Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Vijayodaysuri
Publisher: Jashwantlal Girdharlal Shah

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Page 13
________________ वाद है । इसे सिद्धान्त कहनेके बजाय तश्वके रहस्यको पानेकी विशिष्ट दृष्टि या पद्धति कहना ठीक मालूम होता है । एक दृष्टिसे देखा जाय तो यह भी सूक्ष्मातिसूक्ष्म अहिंसा के विकासमेंसे ही फलित हुआ प्रतीत होता है । किसी जीवके शरीरको चोट पहुंचाना जैसे हिंसा है उसी तरह उसके दिलको चोट पहुंचानेसे भी हिंसा होती है । अनेकान्तवाद हमें दूसरोंका दृष्टिविन्दु समझने की आज्ञा देकर उनके दिलों को नाहक दुःखित करनेसे रोकते हुए हमारी बुद्धिको समत्वयुक्त बना कर अप्रमत्त या उपयोगयुक्त बनाता है । तात्पर्य यह हुआ कि, किसी भी जीवकी मानसिक हिंसा से बचनेकी कला हमें अनेकान्तवादसे ही प्राप्त होती है । हम जानते हैं कि सत्य भी अहिंसा के जैसा ही धर्मका महत्त्वपूर्ण अंगे है । धर्मरूपी सिक्के की अहिंसा व सत्य दो बाजुएं ही हैं। बिना सत्य के साक्षात्कार धर्मका यथार्थ पालन शक्य नहीं । और सत्यका साक्षात्कार कराना- किसी भी तत्व, वस्तु या घटना के सत्य स्वरूप के एकदम नजदीक ले जाना - अनेकान्तका ही कार्य है । 'मेरा कहना या मानना ही सत्य है ' - यह हुई एकान्त दृष्टि | ऐसी अपूर्ण दृष्टिसे भला कोई सत्यका संपूर्ण दर्शन कैसे कर सकता है ? अनेकान्तवाद हमें अपूर्ण दृष्टिकी जगह व्यापक दृष्टिकी भेंट करता है । इससे ज्ञात होता है कि, धर्मके आधारभूत अहिंसा और सत्य दोनोंके साथ अनेकान्तवादका अति घनिष्ट सम्बन्ध है; जितना वह अहिंसा के पालनमें सहायक होता है उतना ही वह सत्य के साक्षात्कार में मददगार बनता है । अनेकान्तवादको यही खास खूबी है । तार्किक पद्धति और जैन तार्किकांकी परंपरा 1 किसी भी वस्तुके रहस्यको पानेका सबसे अच्छा तरीका अन्तर्मुख बनकर उसके बारेमें गहरा चिन्तत, मनन या ध्यान करना है । तीर्थंकरों, योगियों एवं आत्मसाधकोंने इसी मार्गको अपनाया हैं । इस चिन्तन, मनन एवं ध्यानके बलसे जो ज्ञान या स्वानुभव प्राप्त होता है वह निश्चित और एकदम ठोस होता है । जैन दर्शन या तवज्ञानकी नींव तीर्थंकरोंका स्वानुभव ही है । लेकिन कालक्रमसे चिन्तन-मननकी परिपाटी कम होती गई और दूसरों के आक्षेपों व आक्रमणोंसे स्वधर्मको बचानेके लिये खण्डनमण्डन करना जरूरी होता गया, तो स्वतन्त्र या स्वसिद्धान्तकी स्थापना या उसके समर्थन के लिये बुद्धिका आश्रय लेना अनिवार्य बन गया और इसके फलस्वरूप तार्किक पद्धतिका विकास होने लगा । चिन्तन-मननका लक्ष्य रहता था तत्वका दर्शन, तार्किक पद्धतिका लक्ष्य है स्वमतमंडन और परमतखंडन । चिन्तन और तर्कमें यही बडा भारो अन्तर है । ऐसा मालूम होता है कि, तार्किक पद्धति से स्वमतमण्डन करनेका एक युगसा चल पडा था । जैन दर्शनने भी समयकी इस मांगको पूरी की और युगयुगके सीमास्तम्भरूप अनेक तार्किक जैन आचार्य संसारको भेंट किये ।

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