनानी दार्शनिक बाजल के शब्दों में- पहले आत्मा यमलोक में जाता है, वहां पर उसका न्याय होता है उसके पश्चात् वह पुनः लोट आता है। ____ अफलातून ने कहा था-पशु से उन्नति करते करते मनुष्य योनि मिलती है। सेन्ट अगस्ताइन का विचार था-मेरे अतिरिक्त और ईसाई भी मानते हैं कि क्या माता के गर्भ में आने के पूर्व में विद्यमान नहीं था? वह स्वयं ही उत्तर देता है कि हाँ मैं विद्यमान था। सुप्रसिद्ध उपन्यासकार सर वाल्टर स्काट ने १७ फरवरी, १८२८ को अपनी डायरी में लिखा था - जब मैं भोजन कर रहा था तो मुझे यह विचार उत्पन्न हुआ कि मैं संसार में पहले भी आ चुका हूँ। सुप्रसिद्ध कवि शैले ने भी बादल नामक कविता में आत्मा की अमरता का घोष करते हुए लिखा था - मैं बदल तो सकता हूँ किंतु मर नहीं सकता। (२४५) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म और मृत्यु तो जीव का धर्म है। कोई भी प्राणी क्यों न हो, जन्मता और मरना स्वीकार करना उसकी अपनी विवशता है। इसमें चिंतन धारा अथवा धार्मिकता का प्रकार बाधक नहीं बन सकता। जब तक कर्म बंध बना रहेगा तब तर पुनर्जन्म का क्रम भी चलता रहेगा। यह किसी धर्म विशेष को स्वीकार करने से बदलने वाला नहीं है। आत्मा और कर्मों का अटूट संबंध है जिसे जैन धर्म में एक क्षेत्रावगाह संबंध कहा जाता है। संयोग तो अस्थायी होता है। आत्मा के साथ कर्म संयोग भी अस्थायी है। इसका विघटन भी संभव है। कर्मों के संबंध के विघटन का उपाय जैन धर्म में तप बताया गया है। तप का प्रारंभ भीतर से होता है। बाह्य तपों को जैन शास्त्रों में महत्व नहीं दिया गया। आंतरिक तप की वृद्धि के लिये जो बाह्य तप अनिवार्य हैं, वे स्वत: ही हो जाते हैं। तपों का जो अंतिम भेद ध्यान है वहीं कर्म नाश का कारण यह ध्यान उन्हीं से प्राप्त होता है जिनका आत्मोपयोग शुद्ध है। शुद्धोपयोग ही मुक्ति की साक्षात् कारण है अथवा मुक्ति का स्वरूप है। आत्मा की पाप और पुण्य रूप प्रवृत्तियाँ उसे संसार की ओर खींचती हैं। जब इन प्रवृत्तियों से वह उदासीन हो जाता है तब नये कर्मों का आना रुक जाता है। इसे जैन मत में संवर कहा जाता है। संवर हो जाने पर जो पूर्व संचित कर्म हैं, वे अपना रस देकर आत्मा से अलग हो जाते है और नये कर्म आते नहीं, तब आत्मा की मुक्ति हो जाती है। कर्मों के विनाश का अर्थ है - सतो नात्यन्त संक्षयः। (आप्त परीक्षा) नैवासतो जन्म सतो न नाशो दीपस्तमः पुद्गलभावतोऽस्ति। (स्वम्भू स्तोत्र) तप निर्जरा द्वारा जीव अनावृत्त होकर परमशुद्ध एवं निर्मल हो जाता है। वह अपने प्राकृत गुणों में दीप्तिमान हो जाता है। निरंतर आराधना तथा तल्लीनता द्वारा वह परमात्मपद को प्राप्त कर मोक्ष के चरम बिंदु पर स्थिर हो जाता है। मोक्ष हो जाने पर आत्मा को पुनर्जन्म अथवा जन्मांतरण नहीं व्यापता। साहित्य संस्थान राजस्थान विद्यापीठ उदयपुर (246) *