Book Title: Jain Vangamaya aur uska Kramik Vikas Author(s): Madan Mehta Publisher: Z_Bhanvarlal_Nahta_Abhinandan_Granth_012041.pdf View full book textPage 3
________________ (७) गच्छायार (८) गणिविजा (६) देविंदथव अन्तेवासी थे। उनके अवसान के पश्चात् आर्य यशोभद्र (१०) मरणसमाही। के ऊपर संघ-संचालन के साथ समस्त श्रत साहित्य अधीत उपयुक्त आगमों में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समुदाय करने-कराने का भार आया । वे चौदह पूर्वधर थे। मुख्यतया ४५, आगम स्वीकृत करता है जो इस आचार्य यशोभद्र ने ही नन्द राजाओं को प्रतिबोधित प्रकार है: कर अहंत धर्म में दीक्षित किया था। ११ अंग ___आचार्य यशोभद्र ने एक नवीन परम्परा का सूत्रपात १२ उपांग किया । उन्होंने एक के स्थान पर दो उत्तराधिकारी मनोनीत किये। एक थे आचार्य सम्भूतिविजय और दूसरे थे आचार्य भद्रबाहु । संघ-संचालन का भार ज्येष्ठ उत्तरा२ नन्दी सत्र व अनुयोगदार धिकारी सम्भूति विजय पर था। आचार्य भद्रबाहु का १० प्रकीर्णक उनके जीवन काल तक संघ-व्यवस्था से सीधा कोई संबंध न था । स्थानकवासी व तेरापंथी सम्प्रदाय द्वारा ३२ आगम भद्रबाहु महाप्रभावक आचार्य थे। ये छेद सूत्रों के ही प्रामाणिक रूप में स्वीकार किये गये हैं। वे इस प्रणेता तथा चतुर्दश पूर्वधर थे। इनके निधन के साथ ही प्रकार हैं: चतुर्दश पूर्वधर परम्परा समाप्त हो गई। जम्बू स्वामी के अनन्तर महावीर धर्म संघ के ये पंचम आचार्य थे ११ अंग सूत्र १२ उपांग सूत्र __ प्रथम वाचना-आचार्य भद्रबाहु के काल में १२ ४ छेद सूत्र वर्षीय दुष्कर अकाल पड़ा। इससे सारी संघ-व्यवस्था ४ मूल सूत्र अस्तव्यस्त हो गई। साधु समाज पर भी इसका भयंकर १ आवश्यक सूत्र प्रभाव पड़ा। अनेक मेधावी व ज्ञानी श्रमण कालकवलित हो गये, अनेक दूरस्थ प्रदेशों में चले गये। सुनने-सुनाने और अधीत करने की परम्परा में विक्षेप पड़ गया। ज्ञान दिगम्बर परम्परा में वर्तमान में अंग-उपांग साहित्य का बहुमूल्य भण्डार लेखन के अभाव में विस्मृति के गर्भ .. विद्यमान नहीं है। उनकी मान्यता है कि वीर-निर्वाण के में समा गया। दुष्काल के उपरान्त अवशिष्ट साधु समाज पांच सौ वर्ष पश्चात न अंग साहित्य ही रहा और न पुनः पाटलीपुत्र में एकत्रित हुआ। सबसे पहली आवपूर्व ज्ञान के धारक ही रहे। मात्र पूर्वज्ञान व ग्यारह अंगों श्यकता यह महसूस की गई कि श्रत-सम्पदा का कैसे का आंशिक ज्ञान ही रहा जिसे परवत्ती आचार्यों ने संरक्षण किया जाय। आचार्य स्थलिभद्र, जो आचार्य विभिन्न ग्रन्थों में ग्रथित किया है। भद्रबाहु के मनोनीत उत्तराधिकारी थे, के नेतृत्व में आर्य सुधर्मा के निर्वाण के पश्चात समागत श्रतज्ञ श्रमणों द्वारा ११ अंगों का पुनर्सकलन स्थान पर पट्टधर हुए। जम्ब अन्तिम केवली थे। आर्य हुआ । इसे हम प्रथम वाचना कहते हैं। जम्बू के उत्तराधिकारी आर्य प्रभव हुए। आर्य प्रभव के आचार्य भद्रबाहु पर्यन्त श्वेताम्बर व दिगम्बर मान्यता उत्तराधिकारी आर्य शय्यम्भव हुए। ये श्रुत केवली थे सदृश ही हैं। यहीं से दिगम्बर-श्वेताम्बर श्रुतधारा का तथा दशवकालिक जेसे महान सूत्र के रचनाकार थे। प्रवाह दो विभिन्न धाराओं के रूप में प्रवाहित होता है। शय्यम्भव की दशवैकालिक के रूप में जैन वाङमय को श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार जो श्रत साहित्य ११ अंग अनुपम देन है। आर्य यशोभद्र आचार्य शय्यम्भव के उपलब्ध है-वह तीर्थकर महावीर द्वारा उपदिष्ट तथा [ २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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