Book Title: Jainagam me Bharatiya Shiksha ke Mulya Author(s): Dulichand Jain Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf View full book textPage 3
________________ जैन संस्कृति का आलोक हमारे मस्तिष्क में भर दिये जायें और जो वहां निरंतर जमे हुए रहते हैं, हमें जीवन का निर्माण, मनुष्यता का निर्माण व चरित्र का निर्माण करनेवाले विचारों की आवश्यकता है।' उन्होंने आगे पुनः कहा कि हमें ऐसी शिक्षा चाहिए जो चरित्र को ऊँचा उठाती है, जिससे मन की शक्तियां बढ़ती है और जिससे बुद्धि का विकास होता है ताकि व्यक्ति अपने पैरों पर स्वयं खडा हो सके। जीवन का सर्वांगीण विकास उपरोक्त विचेचन से यह कदापि नहीं समझना चाहिए कि भारतीय शिक्षा ने जीवन के भौतिक अंगों की उपेक्षा कर दी, ऐसी बात नहीं है। हमारे यहाँ शास्त्रों में जीवन का समग्र अंग लिया गया है अर्थात् मनुष्य के शरीर, मन, बुद्धि व आत्मा का पूर्ण विकास करना शिक्षा का उद्धेश्य है। चतुर्विध पुरुषार्थ मनुष्य जीवन के सम्पूर्ण विकास की उद्भावना है। इसको स्पष्ट करने के लिए हम एक नदी का उदाहरण लें। अगर नदी के दोनों किनारें, दोनों तटबंध मजबूत होते हैं तो उस नदी का पानी पीने के, सिंचाई के, उद्योग-धंधों आदि के काम आता है, उससे जन-जीवन समृद्ध होता है। लेकिन जब उसके किनारे कमजोर पड़ जाते हैं तो नदी बाढ का रूप धारण कर लेती है और तब वही पानी अनेक गाँवों को जलमग्न कर देता है, अनेक मनुष्य और पशु उसमें बह जाते हैं, भयंकर त्राही-त्राही मच जाती है। इसी प्रकार मनुष्य का जीवन धर्म और मोक्ष के दो किनारों की तरह है, इन दो तटों की मर्यादा में अर्थ और काम का सेवन किया जाये तो मनुष्य का जीवन स्वयं के लिए एवं अन्यों के लिए भी उपयोगी और कल्याणकारी सिद्ध होता है। हमारे यहाँ पर जगत और जीवन की उपेक्षा नहीं की गई, लेकिन संयममय, मर्यादानुकूल जीवन के व्यवहार पर जोर दिया गया है। हमारे यहाँ पर पारिवारिक जीवन में इसी धर्म भावना को विकसित करने को कहा गया। शास्त्रों में पत्नी को “धर्मपत्नी" कहा गया जो धर्म भावना को बढ़ानेवाली होती है। वह वासना की मूर्ति नहीं है। आगम में पत्नी के बारे में बड़ा सुन्दर वर्णन आता है “भारिया धम्मसहाइया, धम्मविइज्जिया। धम्माणु रागरत्ता, समसुहदुक्ख सहाइया।।” अर्थात् पत्नी धर्म में सहायता करनेवाली, साथ देनेवाली, अनुरागयुक्त तथा सुख-दुःख को समान रूप में बंटानेवाली होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि हम दुनियां की सभी सूचनाएँ प्राप्त करें, विज्ञान व भौतिक जगत् का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करें, सारी उपलब्धियां प्राप्त करें लेकिन इन सबके साथ धर्म के जीवन - मूल्यों की उपेक्षा नहीं करें। उस स्थिति में विज्ञान भी विनाशक शक्ति न होकर मानव जाति के लिए कल्याणकारी सिद्ध होगा। तीन प्रकार के आचार्य राजप्रश्नीय सूत्र में तीन प्रकार के आचार्यों का उल्लेख मिलता है - कलाचार्य, शिल्पाचार्य और धर्माचार्य। कलाचार्य जीवनोपयोगी ललित कलाओं, विज्ञान व सामाजिक ज्ञान जैसे विषयों की शिक्षा देता था। भाषा और लिपि, गणित, भूगोल, खगोल, ज्योतिष, आयुर्वेद, संगीत और नृत्य-इन सबकी शिक्षाएं कलाचार्य प्रदान करता था। जैनागमों में पुरुष की ६४ और स्त्री की ७२ कलाओं का विवरण मिलता है। दूसरी प्रकार की शिक्षा शिल्पाचार्य देते थे जो आजीविका या धन के अर्जन से संबंधित थी। शिल्प, उद्योग व व्यापार से संबंधित सारे कार्यों की शिक्षा १. स्वामी विवेकानंद संचयन भाग ३ पृष्ठ ३०२ २. स्वामी विवेकानंद संचयन भाग ५ पृष्ठ ३४२ ३. उपासकदशांग सूत्र ७/२२/७ | जैनागम में भारतीय शिक्षा के मूल्य १८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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