Book Title: Jainagamo me Shravak Dharm Author(s): Hastimal Acharya Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf View full book textPage 3
________________ • श्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. (३) मिथ्यात्व (१) अज्ञान ( २ ) निद्रा (४) अविरति ( ५ ) राग (६) द्व ेष ( ७ ) हास्य ( ८ ) रति ( 8 ) अरति (१०) भय ( ११ ) शोक (१२) जुगुप्सा (१३) काम (१४) दानान्तराय (१५) लाभान्तराय (१६) भोगान्तराय ( १७ ) उपभोगान्तराय और (१८) वीर्यान्तराय । कुछ आचार्य अठारह दोषों में 'कवलाहार' को एक मानकर केवली भगवान् के 'कवलाहार नहीं मानते, पर आहार का सम्बन्ध शरीर से है, वह 'गमनागमन' और श्वास की तरह शरीर-धर्म होने से आत्म गुण का घातक नहीं बनता, अतः यहाँ उसका ग्रहण नहीं किया गया । इस प्रकार अठारह दोष रहित, बारह गुण सहित, ग्ररिहंत देव ही आराध्य हैं । देव त्यागी, विरागी एवं वीतराग हैं, अत: त्याग, विराग और वीतराग भाव की ओर बढ़ना एवं तदनुकूल करणी करना ही उनकी सच्ची भक्ति हो सकती है, जैसा कि सन्तों ने कहा है • २६७ ध्यान धूपं मनः पुष्पं, पंचेन्द्रिय-हुताशनं । क्षमा जाप संतोष पूजा, पूजो देव निरंजनं ॥ २. गुरु सेवा : दूसरा कर्म गुरुसेवा है । " जावज्जीवं सुसाहुगो गुरुणो" के अनुसार श्रावक, आरंभ-परिग्रह के त्यागी, सम्यक्ज्ञानी, मुनि एवं महासतियों को ही गुरु मानता है । सच्चे संत छोटी-बड़ी किसी प्रकार की हिंसा करते नहीं, करवाते नहीं, करने वाले को भला भी समझते नहीं । इस प्रकार वे झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह के भी तीन करण, तीन योग से सर्वथा त्यागी होते हैं । श्रावक प्रतिदिन ऐसे गुरुजनों के दर्शन व वंदन कर उपदेश ग्रहण करते हैं और उनके संयम गुण के रक्षण व पोषण हित वस्त्र, पात्र, ग्राहार, औषध एवं शास्त्रादि दान से सेवा-भक्ति करते हैं । जैसा कि उपासक दशांग सूत्र में आनन्द श्रावक ने कहा, "कप्पर में समणे निग्गंथे फासूय- एसणिज्जेणं असण, पाण, खाइम, साइम, वत्थ, पंडिग्गह, कंवल, पाय पुंच्छणेणं, पीढ, फलग, सिज्जा, संथारएणं, प्रोसहभे सज्जेणं, पडिलाभेमाणस्स विहरिन्तए” अर्थात् मुझे श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रासुक और निर्दोष अशनादि चारों आहार, वस्त्र, पात्र, कंवल, पादपोंछन, पीठ, फलक, शैया, संस्तारक और Jain Educationa International - भैषज से प्रतिलाभ देते हुए विचरण करना योग्य है । अन्य तीर्थ के देव या अन्य तीर्थ- परिगृहीत चैत्य का वंदन - नमस्कार करना योग्य नहीं, वैसे ही उनके पहले बिना बतलाये उनसे प्रालाप-संलाप करना तथा उनको (गुरुत्रों को ) शनादि देना नहीं कल्पता । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10