Book Title: Jain Vangamaya aur uska Kramik Vikas Author(s): Madan Mehta Publisher: Z_Bhanvarlal_Nahta_Abhinandan_Granth_012041.pdf Catalog link: https://jainqq.org/explore/210856/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। वर्तमान में अर्द्ध-मागधी वाङमय महावीर की देशना पर ही आधारित है जिसे उनके गणधरों ने ग्रथित किया। उसी ग्रथित वाणी को हमने आगम नाम से संशित किया है। आगम के दो प्रकार हैं : अर्थागम और सूत्रागम । तीर्थङ्कर अर्थ का जो व्याख्यान करते हैं उसे अर्थागम कहते हैं और गणधर उस व्याख्यात अर्थ का जो सूत्ररूप में ग्रन्थन करते हैं उसे सूत्रागम कहा गया है। जैन वाङमय और उसका दिगम्बर मान्यता में तीर्थङ्कर की वाणी अनक्षरा है । वे उपदेश की भाषा में कुछ नहीं बोलते। उनके रोम-रोम क्रमिक विकास से दिव्य ध्वनि निःसृत होती है और समवसरण में वही ध्वनि उपस्थित श्रोतागण की अपनी-अपनी भाषाओं में - श्री मदन कुमार मेहता, कलकत्ता परिणत हो जाती है। श्वेताम्बर परम्परा में तीर्थङ्कर अर्द्धमागधी भाषा में जैन वाङमय अतल जलधि के सदृश गहन, विशाल प्रवचन करते हैं। वह अर्द्ध-मागधी भाषा समवसरण में . व गंभीर है। विरल अध्यवसायी मनीषियों ने ही उसमें उपस्थित सभी आर्यों-अनार्यों की भाषा में परिणत हो अवगाहन करने का प्रयत्न किया है और प्राप्त मुक्ताकण जाती है। जैनागमों में इसे तीर्थ'करों का वचन-वैशिष्ट्य चूणियों और टीकाओं के रूप में प्रस्तुत कर भावी संतति कहा गया है। को गहन श्रत-वारिधि में आलोड़न के लिये प्रेरित किया है। भगवान महावीर के ग्यारह गणधर थे। तीर्थ कर ___ वाङ् का वाचिक अर्थ वाक् है । अर्थात् जिस साहित्य महावीर अर्थ रूप में जो उपदेश देते थे उन्हें गणधर शब्द बद्ध कर लेते थे। गणधरों द्वारा ग्रथित सूत्रागम द्वादशांगी का सृजन वाचना या वाणी के द्वारा हो, जिसे प्रबुद्ध व्यक्ति ग्रहण कर अपने स्मृति-कोष में संग्रह कर ले । अतः के रूप में विद्यमान है। इन बारह अंग शास्त्रों में बारहवां वाङ्मय को श्रुत भी कहा गया है। जो ज्ञान सुनकर । दृष्टिवाद अंग विलुप्त है। ये सभी गणधर चौदह पूर्वधर, अधीत किया जाय वह श्रत है। श्रत का यह क्रम भगवान द्वादशांगी वाणी तथा समस्त गणिपिटक के धारक थे। महावीर के पश्चात् परवर्ती अनेक आचायौं तक अवि भगवान महावीर की उपस्थिति में ही उनके नौ च्छिन्न रूप में चला। ज्ञान की यह मंदाकिनी एक के । गणधर कालगत होकर निर्वाण प्राप्त हो गये थे। महास्थविर कंठ से निःसृत होकर दूसरे के श्रवण कुंड में गिरकर आगे इन्द्र भूति गौतम व महास्थविर आर्य सुधर्मा महावीर के प्रवहमान हुई और पुन: दूसरे के कण्ठ को रसाप्लावित निर्वाण के पश्चात विमुक्त हुए। अतः महावीर के निर्वाण करती हुई अन्य के कर्ण कुहर में विनिमजित हो गई। के पश्चात आर्य सुधर्मा उनके उत्तराधिकारी हुए। यद्यपि यह क्रम प्रायः सहस्र वर्ष पर्यन्त चला। महाश्रमण इन्द्रभूति गौतम ज्येष्ठ थे परन्तु महावीर के तीर्थंकर महावीर जैन धर्म के अन्तिम तीर्थपति थे। निर्वाण के साथ ही उन्हें केवल-ज्ञान व केवल-दर्शन की एक तीर्थंकर अपने पूर्ववर्ती तीर्थ करों की देशना को प्राप्ति हो गई थी। उन्होंने राग और द्वेष को जीत लिया प्ररूपित नहीं करता। अतः सृजन के रूप में हमें भगवान था । वे वीतरागी हो गये थे । वीतरागी श्रमण संघ-शासक महावीर के पूर्वकालीन तीर्थङ्करों की वाणी उपलब्ध नहीं नहीं बनते अतः संघ-शासन के संचालन का भार आर्य [ २५ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधर्मा पर पड़ा। वर्तमान में जितनी भी श्रमण परम्पराये बिना छेद सूत्रों के गम्भीर अध्ययन कोई साधु, आचार्य विद्यमान हैं वे सभी सौधर्म परम्परा से ही संबंधित हैं। या उपाध्याय जैसे उत्तरदायित्वपूर्ण पदों पर प्रतिष्ठित अतः भगवान महावीर के पश्चात् द्वादशवाणी के संदेश- नहीं हो सकता। वाहक आय सुधमा बन । उन्हान महावार-वाणा का द्वादश छेद सूत्र छ: है: अंगों के रूप में पुनराकलन किया। वर्तमान आगम (१) निशीथ (२) महानिशीथ (३) व्यवहार साहित्य सुधर्मा की ही देन है । द्वादश अंग निम्न हैं: (४) दशाश्रतस्कन्ध (५) वृहत्कल्प (६) पंचकल्प । (१) आचारांग (२) सूत्रकृतांग (३) स्थानांग (४) मूल सूत्र चार हैं : समवायांग (५) व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवती) (६) ज्ञाता (१) उत्तराध्ययन (२) दशवैकालिक (३) आवश्यक धर्मकथांग (७) उपासकदशांग (८) अन्तगडदशांग (४) पिण्ड निर्यक्ति तथा ओघनिर्यक्ति । (E) अनुत्तरोपपातिक (१०) प्रश्नव्याकरण (११) विपाक इन सूत्रों का मूल नाम क्यों पड़ा यह भी विचारणीय एवं (१२) दृष्टिवाद। अंगों के साथ उपांगों का भी प्रश्न है । प्राचीन ग्रन्थों में मूल शब्द कहीं भी व्यवहृत नहीं सृजन किया गया। अंग और उपांग की यह पद्धति मात्र हुआ है। इन सूत्रों का अपने में अत्यन्त महत्त्व है। वस्तुतः जैन श्रत साहित्य में ही नहीं वरन वैदिक साहित्य में भी भगवान महावीर के मूल भावों का इनमें चयन किया गया विद्यमान है। वेदों के सम्यग अध्ययन के लिये वेदांगों की था, अतः इनका नाम मूल पड़ा हो-ऐसा सापेक्ष अर्थ रचना की गई थी। बिना वेदांगों के अध्ययन के वेदों का परिकल्पित किया जा सकता है। अथवा उनमें धर्म, समुचित रूप नहीं समझा जा सकता। आचार, दर्शन एवं आदर्शों का अद्भुत संकलन उपलब्ध __ जैन श्रत साहित्य में भी अंगों के साथ उपांगों की है, अतः ये मूल आदर्शों से परिपूर्ण मूल सूत्र हैं । रचना की गई है । ये उपांग भी अंग सूत्रों की तरह संख्या नन्दीसूत्र एवं अनुयोग द्वार : में १२ ही हैं, अन्तर इतना ही है कि अंग गणधरों द्वारा गुंफित है तथा उपांग स्थविर आचार्यों द्वारा रचित ___ नन्दीसूत्र के रचयिता आचार्य देवर्द्धिगणि हैं। यह है । १२ उपांग निम्न हैं : एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है। इनमें अनेक विषयों का तलस्पर्शी (१) उववाइय (२)रायपसेणइय (३)जीवाजीवाभिगम प्रतिपादन है । जैन वाङमय के विकास में इसका बहुमूल्य (४) पण्णवणा (५) सूरपण्णत्ति (६) चन्दपण्ण त्ति योगदान रहा है। (७) जंबूद्दीप पण्णत्ति (८) णिरयावलिया (६) ___अनुयोग द्वार के रचयिता आचार्य आर्यरक्षित हैं। यह ग्रन्थ प्रश्नोत्तर शैली से रचित है। विभिन्न कप्पवदंसिया (१०) पुप्फिया (११) पुप्फचूलिया (१२) व हिदशा। विषयों पर प्रश्नोत्तरों द्वारा प्रकाश डाला गया है। इसमें बहुत ही गंभीर विषयों का सरलता से प्रतिपादन किया १२ अंगों की विषय दृष्टि के अनुसार ये १२ उपांग गया है। परस्पर सम्बद्ध होने चाहिये परन्तु इस प्रकार का पारस्परिक सामंजस्य इनमें नहीं मिलता। यह एक दस पइपणग (दश प्रकीर्णक) आश्चर्य का विषय है। प्रकीर्णक ग्रन्थ उन ग्रन्थों को कहा जाता है जो जैन वाङमय में छेदसूत्रों का अपना स्थान है। श्रमणों तीर्थङ्करों के शिष्यों द्वारा विविध विषयों पर रचे जाते के आचार विषयक नियम जो भगवान महावीर ने निर्धा- हैं। प्रकीर्णक ग्रन्थों की परम्परा आदि काल से चली आ रित किये थे उनको उत्तरवर्ती आचार्यों ने छेद सूत्रों में रही है । वर्तमान में दस प्रकीर्णक ग्रन्थ माने गये हैंविविध परिवर्तन के साथ ग्रन्थित कर लिये । साधु जीवन (१)चउसरण (२)आउर पच्चक्खाण (३) महापच्चक्खाण के लिये छेद सूत्रों का अध्ययन आवश्यक माना गया है। (४) भत्तपरिण्णा (५) तंडलवेयालिय (६) संथारग २६ ] Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) गच्छायार (८) गणिविजा (६) देविंदथव अन्तेवासी थे। उनके अवसान के पश्चात् आर्य यशोभद्र (१०) मरणसमाही। के ऊपर संघ-संचालन के साथ समस्त श्रत साहित्य अधीत उपयुक्त आगमों में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समुदाय करने-कराने का भार आया । वे चौदह पूर्वधर थे। मुख्यतया ४५, आगम स्वीकृत करता है जो इस आचार्य यशोभद्र ने ही नन्द राजाओं को प्रतिबोधित प्रकार है: कर अहंत धर्म में दीक्षित किया था। ११ अंग ___आचार्य यशोभद्र ने एक नवीन परम्परा का सूत्रपात १२ उपांग किया । उन्होंने एक के स्थान पर दो उत्तराधिकारी मनोनीत किये। एक थे आचार्य सम्भूतिविजय और दूसरे थे आचार्य भद्रबाहु । संघ-संचालन का भार ज्येष्ठ उत्तरा२ नन्दी सत्र व अनुयोगदार धिकारी सम्भूति विजय पर था। आचार्य भद्रबाहु का १० प्रकीर्णक उनके जीवन काल तक संघ-व्यवस्था से सीधा कोई संबंध न था । स्थानकवासी व तेरापंथी सम्प्रदाय द्वारा ३२ आगम भद्रबाहु महाप्रभावक आचार्य थे। ये छेद सूत्रों के ही प्रामाणिक रूप में स्वीकार किये गये हैं। वे इस प्रणेता तथा चतुर्दश पूर्वधर थे। इनके निधन के साथ ही प्रकार हैं: चतुर्दश पूर्वधर परम्परा समाप्त हो गई। जम्बू स्वामी के अनन्तर महावीर धर्म संघ के ये पंचम आचार्य थे ११ अंग सूत्र १२ उपांग सूत्र __ प्रथम वाचना-आचार्य भद्रबाहु के काल में १२ ४ छेद सूत्र वर्षीय दुष्कर अकाल पड़ा। इससे सारी संघ-व्यवस्था ४ मूल सूत्र अस्तव्यस्त हो गई। साधु समाज पर भी इसका भयंकर १ आवश्यक सूत्र प्रभाव पड़ा। अनेक मेधावी व ज्ञानी श्रमण कालकवलित हो गये, अनेक दूरस्थ प्रदेशों में चले गये। सुनने-सुनाने और अधीत करने की परम्परा में विक्षेप पड़ गया। ज्ञान दिगम्बर परम्परा में वर्तमान में अंग-उपांग साहित्य का बहुमूल्य भण्डार लेखन के अभाव में विस्मृति के गर्भ .. विद्यमान नहीं है। उनकी मान्यता है कि वीर-निर्वाण के में समा गया। दुष्काल के उपरान्त अवशिष्ट साधु समाज पांच सौ वर्ष पश्चात न अंग साहित्य ही रहा और न पुनः पाटलीपुत्र में एकत्रित हुआ। सबसे पहली आवपूर्व ज्ञान के धारक ही रहे। मात्र पूर्वज्ञान व ग्यारह अंगों श्यकता यह महसूस की गई कि श्रत-सम्पदा का कैसे का आंशिक ज्ञान ही रहा जिसे परवत्ती आचार्यों ने संरक्षण किया जाय। आचार्य स्थलिभद्र, जो आचार्य विभिन्न ग्रन्थों में ग्रथित किया है। भद्रबाहु के मनोनीत उत्तराधिकारी थे, के नेतृत्व में आर्य सुधर्मा के निर्वाण के पश्चात समागत श्रतज्ञ श्रमणों द्वारा ११ अंगों का पुनर्सकलन स्थान पर पट्टधर हुए। जम्ब अन्तिम केवली थे। आर्य हुआ । इसे हम प्रथम वाचना कहते हैं। जम्बू के उत्तराधिकारी आर्य प्रभव हुए। आर्य प्रभव के आचार्य भद्रबाहु पर्यन्त श्वेताम्बर व दिगम्बर मान्यता उत्तराधिकारी आर्य शय्यम्भव हुए। ये श्रुत केवली थे सदृश ही हैं। यहीं से दिगम्बर-श्वेताम्बर श्रुतधारा का तथा दशवकालिक जेसे महान सूत्र के रचनाकार थे। प्रवाह दो विभिन्न धाराओं के रूप में प्रवाहित होता है। शय्यम्भव की दशवैकालिक के रूप में जैन वाङमय को श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार जो श्रत साहित्य ११ अंग अनुपम देन है। आर्य यशोभद्र आचार्य शय्यम्भव के उपलब्ध है-वह तीर्थकर महावीर द्वारा उपदिष्ट तथा [ २७ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणधरों द्वारा ग्रन्थित है। दिगम्बर यह बात स्वीकृत नहीं वीर-निर्वाण के एक सहस्र वर्ष पश्चात आचार्य देवधि करते / गणि क्षमाश्रमण के आचार्यत्व में वल्लभी में तीसरी वाचना समायोजित की गई। इसमें समस्त आगम साहित्य द्वितीय वाचना-पाटलीपुत्र की प्रथम वाचना के लिपिबद्ध किया गया। सम्प्रति जो भी जैन वाङमय विद्यपरचात् ग्यारह अंगों का ज्ञान उसी प्रकार श्रत परम्परा से प्रवाहित रहा। शिष्य ने गुरु से मुखाग्र अधीत किया मान है उसके लिये हम युगप्रधान आचार्य देवर्धिगणि क्षमा श्रमण के चिरऋणी हैं। यदि ऐसा न होता तो समस्त श्रत-. और स्मृति कोष में संरक्षित कर लिया। पुनः शिष्य ने . साहित्य विशृखलित होकर नष्ट हो जाता अथवा श्रतज्ञ अपने प्रशिष्य को उसी प्रकार अधीत करवाया। पर स्मृति की भी एक सीमा होती है / शनैः शनैः विशाल ज्ञान राशि विद्वानों के अवसान के साथ ही विस्मृति के महासागर में विलीन हो जाता। को धारण करने वाले शिष्यों-प्रशिष्यों की कमी होती गई। वीर-निर्वाण के सात सौ वर्षों के पश्चात पुनः 12 वर्षों का पनवों का आगमों के लिखित रूप में उपलब्ध हो जाने के दुष्काल पड़ा। नन्दी चूणी में उल्लेख है कि अकाल में पश्चात् आचार्यों को अक्षय निधि प्राप्त हो गई। फिर तो अनेक मेधावी श्रतज्ञों का अवसान हो गया / श्रत परम्परा सहस्र लोहिये लिपिक सूत्रों की प्रतिलिपियाँ करने में लग अस्तव्यस्त हो गई। दुर्भिक्ष के पश्चात युग प्रधान आचार्य गये। नगर-नगर में ज्ञान के भण्डार स्थापित हो गये / स्कन्दिल के नेतृत्व में मथुरा में श्रत संरक्षण के लिये मनीषियों को श्रत सागर में अवगाहन करने का अवसर आगम-वाचना का आयोजन किया गया। सुविज्ञ आगम प्राप्त होने लगा। प्राकृत के साथ संस्कृत शिक्षा की ओर वेत्ता मुनिगणों को बुलाया गया। जिन्हें जिस रूप में ध्यान गया। फिर तो उनको समझने स्पष्टीकरण करने स्मरण था उसी रूप में संकलित किया गया। मथुरा में के लिये चूर्णियों, टीकाओं की रचनायें हुई। मूल होने से इसे माथुरी वाचना कहते हैं। प्राकृत के साथ संस्कृत में टीकायें की गई। आचार्य हरिभद्र, शीलंकाचार्य, शान्त्याचार्य, मल्लधारी हेमचन्द्र, ___ माथुरी वाचना के समानान्तर ही आचार्य नागार्जुन मलयगिरि, क्षेमकीर्ति, अभय देवसूरि आदि अनेक महाकी अध्यक्षता में वल्लभी (गुजरात) में एक साधु-सभा प्रभावक आचार्यों ने विशेष टीकायें लिखकर श्रत साहित्य समवेत हुई। उसमें भी उपस्थित मुनियों ने अपनी-अपनी को करामलकवत स्पष्ट कर दिया। स्मृति के आधार पर समस्त अंगों-उपांगों का संकलन व राम्पादन किया। स्मृति आधार होने से इतिवृत्तात्म- याद चाणया या टाकाय न हाता ता हम श्रुत ज्ञान कता में पिष्ट-पेषण होता है। ग्रन्थ-विस्तार कम करने में कोरे ही रह जाते। के लिये अन्य सूत्र का निर्देश देकर सूत्रकार आगे बढ़ गये / खंभात, पाटन व जैसलमेर के ज्ञान भण्डार अपने में तीसरी वाचना-दो-दो वाचनायें सम्पन्न होने पर बहुमूल्य निधियाँ समेटे हुए आज भी श्रत सुरक्षा की अमर गाथा सुना रहे हैं। भी लेखन द्वारा श्रत साहित्य सुरक्षित रखने की चेष्टा नहीं हुई। वही मुखाग्र रखने की परिपाटी ही रही। अतः वर्तमान में भी हिन्दी, अंग्रेजी व इतर भाषाओं में श्रत साहित्य कुछ ही मेधावी श्रमणों तक ही सीमित रह जेनागमों का प्रकाशन किया गया है जो र गया। अतः तत्कालिक समाज ने चिन्तित होकर स्मृति है। इस सम्बन्ध में हम यदि सम्प्रदायगत कार्य न कर एक आधार के स्थान पर लेखन द्वारा श्रत साहित्य को संरक्षित मंच से समवेत कार्य करें तो श्रत साहित्य अधिक महिमाकरने का संकल्प किया। मण्डित हो सकता है। 28 ]