Book Title: Jainacharya Nagarjun
Author(s): M M Joshi
Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf

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Page 2
________________ ४] जैनाचार्य नागार्जुन २९९ नागार्जुन, आचार्य पादलिप्तसूरि के शिष्य थे। जैन ग्रन्थों में पादलिप्तसूरि जी का जीवन वृत्त विस्तार से मिलता है। प्रभावक चरित्र, प्रबन्धकोष, प्रबन्ध चिन्तामणि प्रभृति के अवलोकन से यह विदित होता है कि आचार्य पादलिप्तसरि ईसा की पहिली शती में हुए थे । डा० नेमिचंद्र शास्त्री के अनुसार "विशेषावश्यक भाष्य" एवं "निशोथ-णि" जैसे ग्रन्थों में पादलिप्तसरि जी के उल्लेख के कारण उनका काल पर्याप्त प्राचीन माना जाना चाहिए। आचार्य पादलिप्त को ऐसा लेप ज्ञात था कि जिसे पैरों पर लगाने से वे आकाश गमन कर सकते थे। इसी कारण इन्हें पादलिप्त कहा गया । पादलिप्त के एक शिष्य स्कन्दिल भी थे। जैन साहित्य के वृहद् इतिहास के अवलोकन से पता चलता है कि नागार्जुन भी इन्हीं के शिष्य थे। प्रबन्धकोष के अनुसार दक्षिण के प्रतिष्ठानपुर का सातवाहन राजा आचार्य पादलिप्त का समकालोन था । उसके समय में पाटलिपुत्र का राजा मुरुंड था । प्रश्न है कि प्रतिष्ठानपुर का कौन सा राजा पादलिप्त का समवर्ती था। अब एक अन्य दृष्टि से भी विचार करें। जयचंद्र विद्यालंकार कृत भारतीय इतिहास के उन्मीलन नामक ग्रंथ में कहा गया है कि जनवाङ्मय के अनुसार प्रतिष्ठानपुर के शालिवाहन या सातवाहन राजा ने भरुकच्छ के राजा नहपान पर विजय प्राप्त की थी और यही राजा बाद में विक्रमादित्य के नाम से प्रसिद्ध हआ तथा प्रतिष्ठानपुर से आकर उसने उज्जयिनी पर विजय प्राप्त की थी। इस विक्रमादित्य का वास्तविक नाम गौतमीपुत्र शातकणि था। इसी राजा ने जब मालवगण के सहयोग से शकों को ई० पू० ५७ में हटाया, तब से विक्रमी संवत् प्रारम्भ हुआ। ___ अब यदि इस तथ्य पर विचार किया जाय कि शातवाहन राज्य का उत्कर्ष कब हुआ, तो यह निर्धारण करना सम्भव हो सकता है कि आचार्य पादलिप्त कब हुए थे। शातवाहन राज्य ईस्वो पूर्व दूसरी शताब्दि से ईस्वी प्रथम-द्वितोय शताब्दि के आस-पास रहा । उसमें भी चरमोत्कर्ष पर ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दि से ईस्वी प्रथम शती में लगभग १०० वर्षों तक रहा। इन्हीं दिनों सातवाहनों का दरबार विद्या का केन्द्र बन गया। अतः जैन ग्रन्थों के अनुसार राजा हाल के दरबार में पादलिप्ति जैसे आचार्य को आदरपूर्वक रखा जाना युक्तिसंगत प्रतीत होता है। कुछ विद्वानों के मत में ढंकगिरि प्रथम-द्वितीय शतो की होनी चाहिए। यह अभिमत अधिक युक्तिसंगत लगता है। तब जैन नागार्जुन का काल . ईस्वी प्रथम-द्वितीय शतो के आस-पास होना सम्भव है और उनको गुरु-परम्परा से मेल खा जाता है। ऐसा लगता है कि गौतमी बालश्री के नासिक अभिलेख में पुत्र एवं पौत्र दोनों के कार्यों का एक साथ उल्लेख करने से विद्वज्जनों ने यह समझा कि पिता एवं पुत्र एक साथ हो राज्य कर रहे थे। यद्यपि ऐसा हाना असम्भव नहीं है, किन्तु यह भी तो हो सकता है कि गौतमी बालश्री सामान्य से अधिक दीर्घायु प्राप्त कर सकी हों और पौत्र के राज्यकाल में भी अरसे तक जीवित रही हों, अतः नासिक अभिलेख में दोनों के कार्यों का उल्लेख हो। अतः यह निश्चित करना आवश्यक है कि आचार्य पादलिप्तसूरि किसके समकालिक थे ? विक्रमादित्य के समवर्ती होने पर, और दीर्घजीवी होने पर तो तीसरी शती ईस्वी में नागार्जुन के गुरु होने की सम्भावना अटपटी सी लगतो है। यदि ऐसा होता तो दोघंजीवन को चमत्कारिक उपलब्धि का उल्लेख इतिहास ग्रन्थों या आयुर्वेद साहित्य में होना चाहिए था, पर अभी तक ऐसा विवरण मेरो जानकारी में नहीं है । यद्यपि बोल नामक विद्वान ने बौद्ध नागार्जुन का समय ई० पू० ३३ निर्धारित किया है, किन्तु रेनो और फिलियोजे के मत में बौद्ध नागार्जुन ईस्वी प्रथम शताब्दि के अन्त में हुए थे । यदि यह स्थापना मान्य हो, तब बौद्ध एवं जैन नागार्जुन लगभग समकालीन होंगे। जैन ग्रन्थों के अनुसार नागार्जुन ने ढंक पर्पत को गुफा में रसकूपिका स्थापित की थो और रस-सिद्धि तथा सुवर्ण-सिद्धि के प्रयोग भी किये थे। उन्होंने जैन आगमों को वाचना तैयार कराई। कई बातों में बोद्ध नागार्जुन एवं जैन नागार्जुन के व्यक्तित्वों में काफी साम्य भी दृष्टिगोचर होता है। दोनों ही रसायन शास्त्र के ज्ञाता थे, दोनों ने हो विभिन्न ग्रंथों के शुद्ध रूप को प्रस्तुत किया था। ज्ञातव्य है कि बील ने नागार्जुन को बुद्ध के चार सो वर्ष बाद होना बताया है। अतः बील का मत बुद्ध के काल-निर्धारण पर निर्भर करता है। यदि महात्मा बुद्ध का ही काल पोछे खिसक जाये, तब क्या होगा? बहुत से विद्वानों के अभिमत में ईसा पूर्व भारतीय इतिहास को अनेक गुत्थियां ऐसो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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