Book Title: Jainagam Dharm me Stup Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 2
________________ जैनागम-धर्म में स्तूप पुनः हमें स्थानांगसूत्र में नन्दीश्वर द्वीप के वर्णन प्रसंग में चैत्यस्तूप और चैत्यवृक्ष का उल्लेख मिलता है। मथुरा में आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के अनुसार, महावीर के गर्भापहरण का चित्रण भी मिलता है, अतः मथुरा का स्तूप आचारांग का परवर्ती है। उसमें वर्णित चैत्यस्तूप और चैत्यवृक्ष जैन परम्परा से सम्बन्धित हैं, साथ ही उस समय तक न केवल चैत्यस्तूप बनने लगे थे, अपितु उस पर जिनमूर्तियों की स्थापना होने लग गयी थी। स्थानांगसूत्र में जैन चैत्यस्तूपों का निम्न उल्लेख प्राप्त होता है'नन्दीश्वरद्वीप के ठीक मध्य में चारों दिशाओं में चार अञ्जन पर्वत हैं वे अञ्जन पर्वत नीचे दस हजार योजन विस्तृत हैं, किन्तु क्रमशः उनका ऊपरी भाग एक हजार योजन चौडा है। उन अञ्जन पर्वतों के ऊपर अत्यन्त समतल और रमणीय भूमि भाग है। उस सम भूमि-भाग के मध्य में चारों ही अञ्जन पर्वतों पर चार सिद्धायतन अर्थात् जिन मन्दिर हैं। प्रत्येक जिन मन्दिर की चारों दिशाओं में चार द्वार हैं। इन चारों द्वारों के आगे चार मुखमण्डप हैं। उन मुखमण्डपों के आगे चार प्रेक्षागृह या रंगशाला मण्डप हैं। पुनः उन प्रेक्षागृहों के आगे मणिपीठिकाएं हैं। उन मणिपीठिकाओं पर चैत्यस्तूप है प्रत्येक चैत्यस्तूप पर चारों दिशाओं में चार मणिपीठिकाएँ हैं और उन चार मणिपीठिकाओं पर चार जिन प्रतिमाएँ हैं। वह सब रत्नमय, Jain Education International - पकासन (पद्मासन) की मुद्रा में अवस्थित हैं। पुनः चैत्यस्तूपों के आगे चैत्यवृक्ष हैं। उन चैत्यवृक्षों के आगे मणिपीठिकाओं पर महेन्द्रध्वज हैं। उन महेन्द्रध्वजों के आगे पुष्करिणियों हैं और उन पुष्करिणियों के आगे वनखण्ड है। १६ इस सब वर्णन से ऐसा लगता है कि स्थानांग के रचनाकाल तक सुव्यवस्थित रूप से मन्दिरों के निर्माण की कला का भी विकास हो चुका था और उन मन्दिरों में चैत्य- स्तूप बनाये जाते थे ओर उन चैत्य- स्तूपों पर पीठिकाएँ स्थापित करके जिन प्रतिमाएँ भी स्थापित की गई थीं। परवर्ती काल में बौद्ध परम्परा में भी हमें स्तूपों की चारों दिशाओं में बुद्ध प्रतिमाएं होने के उल्लेख मिलते हैं स्थानांग एक संग्रह ग्रन्थ है और उनमें ईसा पूर्व से लेकर ईसा की चौथी शताब्दी तक की सामग्री संकलित है। प्रस्तुत सन्दर्भ किस काल का है यह कहना तो कठिन है, किन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि वह लगभग ईसा की प्रथम शताब्दी का होगा, क्योंकि तब तक जिन मन्दिर और जिन स्तूप बनने लगे थे। उसमें वर्णित स्तूप जैन परम्पर से सम्बन्धित हैं । यद्यपि यह विचारणीय है कि मथुरा के एक अपवाद को छोड़कर हमें किसी भी जैन स्तूप के पुरातात्त्विक अवशेष नहीं मिले हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से विश्वसनीय जैन- स्तूपों के साहित्यिक उल्लेख भी नगण्य हैं। - - समवायांग एवं जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति में हमें चैत्यस्तूप के स्थान पर चैत्यस्तम्भ का उल्लेख मिलता है, साथ ही इन स्तम्भों में जिन अस्थियों को रखे जाने का भी उल्लेख है। १७ अतः चैत्य-स्तम्भ चैत्य- स्तूप का ही एक विकसित रूप है। जैन परम्परा में चैत्यस्तूपों की अपेक्षा चैत्यस्तम्भ बने, जो आगे चलकर मानस्तम्भ के रूप में बदल गये। आदिपुराण में मानस्तम्भ का स्पष्ट उल्लेख है। १८ जैनधर्म की दिगम्बर परम्परा में आज श्री मन्दिरों के आगे मानस्तम्भ बनाने का प्रचलन है। शेष अंग-आगमों में भगवती सूत्र, ज्ञाताधर्मकथा और उपासकदशांग में हमें चैत्य- स्तूपों ७१३. के उल्लेख तो उपलब्ध नहीं होते हैं, किन्तु अरिहंत चैत्य का उल्लेख अवश्य मिलता है। १९ यद्यपि ज्ञाताधर्मकथा में स्तृपिका (यूभिआ) का उल्लेख अवश्य है। २० इतना निश्चित है कि इन आगमों के रचनाकाल तक जैन परम्परा में जिन प्रतिमाओं और जिन मन्दिरों का विकास हो चुका था। पुन: दसवें अंग आगम प्रश्नव्याकरण में स्तूप शब्द का उल्लेख मिलता है, किन्तु उसमें उल्लिखित स्तूप जैन परम्परा का स्तूप नहीं है। सम्भवतः यहाँ ही हमें स्वतन्त्र रूप से स्तूप शब्द मिलता है, क्योंकि इसके पूर्व सर्वत्र चैत्य- स्तूप (चेइय-धूभ) शब्द का प्रयोग मिलता है। ज्ञातव्य है कि प्रश्नव्याकरण का वर्तमान में उपलब्ध संस्करण आगमों के लेखनकाल के बाद सम्भवतः ७वीं शताब्दी की रचना है। जैनधर्म में परवर्तीकाल में स्तूप परम्परा पुनः लुप्त होने लगी थी जैनधर्म में न तो प्रारम्भ में स्तूप निर्माण और स्तूप पूजा की परम्परा थी और न परवर्ती काल में ही वह जीवित रही। मुझे तो ऐसा लगता है कि ईसा पूर्व की द्वितीय एवं प्रथम शताब्दी से लेकर ईसा की पाँचवीं शताब्दी तक बौद्धपरम्परा के प्रभाव के कारण ही जैन परम्परा में स्तूप निर्माण और स्तूप पूजा की अवधारणा विकसित हुई होगी, जो बौद्धों के पतन काल अर्थात् सातवी-आठवीं शताब्दी के पश्चात् पुनः लुप्त हो गई, क्योंकि हमें आठवीं शताब्दी के पश्चात् की जैन रचनाओं में केवल उन आगम ग्रन्थों की टीकाओं तथा मथुरा एवं वैशाली के ऐतिहासिक विवरण देने वाले ग्रन्थों को छोड़कर, जिनमें स्तूप शब्द आया है, कहीं भी जिन स्तूपों का उल्लेख नहीं मिलता है। १४वीं शताब्दी तक के जैन साहित्य में मथुरा में जैन स्तूपों के अस्तित्व के संकेत उपलब्ध हैं। उपाङ्ग साहित्य में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में हमें तीर्थंकर गणधर और विशिष्ट मुनियों की चिताओं पर चैत्यस्तूप बनाने के उल्लेख भी मिलते हैं। ऐसे उल्लेख आवश्यकनियुक्ति में भी उपलब्ध २१ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और आवश्यकनियुक्ति निश्चित ही आगमों के लेखनकाल अर्थात् ईसा की छठी शताब्दी के पूर्व की रचना है। इन सबसे हमारी उस मान्यता की पुष्टि होती है, जिसके अनुसार ईसा पूर्व की द्वितीय एवं प्रथम शताब्दी से लेकर ईसा की प्रथम पाँच शताब्दियों में ही जैन परम्परा में स्तूप निर्माण और स्तूप पूजा की परम्परा रही और बाद में वह क्रमशः विलुप्त होती गई। यद्यपि चैत्य-स्तम्भों एवं चरण-चिह्नों के निर्माण की परम्परा वर्तमान युग तक जीवित चली आ रही है। इस आधार पर हम यह निष्कर्ष भी निकाल सकते हैं कि चैत्य- स्तूपों के निर्माण और उनकी पूजा की परम्परा जैनों की अपनी मौलिक परम्परा नहीं थी, अपितु वह लौकिक परम्परा का प्रभाव था। वस्तुतः स्तूप निर्माण और स्तूप पूजा की परम्परा महावीर और बुद्ध से पूर्ववर्ती एक लोकपरम्परा रही है जिसका प्रभाव जैन और बौद्ध दोनों पर पड़ा। सम्भवतः पहले बौद्धों ने उसे अपनाया और बाद में जैनों ने जैनागम साहित्य में मुझे किसी भी ऐतिहासिक जैन स्तूप का उल्लेख देखने में नहीं आया। जैन साहित्य में जिन स्तूपों का उल्लेख है, उनमें व्यवहारचूर्णि में उल्लिखित मथुरा एवं आवश्यकचूर्णि में उल्लिखित वैशाली के स्तूप को छोड़कर देव-लोक (स्वर्ग), नन्दीश्वरद्वीप एवं अष्टापद (कैलाशपर्वत) आदि पर निर्मित स्तूपों For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.Page Navigation
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