Book Title: Jain Vrat
Author(s): Surendra Bothra
Publisher: Surendra Bothra

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Page 2
________________ यही नहीं अनियंत्रित उपभोग को भी यही मोह प्रेरित करता है। परिग्रह केवल वस्तुओं का ही नहीं विचारों का भी होता है, जो अन्य सभी प्रकार के परिग्रह का प्रेरक होता है। इस मानसिक परिग्रह का स्रोत है व्यक्ति का अपने विचारों और धारणाओं पर मोह यही मोहजनित परिग्रह हमारे विकास को भी अवरुद्ध करता है क्योंकि हम पुरातन के अनुपयोगी अंश से मात्र मोह के कारण चिपके रहते हैं उपयोगी नूतन को अवकाश नहीं देते। इसी कारण विकास के पथ पर अग्रसर होने के लिए परिग्रह पर नियंत्रण का अभ्यास साधना की प्राथमिक भूमिका है । जैन आचार-संहिता में मोक्ष - प्राप्ति की साधना के स्तर तक पहुंचने के लिए जो मार्ग निर्धारित किया है उसे समाहित रूप में देखा जाए तो विकास के हर स्तर के लिए उपयोगी क्रमिक आचार संहिता की अवधारणा प्रकट होती है। सर्वविरति के इस उच्चतम स्तर से जैसे-जैसे नीचे उतरते हैं तो व्रतों की एक सुगठित श्रृंखलाबद्ध और सटीक व्यवस्था इन व्रतों के आयामों या शाखाओं के रूप में बताए गए अणुव्रत, शीलव्रत, उनकी सहयोगी समितियों, गुप्तियों आदि में दिखाई पड़ती है उपरोक्त पांच महाव्रत साधु के लिए हैं। श्रावक के लिए कम कठोरता लिए वे ही पाँच अणुव्रत (स्थूल-प्राणातिपात विरमण अथवा अहिंसा अणुव्रत स्थूल-मृषावाद विरमण अथवा सत्य अणुव्रत स्थूल-अदत्तादान विरमण अथवा अस्तेय अणुव्रत, स्वदार संतोष अथवा ब्रह्मचर्य अणुव्रत और इच्छा परिमाण अथवा अपरिग्रह अणुव्रत - • स्थानांग सूत्र) तथा इनके सहायक और पोषक व्रतों के रूप में सात शीलव्रत (तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ) बताए हैं। इस प्रकार सामान्य जन के लिए बारह श्रावक व्रत प्रचलित हैं। : श्रावक के बारह व्रत हैं : पाँच अणुव्रत (1) अहिंसा अणुव्रत संक्षेप में इसका अर्थ है निरपराध जीवों की हास्य, लोभ, धर्म, अर्थ, काम, मूढ़ता, दर्प, क्रोध, मोह, अज्ञानता इत्यादि कारणों से हिंसा न की जाए। (2) सत्य अणुव्रत : परिस्थिति के अनुसार यथा संभव मिथ्या का त्याग। (3) अस्तेय या अचौर्य अणुव्रत : जिस किसी भी वस्तु पर अपना भौतिक या नैतिक अधिकार नहीं बनता, उसे लेने का निषेध । (4) ब्रह्मचर्य अणुव्रत : सामाजिक नियमानुसार अपनी विवाहित पत्नी से संतोष । (5) अपरिग्रह अणुव्रत अर्थ, वस्तु, सुविधा, साधन आदि के संग्रह को सीमित करना तीन गुणव्रत (6) अनर्थदंडविरमण व्यर्थ की हिंसा का त्याग ( 7 ) दिग्व्रत सभी दिशाओं में अपने कार्य हेतु जाने-आने की सीमा का निर्धारण । (8) उपभोग- परिभोग-परिमाण व्रत उपभोग- परिभोग की सभी वस्तुओं की आवश्यकतानुसार सीमा का निश्चय । चार शिक्षाव्रत : (9) सामायिक ः समस्त सांसारिक कार्यों से परे हट कर कम से कम 48 मिनट (एक मुहूर्त) तक धर्मध्यान करना । (10) देशावकाशिकव्रत : दिव्रत में ग्रहण की हुई दिशाओं की सीमा तथा अन्य सभी व्रतों में ली हुई मर्यादाओं को और भी संक्षिप्त करना। (11) प्रोषधोपवास व्रत : आहार, शरीर- शृंगार, व्यापार आदि सभी कार्यों को त्यागकर एक दिन-रात या अधिक समय के लिए उपाश्रय आदि शांत स्थान में रहकर धर्मचिंतन करना। 12 अतिथि संविभाग व्रत द्वार पर आए अतिथि को अपने न्यायोपार्जित धन में से विधिपूर्वक आहार आदि देना । -- ――

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