Book Title: Jain evam Kantiya Darshano ki Samanvaya vadi Shaili
Author(s): Vasishtha Narayn Sinha
Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf

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Page 2
________________ ११८ डॉ० वशिष्ठ नारायण सिन्हा (ख) सामान्य को एक माना जा सकता है अथवा अनेक ? यदि सामान्य एक है तो वह या तो व्यापक है या व्यापक नहीं है ? (i) सामान्य यदि व्यापक है तो उसे दो वस्तुओं के बीच रहना चाहिए लेकिन वह तो दो में होता है, दो के बीच नहीं होता। (ii) यदि वह एक है और व्यापक है तब तो उसे घट-घट में व्याप्त रहना चाहिए। (iii) यदि वह व्यापक नहीं है, तब उसे विशेष कहा जा सकता है, सामान्य नहीं । (ग) किसी भी वस्तु को अर्थ क्रियाकारित्व से जाना जाता है। दूध दुहने का कार्य गोत्व से नहीं होता, बल्कि किसी विशेष गाय से होता है। (घ) सामान्य को यदि एक न मानकर अनेक माना जाता है तब तो वह विशेष ही माना जाएगा, सामान्य नहीं । अतः विशेष की ही सत्ता है सामान्य की नहीं। अद्वैत वेदान्त इस दर्शन में सिर्फ ब्रह्म को ही सत्य माना गया है। ब्रह्म के अतिरिक्त जो भी हैं वे माया हैं, भ्रम हैं । ब्रह्म एक होता है। वह नित्य तथा अपरिवर्तनशील होता है। ये सभी सामान्य के लक्षण हैं। इससे यह प्रमाणित होता है कि अद्वैतवेदान्त सामान्य की सत्ता को स्वीकार करता है और सामान्य के अतिरिक्त जो भी है उनकी सत्ता में वह विश्वास नहीं करता। इतना ही नहीं बल्कि सामान्य की सत्ता को प्रमाणित तथा विशेष की सत्ता को असिद्ध करने के लिए विभिन्न तर्क भी प्रस्तुत करता है (क) पदार्थ या द्रव्य का द्रव्यत्व एक होता है, जिसे छोड़कर किसी द्रव्य को जाना नहीं जा सकता। (ख) किसी विशेष वस्तु का विशेषत्व ही उसका स्वभाव होता है। अतः विशेषत्व यानी सामान्य के बिना उस विशेष वस्तु का बोध नहीं होता। (ग) अनुवृत्ति या व्यावृत्ति क्रमशः सामान्य और विशेष की सूचक हैं। अनुवृत्ति से एकता तथा अभेद का बोध होता है जबकि व्यावृत्ति से अनेकता तथा भेद की जानकारी होती है। किन्तु किसी वस्तु के भेद अथवा निषेध को पूर्णतः जानने के लिए उस वस्तु के अतिरिक्त दुनिया की जितनी भी चीजें हैं, उन्हें जानने की जरूरत होती है। किसी सर्वज्ञ के लिए ही यह संभव है कि वह दुनिया की सारी चीजों को जाने । अतः सर्वज्ञता के अभाव में व्यावृत्ति या निषेध की सिद्धि न तो तर्क से हो सकती है और न किसी अनुभव से ही। तात्पर्य यह है कि विशेष की सत्ता प्रमाणित नहीं हो सकती है। (घ) व्यावृत्ति को सत् माना जाए या असत् ? यदि यह असत् है तब तो आगे कोई प्रश्न ही नहीं उठता। यदि यह सत् है तो प्रश्न बनता है कि यह एक है या अनेक । यदि व्यावृत्ति सत् है तो क्या सभी विशेष निषेधों में एक ही व्यावृत्ति है ? यदि व्यावृत्ति अनेक है, अलगअलग हैं, तो इससे ऐसा समझा जा सकता है कि एक व्यावृत्ति में दूसरी, दूसरी में तीसरी और तीसरी में चौथी व्यावृत्ति है, तो इस तरह अनवस्था दोष आ जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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