Book Title: Jain evam Hindu Dharm me Param Tattva ki Avadharna Author(s): Prem Suman Jain Publisher: Z_Nirgrantha_1_022701.pdf and Nirgrantha_2_022702.pdf and Nirgrantha_3_022703.pdf View full book textPage 1
________________ जैन एवं हिन्दू धर्म में परमतत्त्व की अवधारणा प्रेम सुमन जैन भारतीय धर्मों का प्रमुख लक्ष्य जीवन के दुःखों से अन्तिम रूप से छुटकारा पाना है । अतः वे जीवन में परम शुभ-Sunmun Bonum की प्राप्ति का प्रयत्न करते देखे जाते हैं । सुख की अनुभूति पूर्ण स्वतन्त्रता में ही हो सकती है, अज्ञान के क्षेत्र से ज्ञान के क्षेत्र में जाने से हो सकती है, अतः भारतीय चिन्तक आत्म-ज्ञान के द्वारा उस परमतत्त्व को जानने की प्रेरणा देते हैं, जो बन्धनों से सर्वथा मुक्त है और जिसमें सभी प्रकार के दुःखों का अभाव है। ऐसा परमतत्त्व विभिन्न नामों से जैन धर्म एवं अन्य भारतीय धर्मों में वर्णित किया गया है। उनमें मोक्ष, निर्वाण, परमात्मा, ब्रह्म आदि नाम अधिक प्रचलित हैं। परम तत्त्व के लिए प्रचलित विभिन्न पारिभाषिक शब्दों में क्या समानताएँ हैं, यह जानने के लिए जैन धर्म और हिन्दू धर्म की दृष्टि से आत्मा, मोक्ष और परमात्मा के स्वरूप पर चिन्तन करना आवश्यक है । आत्मा के विवेचन द्वारा सब कुछ जानने की कुंजी प्राचीन ग्रन्थों में प्रदान की गयी है । आत्मा के एक तत्त्व को जान लेने से सब का ज्ञान हो जाता है। यह सब का ज्ञान ही मोक्ष है और जो मुक्त आत्मा है वही परमतत्त्व है, परमात्मा है, ब्रह्म है । परमतत्त्व की अवधारणा का विकास नैतिक और आध्यात्मिक जीवन के आदर्श के रूप में हुआ है। प्रायः सभी भारतीय धर्मों में परम देवतत्त्व के महत्त्व को स्वीकार किया गया है। भले ही उसके नामों में भिन्नता दृष्टिगत होती है, किन्तु उसके स्वरूप में प्रायः समानता है। तभी एक जैन कवि यह कहता है कि "शैव जिसे "शिव" नाम से पूजते हैं, वेदान्ती जिसे "ब्रह्म" कहते हैं, बौद्धों ने जिसे "बुद्ध" कहा है, नैयायिक जिसे "कर्ता" कहते हैं, जैन धर्म के अनुयायी जिसे "अर्हत्" कहते हैं और मीमांसक जिसे "कर्म" कहते हैं, जिसे तीनो लोकों का स्वामी एवं "हरि" कहा जाता है वह हमें इच्छित फल प्रदान करे ।" यही बात आचार्य अभिनवगुप्त ने भी कही है कि दार्शनिकों में परमसत्ता के नामों का विवाद है, मूल तत्त्व का नहीं । हिन्दू धर्म के अन्य ग्रन्थों में भी यही भावना व्यक्त की गयी है । इस परमसत्ता, परमात्मा या ब्रह्म का वास्तविक ज्ञान मोक्ष-प्राप्ति के उपरान्त ही होता है, ऐसा अधिकांश भारतीय दार्शनिक मानते हैं । अतः परमसत्ता, मोक्ष और निर्वाण प्राय: एक ही लक्ष्य के विभिन्न नाम हैं। मोक्ष-सम्बन्धी समानताएँ : मोक्ष के स्वरूप का विकास भारतीय धर्मों में क्रमश: हुआ है । चार्वाक ने शरीर के अन्त को ही मोक्ष माना । न्याय-वैशेषिक, पूर्वमीमांसा और वैभाषिकों ने आत्मा के आगन्तुक धर्मों - चेतना और आनन्द आदि की मुक्ति को ही मोक्ष स्वीकार किया । सौत्रान्तिक बौद्धों ने सत्ता की अभिव्यक्तियों के निरोध को ही "निर्वाण" कहा है। सांख्य पुरुष की सत्ता और चेतन अवस्था के वास्तविक स्वरूप को जान लेने को ही कैवल्य मोक्ष कहते हैं। वे उसमें आनन्द की अनुभूति नहीं मानते । जैन दार्शनिक आत्मा के शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति को मोक्ष मानते हैं । उसमें मुक्त जीव अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख और अनन्त वीर्य का स्वामी होता है। ऐसे मुक्त जीव अनन्त होते हैं । वेदान्त दर्शन के अनुसार मुक्त आत्मा ईश्वर के समान बनकर उसके शरीर में प्रवेश कर उससे एकाकार का अनुभव करती है। ज्ञान और आनन्द के उपभोग में मुक्त आत्मा ईश्वर के समान होती है। शंकर के वेदान्त दर्शन में मुक्त जीव परमतत्त्व ब्रह्म से अभिन्न हो जाता है। इन सभी दर्शनों की मुक्ति प्रकिया का यदि सूक्ष्म विवेचन किया जाय तो ज्ञात होता है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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