Book Title: Jaindarshan me Sat ka Swarup
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 2
________________ ९८ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ और द्रव्य के, स्थानांग में अस्तिकाय और पदार्थ के, ऋषिभाषित, व्यापकता की दृष्टि से तत्त्व की अपेक्षा पदार्थ और पदार्थ की अपेक्षा समवायांग और भगवती में अस्तिकाय के उल्लेख मिलते हैं। कुंदकुंद द्रव्य अधिक संकुचित है। तत्त्वों में पदार्थ का और पदार्थों में द्रव्य का ने अर्थ, पदार्थ, तत्त्व, द्रव्य और अस्तिकाय-इन सभी शब्दों का प्रयोग समावेश होता है। सत् शब्द को इससे भी अधिक व्यापक अर्थ में किया है। इससे यह ज्ञात होता है कि जैन आगमयुग में तो विश्व के प्रयोग किया गया है। वस्तुत: जो भी अस्तित्ववान् है, वह सत् के मूलभूत घटकों के लिए अस्तिकाय, तत्त्व, द्रव्य और पदार्थ शब्दों का अन्तर्गत आ जाता है। अत: सत् शब्द, तत्त्व, पदार्थ, द्रव्य आदि शब्दों प्रयोग होता था। 'सत्' शब्द का प्रयोग आगम युग में नहीं हुआ। की अपेक्षा भी अधिक व्यापक अर्थ का सूचक है। उमास्वाति ही ऐसे आचार्य हैं जिन्होंने आगमिक द्रव्य, तत्त्व और उपर्युक्त विवेचन से एक निष्कर्ष यह भी निकाला जा सकता अस्तिकाय शब्दों के साथ-साथ द्रव्य के लक्षण के रूप में 'सत्' शब्द है कि जो दर्शनधारायें अभेदवाद की ओर अग्रसर हुईं उनमें 'सत्' शब्द का प्रयोग किया है। वैसे अस्तिकाय शब्द प्राचीन और जैन दर्शन का की प्रमुखता रही जबकि जो धारायें भेदवाद की ओर अग्रसर हुईं उनमें अपना विशिष्ट परिभाषिक शब्द है। यह अपने अर्थ की दृष्टि से सत् के 'द्रव्य' शब्द की प्रमुखता रही। निकट है, क्योंकि दोनों ही अस्तित्व लक्षण के ही सूचक हैं। तत्त्व, जहाँ तक जैन दर्शनिकों का प्रश्न है उन्होंने सत् और द्रव्य द्रव्य और पदार्थ शब्द के प्रयोग सांख्य और न्याय-वैशेषिक दर्शनों में में एक अभिन्नता सूचित की है। तत्त्वार्थभाष्य में उमास्वाति ने 'सत् द्रव्य भी मिलते हैं। लक्षणं' कहकर दोनों में अभेद स्थापित किया है फिर भी हमें यह स्मरण तत्त्वार्थसूत्र (५/२९) में उमास्वाति ने भी द्रव्य और सत् रखना चाहिये कि जहाँ 'सत्' शब्द एक सामान्य सत्ता का सूचक है वहाँ दोनों को अभिन्न बताया है। यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि सत, 'द्रव्य' शब्द विशेष सत्ता का सूचक है। जैन आगमों के टीकाकार परमार्थ, परम तत्त्व और द्रव्य सामान्य दृष्टि से पर्यायवाची होते हुए भी अभयदेवसूरि ने और उनके पूर्व तत्त्वार्थभाष्य (१/३५) में उमास्वाति ने विशेष दृष्टि एवं अपने व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ की दृष्टि से भिन्न-भिन्न हैं। 'सर्व एकं सद् विशेषात्' कहकर सत् शब्द से सभी द्रव्यों के सामान्य वेद, उपनिषद् और उनसे विकसित वेदान्त दर्शन की विभिन्न दार्शनिक लक्षण अस्तित्व को सूचित किया है। अत: यह स्पष्ट है कि सत् शब्द धाराओं में सत् शब्द प्रमुख रहा है। ऋग्वेद में स्पष्ट उल्लेख है कि अभेद या सामान्य का सूचक है और द्रव्य शब्द विशेष का। यहाँ हमें "एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति" अर्थात् सत् (परम तत्त्व) एक ही है- यह भी स्मरण रखना चाहिये कि जैन दार्शनिकों की दृष्टि में सत् और विप्र (विद्वान) उसे अनेक रूप से कहते हैं। किन्तु दूसरी ओर स्वतन्त्र द्रव्य शब्द में तादात्म्य सम्बन्ध है। सत्ता की अपेक्षा वे अभिन्न हैं; उन्हें चिन्तन के आधार पर विकसित दर्शन परम्पराओं-विशेष रूप से वैशेषिक एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है। क्योंकि सत् अर्थात् दर्शन में द्रव्य शब्द प्रमुख रहा है। ज्ञातव्य है कि व्युत्पत्तिपरक अर्थ की अस्तित्व के बिना द्रव्य भी नहीं हो सकता। दूसरी ओर द्रव्य (सत्तादृष्टि से सत् शब्द अस्तित्व का अथवा प्रकारान्तर से नित्यता या विशेष) के बिना सत् की कोई सत्ता ही नहीं होगी। अस्तित्व (सत्) के अपरिवर्तनशीलता का एवं द्रव्य शब्द परिवर्तनशीलता का सूचक है। बिना द्रव्य और द्रव्य के बिना अस्तित्व नहीं हो सकते। अस्तित्व या सांख्यों एवं नैयायिकों ने इसके लिए तत्त्व शब्द का प्रयोग किया है। सत्ता की अपेक्षा से तो सत् और द्रव्य दोनों अभिन्न हैं। यही कारण है यद्यपि यहाँ यह स्मरण रखना चाहिये कि न्यायसूत्र के भाष्यकार ने कि उमास्वाति ने सत् को द्रव्य का लक्षण कहा था। स्पष्ट है कि लक्षण प्रमाण आदि १६ तत्त्वों के लिए सत् शब्द का प्रयोग भी किया है फिर और लक्षित भिन्न-भिन्न नहीं होते हैं। भी इतना स्पष्ट है कि न्याय और वैशेषिक दर्शन में क्रमश: तत्त्व और वस्तुत: सत् और द्रव्य दोनों में उनके व्युत्पत्तिपरक अर्थ की द्रव्य शब्द ही अधिक प्रचलित रहे हैं। सांख्य दर्शन भी प्रकृति और अपेक्षा से ही भेद है, अस्तित्व या सत्ता की अपेक्षा से भेद नहीं है। हम पुरुष इन दोनों को तथा इनसे उत्पन्न बुद्धि, अहंकार, पाँच ज्ञानेन्द्रियों, उनमें केवल विचार की अपेक्षा से भेद कर सकते हैं, सत्ता की अपेक्षा पाँच कर्मेन्द्रियों, पंच तन्मात्राओं और पंच महाभूतों को तत्त्व ही कहता से नहीं। सत् और द्रव्य अन्योन्याश्रित है, फिर भी वैचारिक स्तर पर है। इस प्रकार स्वतन्त्र चिन्तन के आधार पर विकसित इन दर्शन हमें यह मानना होगा कि सत् ही एक ऐसा लक्षण है जो विभिन्न द्रव्यों परम्पराओं में तत्त्व, पदार्थ, अर्थ और द्रव्य का प्रयोग प्रमुख रूप से में अभेद की स्थापना करता है, किन्तु हमें यह भी ध्यान रखना चाहिये हुआ है। सामान्यतया तो तत्त्व, पदार्थ, अर्थ और द्रव्य शब्द पर्यायवाची कि सत् द्रव्य का एकमात्र लक्षण नहीं है। द्रव्य में अस्तित्व के अतिरिक्त रूप में प्रयुक्त होते हैं किन्तु इनमें अपने तात्पर्य को लेकर भिन्नता भी अन्य लक्षण भी हैं, जो एक द्रव्य को दूसरे से पृथक् करते हैं। अस्तित्व मानी गयी हैं। तत्त्व शब्द सबसे अधिक व्यापक है उसमें पदार्थ और लक्षण की अपेक्षा से सभी द्रव्य एक हैं किन्तु अन्य लक्षणों की अपेक्षा द्रव्य भी समाहित है। न्याय दर्शन में जिन तत्त्वों को माना गया है उनमें से वे एक-दूसरे से पृथक् भी हैं। जैसे चेतना लक्षण जीव और अजीव द्रव्य का उल्लेख प्रमेय के अन्तर्गत हुआ है। वैशेषिकसूत्र में द्रव्यगुण, में भेद करता है। सत्ता में सत् लक्षण की अपेक्षा से अभेद और अन्य कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय ये षट् पदार्थ और प्रकारान्तर से लक्षणों से भेद मानना यही जैन दर्शन की अनेकान्तिक दृष्टि की अभाव को मिलाकर सात पदार्थ कहे जाते हैं। इनमें भी द्रव्य, गुण और विशेषता है। कर्म इन तीन की ही अर्थ संज्ञा है। अत: सिद्ध होता है कि अर्थ की अर्ध-मागधी आगम स्थानांग और समवायांग में जहाँ अभेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7