Book Title: Jain Vidyao me Shodh ke Kshitij Ek Sarvekshan Rasayan aur Bhautik Author(s): Nandlal Jain Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf View full book textPage 9
________________ मान्यताओंका विवरण एवं समीक्षण किया है। इन सभीने पौदगलिक शब्दको वर्तमान ध्वनिका पर्यायवाची माना है। शास्त्रीय मान्यताके अनुसार, ध्वनि भी प्रकाश आदिके समान एक पौद्गलिक ऊर्जा है, पर यह तेजस्कायिक न होनेसे अजीव मानी जाती है। इसकी उत्पत्ति परमाणमय पदार्थों के विशिष्ट गतिके कम्पन और संघटनसे होती है। पौद्गलिक होनेसे इसमें स्पर्शादि चार गुण पाये जाते हैं। इसका आकार बज्रके समान होता है। यह हवामें संचारित होती है। यह लोकान्त तक जा सकती है। ध्वनिमें तीव्रता, मंदता, अभिभव, पराभव, व्यतिकरण आदिके गुण पाये जाते हैं। ये इसकी कणमयताको पुष्ट करते हैं । इसीलिये ध्वनिको शब्दसे व्यंजित कर उसे भाषावर्णात्मक पुद्गल बताया गया है। जो सूक्ष्म-स्थूल कोटिके स्कन्धोंमें समाहित की गई है। जैन ध्वनिको द्रव्यदृष्टिसे नित्य तथा पर्यायदृष्टिसे अनित्य मानते हैं। इस दृष्टिसे जैन मीमांसकोंके शब्द नित्यत्ववादको नहीं मानते। उन्होंने इसमें अनेक व्यावहारिक आपत्तियाँ प्रस्तुत की हैं जो उनके ध्वनि-विषयक सूक्ष्म निरीक्षण व विचारके परिमाण ही मानने चाहिये। जैन न्याय-वैशेषिकोंके शब्दोंके अमूर्तवाद एवं आकाश गुणसे भी सहमत नहीं है क्योंकि इससे शब्दमें नित्यत्व मानना पड़ता है। हाँ, यदि आकाशको ध्वनि संचारण माध्यम मान लिया जाय, तो शब्दके वीचीतरंगन्याय या कदम्ब-कोरक प्रक्रियासे श्रवणकी प्रक्रिया तर्कसंगत हो जाती है। फिर भी, आकाशको ध्वनि-उत्पादक नहीं माना जा सकता, वह तो केवल संचरण माध्यम है। प्रज्ञापना, स्थानांग, भगवती एवं तत्त्वार्थसूत्रके टीकाग्रन्थोंके आधार पर शब्दोंको विविधप्रकारसे वर्गीकृत किया गया है। प्रारम्भिक वर्गीकरणका नवपदार्थमें संक्षेपण किया गया है। उत्तरवर्ती कालोंमें इसमें किंचित् परिवर्तित हुआ है। इस संक्षेपणसे पता चलता है कि ध्वनिके सस्वर और कोलाहल रूपमें दो वैज्ञानिक भेदोंकी तुलनामें जैन शास्त्रीय वर्गीकरण अधिक व्यापक सूक्ष्मनिरीक्षणकी दृष्टि प्रकट करता है। विज्ञानमें मानवकी शब्दात्मक भाषाके लिये कोई पृथक स्थान नहीं दिया गया है। इसे योग्यतानुसार दोनों ही कोटियोंके रूपमें वर्णित किया जा सकता है। सिकदर इसे कोलाहल मानते हैं जो तथ्य नहीं है। इसी प्रकार प्राकृतिक ध्वनियोंकी बात है। शास्त्रोंमें इनका विशद विवेचन और वर्गीकरण किया गया है। यही नहीं, वहाँ द्रव्यभाषाके अतिरिक्त भाव भाषा भी वर्णित है। द्रव्य भाषा ग्रहण, निःसरण तथा परघात (संघटन) से उत्पन्न होती है। भावभाषा मानसिक है । परघात भाषा प्रयोजन्य होती है और वह सरल या वक्रगतिसे चलती है। यह वायुमें संचारित होती है और लोकान्त तक जाती है। भाषात्मक ध्वनि दो समयोंमें अभिव्यक्त होती है। इस प्रकार ध्वनिके उत्पादन, संचारण, प्रकृति, गुण और वर्गीकरण-सम्बन्धी शास्त्रीय मान्यताएँ प्रर्याप्त तथ्यपूर्ण हैं लेकिन इनकी व्याख्यामें आजकी दृष्टिसे पर्याप्त अन्तराल है। इसके अतिरिक्त, जैन ने बताया है कि ध्वनिरोधन, ठोसोंमें ध्वनि-संचरण तथा ध्वनिका अन्य ऊर्जाओंमें अन्योन्य रूपान्तरण आदि अनेक आधुनिक तथ्य ऐसे हैं जिनका शास्त्रोंमें विवरण उपलब्ध नहीं होता। आधुनिक वैज्ञानिक मान्यताके अनुसार, ध्वनि गतिक ऊर्जाका एक रूप है। यद्यपि ऊर्जाओंकी चरम कणमयता निर्विवाद मान ली गई है, फिर भी ऊर्जा और दृश्यकणोंमें कुछ अन्तर तो स्पष्ट है । इस अन्तरके कारण ही वैशेषिक ध्वनिको अमूर्त एवं सांख्य तन्मात्रात्मक मानते हैं। ध्वनिके जिन गुणोंके आधार पर जैन उसे कणमय प्रमाणित करते हैं, उन्हों गुणोंके आधार पर वैज्ञानिक उसे तरंगात्मक या ऊर्जात्मक प्रमाणित करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जैन दार्शनिकोंने शब्द उत्पत्तिके स्रोत व माध्यमकी पौद्गलिकताको ध्वनिकी प्रकृति पर आरोपित कर दिया है। यदि ध्वनिको कणात्मक माना भी जाय, तो उसके कण इतने सूक्ष्म होगें कि वे परस्परमें प्रत्यास्थ संघटन करेगें जिनसे ध्वनि उत्पन्न ही न कर सकेगें। इस प्रकार वर्तमान वैज्ञानिक ध्वनिके प्रायः सभी आगमवणित गुणोंको मानते हैं पर उनकी व्याख्या शास्त्रीय व्याख्यासे भिन्न प्रतीत होती है । -४६७ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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