Book Title: Jainagamo me Shravak Dharm Author(s): Hastimal Acharya Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf View full book textPage 6
________________ . ३०० • व्यक्तित्व एवं कृतित्व राज-भण्डार में भी चला जाय, तो अविश्वास का कोई प्रश्न ही नहीं उठता । यही अचौर्य व्रत की महिमा है। ४. स्वदार संतोष परदार विवर्जन व्रत : इसके अनुसार गृहस्थ परस्त्री का त्यागी होता है। पाणिगृहीत स्त्री और पुरुष अपने क्षेत्र में मर्यादाशील होते हैं। वह भोग को आत्मिक दुर्बलता समझकर शनैः शनैः अभ्यासबल से काम वासना पर विजय प्राप्त करना चाहता है । यह यथाशक्य ऐसे आहार, विहार और वातावरण में रहना पसंद करता है, जहाँ वासना को प्रोत्साहन नहीं मिलता है। हस्त-मैथुन, अनंग-क्रीड़ा, अश्लील नृत्य गान और नग्न चित्रपटों से रुचि रखना इस व्रत के दूषण माने गये हैं। श्रावक नसबंदी जैसे कृत्रिम उपयोगों से संततिनिरोध को इष्ट नहीं मानता। वह इन्द्रिय-संयम द्वारा गर्भ-निरोध को ही स्वपरहितकारी मानता है। ५. इच्छा परिमाण व्रत : इस व्रत में श्रावक हिरण्य-सुवर्ण-भूमि और पशुधन का परिमाण कर तृष्णा की बढ़ती आग को घटाता है। वह धन को शरीर की भौतिक आवश्यकता पूर्ति का साधन मात्र मानता है। जीवन का साध्य धन नहीं, धर्म है। अत: धनार्जन में धर्म और नीति को भूलकर तन मन से अस्वस्थ हो जाना बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं कहा जाता। वृद्ध और दुर्बल को लाठी की तरह गृहस्थ को धन का सहारा है । लाठी चलने में मदद के लिए है, पर वह पैरों में टकराने लगे तो कुशल पथिक उसे वहीं छोड़ देगा। श्रावक इसी भावना से परिग्रह का परिमाण करता है। आनन्द ने भगवान के पास हिरण्य सुवर्ण, चतुष्पद और भूमि का परिमाण किया था। वर्तमान में जो सम्पदा थी, उन्होंने उसको सीमित कर इच्छा पर नियंत्रण किया। परिणाम स्वरूप करोड़ों की संपदा होकर भी उनका मन शांत था। समय पाकर उन्होंने प्राप्त सम्पदा से किनारा कर एकान्त साधन किया और निराकुल भाव से अवधिज्ञान की ज्योति प्राप्त की। इस प्रकार परिग्रह का परिमाण करना इस व्रत का लक्ष्य है। ६. दिग्व्रत : अहिंसादि मूल व्रतों की रक्षा एवं पुष्टि के लिए दिग्वत, भोगोपभोग परिमारण और सामायिक आदि शिक्षाव्रतों की आवश्यकता होती है। जितना जिसका देश-देशान्तर में भ्रमण होगा, उतना ही उसका प्रारम्भ-परिग्रह भी बढ़ता रहेगा अतः इस व्रत में गृहस्थ के भ्रमण को सीमित किया गया है। सारंभी गहस्थ जहाँ भी पहँचेगा, प्रारंभ का क्षेत्र भी उतना ही विस्तृत होगा। अतः श्रावक को पूर्व आदि छहों दिशा में आवश्यकतानुसार क्षेत्र रखकर आगे का भ्रमण छोड़ना है। इस प्रकार दिशा-परिमाण लालसाओं को कम करने का प्राथमिक प्रयोग है। For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.orgPage Navigation
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