Book Title: Jainagam Dharm me Stup
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम-धर्म में स्तूप जैनागमों में स्तूप एवं स्तूप-मह का सर्वप्रथम उल्लेख हमें होता था, तो यह चैत्य-स्तूप कहलाता था। वाचस्पत्यम् में मुखरहित आचारांग सत्र के द्वितीय श्रुत-स्कन्ध (आयारचूला) के तृतीय एवं चतुर्थ छत्राकार के यक्षायतनों के लिय चैत्य शब्द का भ अध्ययनों में मिलता है। आचारांग के पश्चात् अंग आगमों मे स्थानांगरे इस स्मृति-चिह्न में मृतात्मा (व्यन्तर) का निवास मानकर पूजा जाता था। और प्रश्नव्याकरण में; उपांग साहित्य में जीवाभिगम, जम्बूद्वीप इस प्रकार विशिष्ट मृत व्यक्ति के स्मारक/स्मृति-चिह्न पूजा-स्थलों के रूप प्रज्ञप्ति; पुन: व्याख्यासाहित्य में हमें आवश्यकनियुक्ति, आवश्यकचूर्णि", में परिवर्तित हो गये और पूजनीय माने जाने लगे। पहले जहाँ व्यक्ति के व्यवहारचूर्णि तथा आचारांग, स्थानांग आदि आगमों की टीकाओं में शव को जलाया जाता होगा, वहाँ चैत्यवृक्ष और चैत्यस्तूप बनते होंगे। स्तूप, चैत्यस्तूप एवं स्तूपमह का उल्लेख मिलता है। आचारांग में स्वतन्त्र आगे चलकर व्यक्ति के किसी शारीरिक अवशेष अर्थात् अस्थि, राख रूप से स्तूप शब्द का प्रयोग न होकर 'चैत्यकृत स्तूप' (थूभं, वा आदि पर चैत्य या स्तूप बनाये जाने लगे। फिर मात्र उन्हें पूजने के लिए चेइयकडं)-इस रूप में प्रयोग हुआ है। यहाँ चेइयकर्ड शब्द के अर्थ को यत्र-तत्र उनके नाम पर चैत्य या स्तूप बने। मूर्तिकला का विकास होने स्पष्ट कर लेना होगा। चेइयकडं शब्द भी दो शब्दों के योग से बना है- पर चैत्य यक्षायतन और सिद्धायतन अर्थात् यक्ष-मन्दिर या जिन-मन्दिर चेइय + कडं। प्रो० ढाकी का कहना है कि कडं शब्द प्राकृत कूड या के रूप में विकसित हुए। ईसा की छठी शताब्दी तक जैन साहित्य में संस्कृत कूट का सूचक है, जिसका अर्थ होता है-ढेर (Heap), विशेष चैत्य शब्द जिन-मन्दिर के अर्थ में भी प्रयुक्त होने लगा था और चैत्यालय, रूप से छत्राकार आकृति का ढेर। इस प्रकार वे "चेइयकर्ड" का अर्थ चैत्यगृह आदि जिन-मन्दिर के पर्यायवाची माने जाने लगे। करते हैं-कूटाकार या छत्राकार चैत्य तथा थूभ को इसका पर्यायवाची मानते किन्तु जहाँ तक आचारांग में प्रयुक्त चैत्यकृत-स्तूप के अर्थ का हैं। किन्तु मेरी दृष्टि में 'चेइयकडं' शब्द थूभ (स्तूप) का विशेषण है, प्रश्न है, उसमें उसका अर्थ है-किसी की स्मृति में उसके चिता-स्थल पर्यायवाची नहीं। चेइयकडं थूभ (चैत्यीकृत स्तूप) का तात्पर्य है-चिता पर अथवा उसके शारीरिक अवशेषों पर निर्मित मिट्टी, ईंटों या पत्थरों या शारीरिक अवशेषों पर निर्मित स्तूप अथवा चिता या शारीरिक अवशेषों की छत्राकार आकृति। प्रारम्भ में स्तूप किसी के चिता-स्थल अथवा अस्थि से सम्बन्धित स्तूप। स्तूप सम्भवत: वे स्तूप जो चिता-स्थल पर बनाये आदि शारीरिक अवशेषों पर निर्मित ईंट या पत्थरों की छत्राकार आकृति जाते थे अथवा जिनमें किसी व्यक्ति के शारीरिक अवशेष रख दिये जाते होता था। चैत्य-स्तूप के साथ-साथ चैत्य-वृक्षों का भी हमें आचारांग में थे, चैत्यीकृत स्तूप कहलाते थे। यहाँ कडं शब्द कूट का वाचक नहीं अपितु उल्लेख मिलता है। प्रथम तो किसी व्यक्ति के दाह-स्थल या समाधि-स्थल कृत का वाचक है। भगवती में कडं शब्द कृत का वाचक है१°। पुन: कडं पर उसकी स्मृति में वृक्षारोपण कर दिया जाता होगा और वही वृक्ष का कूट करने पर 'रुक्खं वा चेइयकडं' का ठीक अर्थ नहीं बैठेगा। “रुक्खं चैत्यवृक्ष कहलाता होगा। यद्यपि आगे चलकर जैन परम्परा में वह वृक्ष वा चेइयकडं" का अर्थ है-चिता-स्थल या अस्थि आदि के ऊपर रोपा भी चैत्यवृक्ष कहलाने लगा, जिसके नीचे किसी तीर्थंकर को केवल ज्ञान गया वृक्ष। चेइयकडं का अर्थ पूजनीय भी किया जा सकता है। प्रो० उत्पन्न होता था। क्रमश: इन चैत्य-वृक्षों एवं चैत्यस्तूपों की श्रद्धावान् उमाकांत शाह ११ ने यह अर्थ किया भी है, किन्तु मेरी दृष्टि में यह परवर्ती सामान्यजनों के द्वारा पूजा की जाने लगी। आचारांग में जिन चैत्य-स्तूपों अर्थ-विकास का परिणाम है। अत: जैन साहित्य में स्तूप शब्द के अर्थ- का उल्लेख है, वे चैत्य-स्तूप जैन परम्परा या जैनधर्म सम्बन्धित हैंविकास को समझने के लिए चैत्य शब्द के अर्थ-विकास को समझना ऐसा कहना कठिन है, क्योंकि उसमें आकार, तोरण, तलगृह, प्रासाद, होगा। संस्कृत कोशों में चैत्य शब्द के पत्थरों का ढेर, स्मारक, समाधि- वृक्षगृह, पर्वत आदि की चर्चा के सन्दर्भ में ही चैत्य-वृक्ष और चैत्यप्रस्तर, यज्ञमण्डल, धार्मिक पूजा का स्थान, वेदी, देवमूर्ति स्थापित करने स्तूपों का उल्लेख हुआ है। साथ ही जैनमुनि को स्तूप आदि को उचकका स्थान, देवालय, बौद्ध और जैन मन्दिर आदि अनेक अर्थ दिये गये उचक कर देखने तथा स्तूपमह अर्थात् स्तूप-पूजा के महोत्सवों एवं मेलों हैं१२। किन्तु ये विभिन्न अर्थ चैत्य शब्द के अर्थ-विकास की प्रक्रिया के में जाने का निषेध किया गया है।१५ स्मरणीय है कि यदि आचारांग के परिणाम हैं। द्वितीय श्रुतस्कन्ध के रचनाकाल तक भी जैन स्तूप होते तो ऐसा सामान्य याज्ञवल्क्यस्मृति में श्मशान-सीमा में स्थित पुण्य-स्थान के रूप निषेध तो नहीं ही किया जाता। मात्र यह कहा जाता कि अन्य तीर्थकों में भी चैत्य शब्द का उल्लेख हुआ है।१३ प्राचीन जैनागमों में भी चिता- के स्तूप एवं स्तूपमह में नहीं जाना चाहिए। इससे यही ज्ञात होता है कि स्थल पर निर्मित स्मारक को चैत्य कहा गया है। किन्हीं विशिष्ट व्यक्तियों आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के रचनाकाल तक जैनेतर परम्पराओं में के चितास्थल पर उनकी स्मृति हेतु चबूतरा बना दिया जाता था, जो चैत्य सामान्य रूप से स्तूप निर्मित होने लगे थे। सम्भवत: आचारांग के द्वितीय कहलाता था। कभी-कभी चबूतरे के साथ-साथ वहाँ वृक्षारोपण कर दिया श्रुतस्कन्ध का रचनाकाल ईसा पूर्व की द्वितीय या तृतीय शताब्दी रहा जाता था, जिसे चैत्यवृक्ष कहा जाता था। यदि यह स्मृति-चिह्न छत्राकार होगा। क्योंकि इसके बाद मथुरा में जैन स्तूप मिलते हैं। अंग साहित्य में Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम-धर्म में स्तूप पुनः हमें स्थानांगसूत्र में नन्दीश्वर द्वीप के वर्णन प्रसंग में चैत्यस्तूप और चैत्यवृक्ष का उल्लेख मिलता है। मथुरा में आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के अनुसार, महावीर के गर्भापहरण का चित्रण भी मिलता है, अतः मथुरा का स्तूप आचारांग का परवर्ती है। उसमें वर्णित चैत्यस्तूप और चैत्यवृक्ष जैन परम्परा से सम्बन्धित हैं, साथ ही उस समय तक न केवल चैत्यस्तूप बनने लगे थे, अपितु उस पर जिनमूर्तियों की स्थापना होने लग गयी थी। स्थानांगसूत्र में जैन चैत्यस्तूपों का निम्न उल्लेख प्राप्त होता है'नन्दीश्वरद्वीप के ठीक मध्य में चारों दिशाओं में चार अञ्जन पर्वत हैं वे अञ्जन पर्वत नीचे दस हजार योजन विस्तृत हैं, किन्तु क्रमशः उनका ऊपरी भाग एक हजार योजन चौडा है। उन अञ्जन पर्वतों के ऊपर अत्यन्त समतल और रमणीय भूमि भाग है। उस सम भूमि-भाग के मध्य में चारों ही अञ्जन पर्वतों पर चार सिद्धायतन अर्थात् जिन मन्दिर हैं। प्रत्येक जिन मन्दिर की चारों दिशाओं में चार द्वार हैं। इन चारों द्वारों के आगे चार मुखमण्डप हैं। उन मुखमण्डपों के आगे चार प्रेक्षागृह या रंगशाला मण्डप हैं। पुनः उन प्रेक्षागृहों के आगे मणिपीठिकाएं हैं। उन मणिपीठिकाओं पर चैत्यस्तूप है प्रत्येक चैत्यस्तूप पर चारों दिशाओं में चार मणिपीठिकाएँ हैं और उन चार मणिपीठिकाओं पर चार जिन प्रतिमाएँ हैं। वह सब रत्नमय, - पकासन (पद्मासन) की मुद्रा में अवस्थित हैं। पुनः चैत्यस्तूपों के आगे चैत्यवृक्ष हैं। उन चैत्यवृक्षों के आगे मणिपीठिकाओं पर महेन्द्रध्वज हैं। उन महेन्द्रध्वजों के आगे पुष्करिणियों हैं और उन पुष्करिणियों के आगे वनखण्ड है। १६ इस सब वर्णन से ऐसा लगता है कि स्थानांग के रचनाकाल तक सुव्यवस्थित रूप से मन्दिरों के निर्माण की कला का भी विकास हो चुका था और उन मन्दिरों में चैत्य- स्तूप बनाये जाते थे ओर उन चैत्य- स्तूपों पर पीठिकाएँ स्थापित करके जिन प्रतिमाएँ भी स्थापित की गई थीं। परवर्ती काल में बौद्ध परम्परा में भी हमें स्तूपों की चारों दिशाओं में बुद्ध प्रतिमाएं होने के उल्लेख मिलते हैं स्थानांग एक संग्रह ग्रन्थ है और उनमें ईसा पूर्व से लेकर ईसा की चौथी शताब्दी तक की सामग्री संकलित है। प्रस्तुत सन्दर्भ किस काल का है यह कहना तो कठिन है, किन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि वह लगभग ईसा की प्रथम शताब्दी का होगा, क्योंकि तब तक जिन मन्दिर और जिन स्तूप बनने लगे थे। उसमें वर्णित स्तूप जैन परम्पर से सम्बन्धित हैं । यद्यपि यह विचारणीय है कि मथुरा के एक अपवाद को छोड़कर हमें किसी भी जैन स्तूप के पुरातात्त्विक अवशेष नहीं मिले हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से विश्वसनीय जैन- स्तूपों के साहित्यिक उल्लेख भी नगण्य हैं। - - समवायांग एवं जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति में हमें चैत्यस्तूप के स्थान पर चैत्यस्तम्भ का उल्लेख मिलता है, साथ ही इन स्तम्भों में जिन अस्थियों को रखे जाने का भी उल्लेख है। १७ अतः चैत्य-स्तम्भ चैत्य- स्तूप का ही एक विकसित रूप है। जैन परम्परा में चैत्यस्तूपों की अपेक्षा चैत्यस्तम्भ बने, जो आगे चलकर मानस्तम्भ के रूप में बदल गये। आदिपुराण में मानस्तम्भ का स्पष्ट उल्लेख है। १८ जैनधर्म की दिगम्बर परम्परा में आज श्री मन्दिरों के आगे मानस्तम्भ बनाने का प्रचलन है। शेष अंग-आगमों में भगवती सूत्र, ज्ञाताधर्मकथा और उपासकदशांग में हमें चैत्य- स्तूपों ७१३. के उल्लेख तो उपलब्ध नहीं होते हैं, किन्तु अरिहंत चैत्य का उल्लेख अवश्य मिलता है। १९ यद्यपि ज्ञाताधर्मकथा में स्तृपिका (यूभिआ) का उल्लेख अवश्य है। २० इतना निश्चित है कि इन आगमों के रचनाकाल तक जैन परम्परा में जिन प्रतिमाओं और जिन मन्दिरों का विकास हो चुका था। पुन: दसवें अंग आगम प्रश्नव्याकरण में स्तूप शब्द का उल्लेख मिलता है, किन्तु उसमें उल्लिखित स्तूप जैन परम्परा का स्तूप नहीं है। सम्भवतः यहाँ ही हमें स्वतन्त्र रूप से स्तूप शब्द मिलता है, क्योंकि इसके पूर्व सर्वत्र चैत्य- स्तूप (चेइय-धूभ) शब्द का प्रयोग मिलता है। ज्ञातव्य है कि प्रश्नव्याकरण का वर्तमान में उपलब्ध संस्करण आगमों के लेखनकाल के बाद सम्भवतः ७वीं शताब्दी की रचना है। जैनधर्म में परवर्तीकाल में स्तूप परम्परा पुनः लुप्त होने लगी थी जैनधर्म में न तो प्रारम्भ में स्तूप निर्माण और स्तूप पूजा की परम्परा थी और न परवर्ती काल में ही वह जीवित रही। मुझे तो ऐसा लगता है कि ईसा पूर्व की द्वितीय एवं प्रथम शताब्दी से लेकर ईसा की पाँचवीं शताब्दी तक बौद्धपरम्परा के प्रभाव के कारण ही जैन परम्परा में स्तूप निर्माण और स्तूप पूजा की अवधारणा विकसित हुई होगी, जो बौद्धों के पतन काल अर्थात् सातवी-आठवीं शताब्दी के पश्चात् पुनः लुप्त हो गई, क्योंकि हमें आठवीं शताब्दी के पश्चात् की जैन रचनाओं में केवल उन आगम ग्रन्थों की टीकाओं तथा मथुरा एवं वैशाली के ऐतिहासिक विवरण देने वाले ग्रन्थों को छोड़कर, जिनमें स्तूप शब्द आया है, कहीं भी जिन स्तूपों का उल्लेख नहीं मिलता है। १४वीं शताब्दी तक के जैन साहित्य में मथुरा में जैन स्तूपों के अस्तित्व के संकेत उपलब्ध हैं। उपाङ्ग साहित्य में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में हमें तीर्थंकर गणधर और विशिष्ट मुनियों की चिताओं पर चैत्यस्तूप बनाने के उल्लेख भी मिलते हैं। ऐसे उल्लेख आवश्यकनियुक्ति में भी उपलब्ध २१ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और आवश्यकनियुक्ति निश्चित ही आगमों के लेखनकाल अर्थात् ईसा की छठी शताब्दी के पूर्व की रचना है। इन सबसे हमारी उस मान्यता की पुष्टि होती है, जिसके अनुसार ईसा पूर्व की द्वितीय एवं प्रथम शताब्दी से लेकर ईसा की प्रथम पाँच शताब्दियों में ही जैन परम्परा में स्तूप निर्माण और स्तूप पूजा की परम्परा रही और बाद में वह क्रमशः विलुप्त होती गई। यद्यपि चैत्य-स्तम्भों एवं चरण-चिह्नों के निर्माण की परम्परा वर्तमान युग तक जीवित चली आ रही है। इस आधार पर हम यह निष्कर्ष भी निकाल सकते हैं कि चैत्य- स्तूपों के निर्माण और उनकी पूजा की परम्परा जैनों की अपनी मौलिक परम्परा नहीं थी, अपितु वह लौकिक परम्परा का प्रभाव था। वस्तुतः स्तूप निर्माण और स्तूप पूजा की परम्परा महावीर और बुद्ध से पूर्ववर्ती एक लोकपरम्परा रही है जिसका प्रभाव जैन और बौद्ध दोनों पर पड़ा। सम्भवतः पहले बौद्धों ने उसे अपनाया और बाद में जैनों ने जैनागम साहित्य में मुझे किसी भी ऐतिहासिक जैन स्तूप का उल्लेख देखने में नहीं आया। जैन साहित्य में जिन स्तूपों का उल्लेख है, उनमें व्यवहारचूर्णि में उल्लिखित मथुरा एवं आवश्यकचूर्णि में उल्लिखित वैशाली के स्तूप को छोड़कर देव-लोक (स्वर्ग), नन्दीश्वरद्वीप एवं अष्टापद (कैलाशपर्वत) आदि पर निर्मित स्तूपों . Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ के ही उल्लेख हैं, जिनकी ऐतिहासिकता संदिग्ध ही है। मथुरा के (क्षपणक) इस कार्य को करने में समर्थ है। संघ उनके पास गया। क्षपणक ऐतिहासिक स्तूप का प्राचीनतम उल्लेख व्यवहारचूर्णि में और व्यवहारसूत्र से कहा कि कायोत्सर्ग कर देवी को आकम्पित करो अर्थात् बुलाओ। की मलयगिरि की टीका२२ में मिलता है। इस स्तूप के सम्बन्ध में परवर्ती उन्होंने कायोत्सर्ग कर देवी को बुलाया। देवी ने आकर कहा- "बताइये दिगम्बर और श्वेताम्बर साहित्य में अन्यत्र भी उल्लेख मिलते हैं। मैं क्या करूँ?" तब मुनि ने कहा- “जिससे संघ की जय हो वैसा करो।" आवश्यकचूर्णि में वैशाली के मुनिसुव्रतस्वामी के स्तूप का उल्लेख है।२३ देवी ने व्यंग्यपूर्वक कहा- “अब मुझ असंयति से भी तुम्हारा कार्य होगा। इस समग्र चर्चा से हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि जैन साहित्य तुम राजा के पास जाकर कहो कि यदि यह स्तूप बौद्धों का होगा तो इसके में जो स्तूप-सम्बन्धी विवरण उपलब्ध हैं, उनमें ऐतिहासिक दृष्टि से मथुरा शिखर पर रक्त-पताका होगी और यदि यह हमारा अर्थात् जैनों का होगा और वैशाली के प्रसंग ही महत्त्वपूर्ण हैं और उसमें भी वैशाली के सम्बन्ध तो शुक्ल-पताका दिखायी देगी।" उस समय राजा के कुछ विश्वासी पुरुषों में कोई पुरातात्त्विक प्रमाण नहीं मिले हैं। जैन धर्म में स्तूप-निर्माण और ने स्तूप पर रक्त-पताका लगवा दी। तब देवी ने रात्रि को उसे श्वेत-पताका स्तूप-पूजा के पुरातात्त्विक प्रमाण अभी तक तो केवल मथुरा से उपलब्ध कर दिया। प्रात:काल स्तूप पर शुक्ल-पताका दिखायी देने से जैन संघ हुए है।२४ वैशाली के स्तूप को मुनिसुव्रत का स्तूप कहा गया है। मथुरा विजयी हो गया।२६ मथुरा के देव-निर्मित स्तूप का यह संकेत किंचित् के स्तूप के पास से उपलब्ध एक पाद-पीठ के लेख को प्रो०के०डी० रूपान्तर के साथ दिगम्बर परम्परा में हरिषेण के बृहद्कथाकोश के वाजपेयी ने अर्हत् मुनिसुव्रत पढ़ा है।२५ कहीं ऐसा तो नहीं कि वैरकुमार के आख्यान में२७ तथा सोमदेवसूरि के यशस्तिलकचम्पू के आवश्यकचूर्णिकार ने भ्रमवश उसे वैशाली में स्थित कह दिया हो। षष्ठ आश्वास में ब्रजकुमार की कथा में २८ मिलता है। पुन: चौदहवीं शताब्दी पुरातत्त्व की दृष्टि से मथुरा में न केवल जैन स्तूप के अवशेष में जिनप्रभसूरि ने भी विविधतीर्थकल्प के मथुरापुरीकल्प में इसका उल्लेख उपलब्ध हुए हैं, अपितु अनेक आयागपटों पर भी स्तूपों का अंकन और किया है २९। बौद्धों से हुए विवाद का भी किंचित् रूपान्तर के साथ सभी स्तूप पूजा के दृश्य उपलब्ध होते हैं। एक शिलाखण्ड में तो आसपास ने उल्लेख किया है। जिन-प्रतिमाओं का और बीच में स्तूप का अंकन है। एक अन्य आयागपट इस कथा से तीन स्पष्ट निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। प्रथम पर पुरुषों को स्तूप की पूजा करते हुए दिखाया गया है। मथुरा से तो उस स्तूप को देव-निर्मित कहने का तात्पर्य यही है कि उसके निर्माता उपलब्ध स्तूप-अंकन से युक्त अनेक आयागपटों पर शिलालेख भी हैं। के सम्बन्ध में जैनाचार्यों को स्पष्ट रूप से कुछ ज्ञात नहीं था, दूसरे उसके इस सबसे इतना स्पष्ट हो जाता है कि इस काल में जैनों में स्तूप-निर्माण स्वामित्व को लेकर जैन और बौद्ध-संघ में कोई विवाद हुआ था, तीसरे और स्तूप-पूजा की परम्परा रही है। स्तूप के आसपास जिन-प्रतिमा से यह कि जैनों में स्तूपपूजा प्रारम्भ हो चुकी थी। यह भी निश्चित है कि परवर्ती युक्त शिलाखण्ड इसका सबसे महत्त्वपूर्ण प्रमाण है, किन्तु मथुरा में जो साहित्य में उस स्तूप का जैनस्तूप के रूप में ही उल्लेख हुआ है। अत: भी स्तूप और स्तूपों के अंकन सहित आयागपट मिले हैं, वे सभी ईसा इस विवाद के पश्चात् यह स्तूप जैनों के अधिकार में रहा-इस बात से पूर्व दूसरी शती से लेकर ईसा की तीसरी शताब्दी तक के ही हैं। ईसा भी इन्कार नहीं किया जा सकता है। लेकिन यहाँ मूल प्रश्न यह है कि की चौथी-पाँचवीं शताब्दी के बाद से न तो स्तूप मिलते हैं और न स्तूपों क्या उस स्तूप का निर्माण मूलत: जैन स्तूप के रूप में हुआ था अथवा.. के अंकन से युक्त आयागपट ही। इस सम्बन्ध में प्रो० उमाकांत शाह की वह मूलत: एक बौद्ध परम्परा का स्तूप था और परवर्ती काल में वह जैनों पुस्तक 'Art and Architecturer, के अध्याय छठा और दसवां विशेष के अधिकार में चला गया। रूप से द्रष्टव्य हैं। इन पुरातात्त्विक प्रमाणों से भी मेरी इस मान्यता की इसे मूलत: बौद्ध परम्परा का स्तूप होने के पक्ष में निम्न तर्क पुष्टि होती है कि ईसा की. तीसरी और चौथी शताब्दी के बाद जैनों में दिये जा सकते हैं-सर्वप्रथम तो यह कि जैन परम्परा के आचारांग जैसे स्तूप-पूजा की प्रणाली लुप्त होने लगी थी। . प्राचीनतम अंग-आगम साहित्य में जैन स्तूपों के निर्माण और उसकी पूजा व्यवहारचूर्णि और व्यवहारसूत्र की मलयगिरि टीका में मथुरा के उल्लेख नहीं मिलते हैं, अपितु स्तूपपूजा का निषेध ही है। यद्यपि कुछ के देवनिर्मित स्तूप के निर्माण की कथा एवं उसके स्वामित्व को लेकर परवर्ती आगमों-स्थानांग, जीवाभिगम, औपपातिक एवं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति जैनों और बौद्धों के विवाद की सूचना मिलती है। मलयगिरि लिखते हैं में जैन-परम्परा मे स्तूपनिर्माण और स्तूपपूजा के संकेत मिलने लगते हैं, कि मथुरा नगरी में कोई क्षपक-जैन मुनि कठिन तपस्या करता था, उसकी किन्तु ये सब ईसा की प्रथम शताब्दी की या उसके पश्चात् की रचनाएँ तपस्या से प्रभावित हो एक देवी आयी। उसकी वन्दना कर वह बोली हैं। दूसरे यदि जैन परम्परा में प्राचीन काल से स्तूप-निर्माण एवं स्तूपकि मेरे योग्य क्या कार्य है? इस पर जैन मुनि ने कहा-असंयति से · पूजा की पद्धति होती तो फिर मथुरा के अतिरिक्त अन्यत्र भी जैन स्तूप मेरा क्या कार्य होना? देवी को यह बात बहुत अप्रीतिकर लगी और उसने उपलब्ध होने चाहिये थे, किन्तु मथुरा के अतिरिक्त कहीं भी जैन स्तूपों कहा कि मुझसे तुम्हारा कार्य होगा, तब उसने एक सर्वरत्नमय स्तूप निर्मित के पुरातात्त्विक अवशेष उपलब्ध नहीं होते।३० जबकि बौद्ध परम्परा में किया। कुछ रक्तपट अर्थात् बौद्ध भिक्षु उपस्थित होकर कहने लगे यह मथुरा के अतिरिक्त अन्यत्र भी बौद्ध स्तूप और उनके अवशेष मिलते हैं। हमारा स्तूप है। छ: मास तक यह विवाद चलता रहा। संघ ने विचार किया . एक प्रश्न यह भी है कि यदि जैन धर्म में स्तूप-निर्माण एवं कि इस कार्य को करने में कौन समर्थ है। किसी ने कहा कि अमुक मुनि स्तूप-पूजा की परम्परा थी तो फिर वह एकदम विलुप्त कैसे हो गयी? : Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम-धर्म में स्तूप ७१५ -जावान यह सत्य है कि यहाँ बौद्ध परम्परा में बुद्ध के बाद शताब्दियों तक “साहुकडे ति वा, कल्लाणे ति वा"। प्रतीकपूजा के रूप में स्तूप-पूजा प्रचलित रही और बुद्ध की मूर्तियाँ बाद -वही, ४/२१ में बनने लगीं। जबकि जैन परम्परा में ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी से जिन- (ग). से भिक्खू वा भिक्खुणी वा..... थूभ-महेसु वा, चेतिय-महेसु मूर्तियाँ बनने लग गयी थीं। अत: जैनों में स्तूप बनाने की प्रवृत्ति आगे वा.....तहप्पगारं असणं व पाणं वा....णो पडिगाहेज्जा। अधिक विकसित नहीं हो सकी। किन्तु जैन परम्परा में स्तूप-पूजा एवं -वही, १/२४॥ स्तूप-निर्माण की परम्परा थी, इसके भी अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं। प्रथम २. .......तासि णं मणिपेढियाणं उवरिं चत्तारि-चत्तारि चेइयथूभा तो जैनधर्म के यापनीयसंघ की एक शाखा का नाम पंचस्तूपान्वय था। पण्णत्ता।। सम्भव है मथुरा के पंचस्तूपों की उपासना के कारण इसका यह नाम पड़ा -थानांग, ४/३३९। हो। मथरा यापनीय संघ का केन्द्र रहा है। इससे यही सिद्ध होता है कि ३. (क).चिति-वेदि-खातिय-आराम-विहार-थूभ.....य अट्ठाए पुढविं जैनों में स्तूपपूजा की पद्धति थी। मथुरा के एक शिलाखण्ड के बीच मे हिंसंति मंदबुद्धिया। स्तूप का अंकन है और उसके आसपास जिन-प्रतिमाएँ हैं, इससे भी हम -प्रश्नव्याकरण, १/१४। इसी निर्णय पर पहुँचते हैं कि जैनों में कुछ काल तक स्तूप-निर्माण और ४. तहेव महिंदज्झया चेतियरुक्खो चेतियथभे पच्चत्थिमिल्ला मणिपेढिया स्तूप-पूजा प्रचलित थी। वैशाली में मुनिसुव्रत स्वामी के स्तूप का जिणपडिमा। साहित्यिक संकेत है। -जीवाभिगम, ३/२/१४२। यह तर्क कि मथुरा का स्तूप मूलतः बौद्ध स्तूप था और ५. .....खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ तित्थगरचिइगं जावअणगारचिइगं परवर्तीकाल में बौद्धों के निर्बल होने से उस पर जैनों ने अधिकार कर च खीरोदगेणं णिवावेह, तए णं ते मेहकमारा देवा तित्थगरचिइगं लिया, युक्तिसंगत नहीं लगता, क्योंकि ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी जाव णिव्वावेंति, तए णं से सक्के देविंदे देवराया भगवओ से ही इसके जैन-स्तूप के रूप में उल्लेख मिलने लगते हैं और उस काल तित्थगरस्स उवरिल्लं दाहिणं सकहं गेण्हइ......तए णं से सक्के तक मथुरा के बौद्ध निर्बल नहीं हुए थे, अपितु शक्तिशाली एवं प्रभावशाली वयासी सव्वरयणामए महइमहालए तओ चेइअथूभे करेह। बने हुए थे। पुन: मथुरा से उपलब्ध आयागपटों पर मध्य में जिन-प्रतिमा . -जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, २/३३। और उसके आस-पास अष्टमांगलिक चिह्नों के साथ स्तूप का भी अंकन ६. निव्वाणं चिइगाई जिणस्स इक्खाग सेसयाणं च। मिलता है। इससे यह बात पुष्ट हो जाती है कि जैनों में स्तूपनिर्माण और सकहा थूभ जिणहरे जायग तेणाहिअग्गित्ति।। स्तूपपूजा की परम्परा का अस्तित्व रहा है। यापनीय नामक प्रसिद्ध जैन -आवश्यक नियुक्ति, ४५।। संघ की एक शाखा का नाम भी पंचस्तूपान्वय है। यदि ये प्रमाण नहीं ७. (क). तएणं से सक्के बहवे भवणपति जाव वेमाणिया एवं मिलते तो निश्चित ही इसे मूलत: बौद्ध स्तूप स्वीकार किया जा सकता वयासीखिप्पामेव भो तओ चेइअ-थूभे करेह। था। मैंने यहाँ पक्ष-विपक्ष की सम्भावनाओं को प्रस्तुत करने का प्रयत्न -आवश्यक चूर्णि, ऋषभनिर्वाण प्रकरण, पृ०२२३। किया है, विद्वानों को किसी योग्य निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयत्न करना (ख). थूभाणं एगं तित्थगरस्स व सेसाणं एगूणस्स भाउय सयस्स। चाहिए। फिर भी इस समग्र अध्ययन से मैं इस निष्कर्ष पर अवश्य पहुँचा -आवश्यक चूर्णि, अष्टपद चैत्य प्रकरण, पृ०२२७/ हूँ कि जैन धर्म में स्तूपनिर्माण एवं स्तूपपूजा की पद्धति जैनेतर परम्पराओं ८. (क), एमेव य साहूणं, वागरणनिमित्तच्छन्दकहमादी। से विशेष रूप से बौद्ध-परम्परा के प्रभाव से ही विकसित हुई, पुन: वह बिइयं गिलाणतो मे, अद्धाणे चेव थूभे य।।। चरण-चौकी(पगलिया जी), चैत्य-स्तम्भ और जिन-मन्दिरों के विकास (ख). महुरा खमगा य, वणदेवय आउट्ट आणविज्जत्ति। के साथ धीरे-धीरे विलुप्त हो गई है। किं मम असंजतीए, अप्पत्तिय होहिती कज्ज।। थूभ वि उ घण भिच्छू विवाय छम्मास संघो को सत्तो। सन्दर्भ खमगुस्सग्गा कंपण खिंसण सुक्का कय पडागा।। * 'बौद्ध स्तूप पर आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी (संगोष्ठी -व्यवहार चूर्णि, पंचम उद्देशक, २६, २७, २८। (प्रा०भा०सं० एवं पु० विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, ९. प्रो० मधुसूदन ढाकी से व्यक्तिगत चर्चा के आधार पर उनका यह वाराणसी) में पठित निबन्ध। मत प्रस्तुत किया गया है। (क). से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगाम दुइज्जमाणे......रुक्खं १०. “कडमाणे कडे" - भगवती सत्र, १/१/१। वा चेइय-कर्ड, थूभं वा चेइयकडं......णो.......णिज्झाएज्जा। ११. "In both the above-mentioned cases, namely, cetita-आचारांग (द्वितीय श्रुतस्कन्ध-आयारचूला), ३/४७/ thubha and the cetitarukkha, the sense of a funeral (ख). से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जहा वेगइयाई रूवाई.....रुक्खं relic is not fully warranted." वा चेइय-कडं......णो....सुकडे ति वा, सुट्ठकडे ति वा, ---Studies in Jain Art, U.P. Shah, P. 53. माण आर (द्वितीय श्रुतस्कमाई.............रुक्खं Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ 25. १२. संस्कृत हिन्दी कोश-वामन शिवराम आप्टे, पृष्ठ ३२७/ -जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, २/३३, पृ० १५७-१५८। १३. नयेयुरेते सीमानं स्थलाङ्गारतुषद्रुमैः।। (ब) आवश्यकनियुक्ति, गाथा ४३५। सेतुवल्मीकनिम्नास्थिचैत्याद्यैरुपलक्षिताम् ॥१५१॥ (मूल के लिए देखिए इसी लेख का पृ०१३२ का सन्दर्भ क्रमांक ६)। चैत्यश्मशानसीमासु पुण्यस्थाने सुरालये। २२. देखें-इसी लेख का पृ० १३२ का सन्दर्भ क्रमांक १॥ जातद्रुमाणां द्विगुणो दमो वृक्षे च विश्रुते ।।२२८।। २३. वेसालिए णगरीए णगरणाभीए मुणिसुव्वयसामिस्स थूभो। -याज्ञवल्क्यस्मृति, व्यवहाराध्याय। -आवश्यकचूर्णि (पारिणामिक बुद्धि प्रकरण) पृ० ५३७ १४. वाचस्पत्ययम्, पृष्ठ २९६६। 24. An inscription (Luders, List No. 47) dated 79 (A.D. १५. (अ). आचारांग (द्वितीय-श्रुतस्कन्ध-आयारचूला) १/२४, ३/ 157) or (A.D. 127), on the pedestal of a missing ४७; ४/२१ (इनके मूलपाठों के लिए देखें इसी लेख का सन्दर्भ image mentions the installation of an image of Arhat Nandiāvarta at the so-called Vodva Stupa built by क्रमांक १) the gods (devanirmita). (ब). से भिक्खू वा भिक्खुणी वा.....मडयथूभियासु वा, -Jaina Art and Architecture, A. Ghosh, Vol. I.P. 53. मडयचेइएस वा......णो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा। Sri Mahavira Commemoration, Vol. I. Agra, PP. -वही, १०/२३। 189-190. तेसि णं अंजणगपव्वयाणं उवरि बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा २६. मथुरायां नगर्यां कोऽपि क्षपक आतापयति, यस्यातापनां दृष्ट्वा पण्णत्ता। तेसिणं बहुसमरमणिज्जाणं भूमि-भागाणं बहुमज्झदेसभागे देवता आदृता तमागत्य वन्दित्वा ब्रूते, यन्मया कर्तव्यं चत्तारि सिद्धायतणा पण्णत्ता तन्ममाज्ञापयेद्भवानिति। एवमुक्ते सा क्षपकेण भण्यते, किं मम तेसि णं दाराणं पुरओ चत्तारि मुहमंडवा पण्णत्ता। कार्यमसंयत्या भविष्यति, ततस्तस्या देवताया अप्रीतिकमभूत्। तेसि णं मुहमंडवाणं पुरओ चत्तारि पेच्छाघरमंडवा पण्णत्ता। अप्रीतिवत्या च तयोक्तमवश्यं तव मया कार्य भविष्यति, ततो तेसिणं पेच्छाघरमंडवाणं पुरओ चत्तारि मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ। देवताया सर्वरत्नमयः स्तूपो निर्मितः, तत्र भिक्षवो रक्तपटा तासि णं मणिपेढियाणं उवरिं चत्तारि-चत्तारि चेइयथूभा पण्णत्ता। उपस्थिता; अयमस्मदीय: स्तूप; तैः समं सङ्घस्य षण्मासान् विवादो तेसि णं चेइयथूभाणं उवरिं चत्तारि मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ। जातः, ततः सङ्घो ब्रूते-को नामात्रार्थे शक्तः, केनापि कथितं तासिणं मणिपेढियाणं उवरिं चत्तारि जिणपडिमाओ सव्वरयणामईओ यथामुकः क्षपकः, ततः सङ्घन स भण्यते-क्षपक! कायोत्सर्गेण संपलियंकणिसण्णाओ थूभाभिमुहाओ चिटुंति, तं जहा-रिसभा, देवतामाकम्पय, तत: क्षपकस्य कायोत्सर्गकरणं देवताया आकम्पनम् वद्धमाणा, चंदाणणा, वारिसेणा। सा आगता ब्रूते-संदिशत किं करोमि, क्षपकेण भणिता-तथा कुरूत -स्थानांग, ४/३३९। यथा सङ्घस्य जयो भवति, ततो देवताया क्षपकस्य खिंसना कृता, १७. सोहम्मे कप्पे सुहम्माए सभाए माणवए चेइयक्खंभे हेट्ठा उवरिं च यथा एतन्मया असंयत्या अपि कार्यजातं एवं खिंसित्वा सा ब्रूतेअद्धतेरस-अद्धतेरस जोयणाणि वज्जेत्ता मज्झे पणतीस जोयणेसु यूयं राज्ञः समीपं गत्वा ब्रूत, यदि रक्तपटानां स्तूप: तत: कल्ये वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु जिण-सकहाओ पण्णत्ताओ। पताका दृश्यतां, अथास्माकं तर्हि शुक्ला पताका, राजा प्रतिपन्नमेवं -समवायांग, ३५/५। भवतु, ततो राज्ञा प्रत्ययिकरपुरुषैः स्तूपो रक्षापित: रात्रौ देवताया १८. मानस्तम्भमहाचैत्यद्रुमसिद्धार्थपादपान्। शुक्ला पताका कृता, प्रभाते दृष्टा स्तूपे शुक्ला पताका, जितं प्रेक्षमाणो व्यतीयाय स्तूपांश्चार्चितपूजितान्।। सङ्केन। -आदिपुराण, ४१/२०। -व्यवहारचूर्णि, मलयगिरि टीका-पञ्चम उद्देशक, पृ० ८। १९. (अ). णणस्थ अरिहंस वा अरिहंत चेइयाणि वा अणगारे वा २७ वैरकमारकथा गाण वा अणगार वा २७. वैरकुमारकथानकम्-बृहत्कथाकोश (हरिषेण) भारतीय विद्याभवन, भावियप्पणो णीसाए उ8 उप्पयति जाव सोहम्मो कप्पो। बम्बई, १९४२ ई०, पू० २२-२७१ -भगवती सूत्र, ३/२। २८. यशस्तिलकचम्पू, अनु० व प्रकाशक-सुन्दरलाल शास्त्री, वाराणसी। (ब). अरहंतचेइयाई वंदित्तए वा नमंसित्तए वा। ब्रजकुमारकथा-पृ०२७०, षष्ठ आश्वास। -उपासकदसांग, १/४५। २९. विविधतीर्थकल्प-मथुरापुरीकल्प। २० (अ). उज्जलमणिकणगरयणथूभिय.....। ३०. प्रो० टी०वी०जी० शास्त्री ने गन्तूर जिले के अमरावती से करीब ७ (ब) मणिकणथूभियाए। किलोमीटर दूर बड्डमाण गाँव में ईसा पूर्व तृतीय शताब्दी (२३६ ई० -ज्ञाताधर्मकथा, १/१८ १/८९। पू०) का जैनस्तूप खोज निकाला है। यहीं भद्रबाहु के शिष्य गोदास२१. (अ) महइमहालए तओ चेइअथूभे करेह, एवं भगवओ तित्थगरस्स जिनका नाम कल्पसूत्र पट्टावली में है-के उल्लेख से युक्त शिलालेख चिइगाए, एगं गणहरस्स, एगं अवसेसाणं अणगाराणं चिइगाए। भी मिला है। दि० जैन महासमिति बुलेटिन, मार्च १९८५