Book Title: Jain Shraman ki Rog Prati Rakshatmak Swavlambi Jivan Shaili
Author(s): Chanchalmal Choradiya
Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf

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Page 6
________________ || 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 13. सही स्वर संचालन- जब श्वसन क्रिया बांये नथुने से होती है तो उसे 'चंद्र स्वर', जब दाहिने नथूने से होती है तो सूर्य स्वर' और जब दोनों नथूनों से चलती है तो सुषुम्ना स्वर का चलना कहा जाता है। गर्मी संबंधी रोग- गर्मी, प्यास, बुखार, पित्त संबंधी रोगों में चन्द्र स्वर चलाने से शरीर में शीतलता बढ़ती है, जिससे गर्मी से उत्पन्न असंतुलन दूर हो जाता है। आवेग, क्रोध, उत्तेजना, उच्च रक्त चाप, मानसिक अधीरता में चन्द्र स्वर चलाने से शीघ्र लाभ होता है। सर्दी संबंधी रोग-सर्दी, जुकाम, खांसी, दमा आदि कफ संबंधी रोगों में सूर्य स्वर अधिकाधिक चलाने से शरीर में गर्मी बढ़ती है, सर्दी का प्रभाव दूर होता है। आकस्मिक रोग- जब रोग का कारण समझ में न आये और रोग की असहनीय स्थिति हो, ऐसे समय रोग का उपद्रव होते ही, जो स्वर चल रहा है उसको बन्द कर विपरीत स्वर चलाने से तुरन्त राहत मिलती है। 14. गोदुहासन में नमस्कार मुद्रा- 5 से 10 मिनट नमस्कार मुद्रा में गोदुहासन में बैठकर दिन में पांच-सात बार दीर्घ स्वर में ओम् अथवा नमस्कारमंत्र के एक-एक पद का कुछ समय तक लम्बा उच्चारण करने से शरीर बायें-दायें संतुलित होता है जिससे पैर, मेरुदण्ड, मस्तिष्क एवं नाड़ी संस्थान संबंधी रोग होने की सम्भावनाएँ नहीं रहती हैं। 15. अंगव्यायाम- शरीर के अंग, उपांग तथा प्रत्येक भाग की मांसपेशियों को प्रतिदिन कम से कम एक बार अथवा आवश्यकतानुसार जितना संभव हो आगे-पीछे, दायें-बायें, ऊपर-नीचे, घुमाने, खींचने, दबाने, मसलने, सिकोड़ने और फैलाने से, सम्बन्धित भाग की मांसपेशियाँ सजग और सक्रिय हो जाती हैं। परिणामस्वरूप उस भाग में रक्त परिभ्रमण नियमित होने लगता है। आँख, कान, नाक, मुँह, गला, छाती, पेट, हाथ, पैर, कमर और शरीर के मुख्य जोड़ों के अंग-व्यायाम से वहाँ पर प्राण ऊर्जा का प्रवाह बराबर होने लगता है। 16. उड्डियान बंध- श्वास को बाहर निकालकर पेट को कमर की तरफ जितना सिकोड़ सकें, बाह्य कुम्भक करने की स्थिति को उड्डियान बंध कहते हैं। खाली पेट इस क्रिया से आमाशय का सम्पूर्ण भाग स्पंज की भांति निचोड़ा जाता है। जिससे जमा अथवा रुका हुआ रक्त पुनः प्रवाहित होने लगता है। फलतः पेट के सभी अंग सक्रिय होने लगते हैं एवं पेट के रोग ठीक होते हैं। 17. मूल बंध- मल द्वार को ऊपर खींचकर संकुचित कर जितनी देर रख सकें, रखने की शारीरिक स्थिति को मूल बंध कहते हैं। इस बंध से आंतों और मल मूत्र संबंधी अंग बराबर कार्य करते हैं तथा उनसे संबंधित रोगों में लाभ होता है। 18. प्रभावशाली रीढ़ के घुमावदार व्यायाम- मनुष्य को छोड़कर सभी प्राणियों की रीढ़ की हड्डी क्षितिज के समानान्तर होती है। अतः चलने-फिरने में उनके मणके स्वयं हलचल में आ जाते हैं। परिणाम स्वरूप Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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