Book Title: Jain evam Kantiya Darshano ki Samanvaya vadi Shaili Author(s): Vasishtha Narayn Sinha Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf View full book textPage 1
________________ जैन एवं काण्टीय दर्शनों की समन्वयवादी शैली डॉ० वशिष्ठ नारायण सिन्हा जैन दर्शन भारतीय दर्शन की प्रमुख धाराओं में से एक है । उसी तरह काण्ट का चिन्तन पाश्चात्य दर्शन में मूर्धन्य है । जैन दर्शन प्राचीन माना जाता है जबकि काण्ट का दर्शन अर्वा - चीन। फिर भी दोनों की पद्धतियाँ (Methodologies) एक जैसी ही हैं। हाँ ! इतना अन्तर अवश्य है कि जैन दर्शन ने अपना समन्वयवाद तत्त्वमीमांसा के माध्यम से प्रस्तुत किया है, जबकि काण्ट ने ज्ञानमीमांसा के माध्यम से समन्वयवाद की प्रतिष्ठा की है । जैन दर्शन दर्शन में सत् (Reality) के सम्बन्ध में एक बहुत बड़ी समस्या यह है कि वह क्या है ? वह सामान्य है अथवा विशेष, नित्य है अथवा अनित्य । इस समस्या के समाधान स्वरूप विभिन्न प्रकार के सिद्धान्त मिलते हैं, जैसे- बौद्ध दर्शन यह मानता है कि सत् विशेष है और अनित्य है, अद्वैत वेदान्त मानता है कि सत् सामान्य है और नित्य है । जैन दर्शन इन दोनों को एकांगी बताते हुए यह मानता है कि सत् या द्रव्य या पदार्थ सामान्य भी है और विशेष भी, नित्य है और अनित्य भी । ऐसा करके वह दोनों विरोधी मतों के बीच समन्वय स्थापित करता है । किन्तु ये मत-मतान्तर अपने-अपने प्रतिपादकों द्वारा जिन-जिन प्रक्रियाओं के माध्यम से प्रस्तुत किए गये हैं, उन्हें हम निम्न प्रकार से जान सकते हैं- बौद्ध दर्शन क्षणिकवाद बौद्धदर्शन का प्रसिद्ध एवं मौलिक सिद्धान्त है । इसके आधार पर ही इसके अनात्मवाद आदि सिद्धान्त विकसित हुए हैं । इस सिद्धान्त के अनुसार क्षणिकता या परिवर्तनशीलता या प्रवाह ही सत्य है । यदि परिवर्तनशीलता सत्य है तो इसका मतलब है कि विशेष सत्य है । क्योंकि विशेष वहीं होता है जहाँ परिवर्तनशीलता होती है और वहीं पर अनित्यता भी होती है । इस तरह बौद्ध दर्शन अपने को विशेष और अनित्यता का पक्षधर मानता है और सामान्य को सत् के रूप में मानने वालों का विरोध करता है । बौद्ध दर्शन के अनुसार सामान्य का तो बोध ही नहीं हो सकता । यदि किसी के एक हाथ में पाँच अंगुलियाँ है और उनमें वह एक सामान्य अंगुली को भी देखना चाहता है तो यह कार्य वैसा ही होगा जैसा कि अपने सिर पर सींग को देखना अर्थात् सामान्य का बोध नहीं हो सकता है । सामान्य की सत्ता का खंडन करने के लिए बौद्ध दर्शन निम्न तर्क भी प्रस्तुत करता है (क) सामान्य की उत्पत्ति तो विशेषों से ही होती है । अतः सामान्य को विशेष से अलग नहीं देखा जा सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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