Book Title: Jain Stotra Puja Path Sangraha
Author(s): Veer Pustak Bhandar Jaipur
Publisher: Veer Pustak Bhandar Jaipur
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अपराजित मन्त्रोऽयं, सर्व-विघ्न-विनाशकं । मङ्गलेषु च सर्वेषु, प्रथमं मङ्गलं मत ।।
मत्तगयन्द छन्द श्री जिनके पदपंकजको नमि नित्य सही विधि न्हौन प्रसार। ताहित सन्मुख तिष्टत उज्ज्वल द्रव्य सुधार यहां विस्तारै ।। कचन पीठक पै करि स्वस्तिक पुष्प सुगंधित धोकरि हारे । तामपि तोय शिवालय-नायक हो अभिषेक हितार्य सुधार ।।
___ॐ ह्री सिंहपीठे जिनविम्ब स्थापयाम्यहम् ।।। नीर महाशुचि गंधत चदन अक्षत पुष्प सु ले अनियारे । व्यंजन सजुत ले चरु उत्तम दीप धूप फल प्रघं सुधारे ॥ यो वसु द्रव्य तनों करि अर्घ उतारि-उतारि यजो पद थारे। यो मुझ शीघ्र शिवालय वास सा तुम भव्य उबारन पारे । ॐ ह्री स्नपनपीठे स्थित-जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । कृत्रिम और प्रकृत्रिम विम्ब सनातन राजत श्री जिन तेरे । तास तनी नित इन्द्र उपासन ठानत भानत कर्म करेरे ॥ क्षीर समुद्र नदी नद तीरथ तास तनो जल प्रासुक हेरे । कचन कुंभ भरे परिपूरण ल्याय यथाक्रम उत्थित टेरे ॥१॥ कर्मजंजीर जरयो यह जीव शुभाशुभ भोगत ज्ञान न पायो। पं प्रब कालसुलब्धि प्रसाद लह्यो तव दर्शन प्रानन्द प्रायो।। हो तुम कर्मकल विनाशक प्रेम तक इत प्रेरित लायो । हो गुनकार करों अभिषेक घरों शिवनारि समय प्रब प्रायो॥२॥ यो कहि दीप चहो विशिश जोय कियो बहु धूमसु धूपक करो।

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