Book Title: Jain Shraman Veshbhusha Ek Tattvik Vivechan
Author(s): Onkarlal Sethiya
Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf

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Page 8
________________ 000000000000 4 oooooooooooo DOOODED □ ३८८ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज - अभिनन्दन ग्रन्थ वाहन पर रखवा सकता है, न किसी अन्य व्यक्ति को दे सकता है । ऐसा करने से तो उसका जीवन पराश्रित हो जायगा, जबकि जैन श्रमण का जीवन सर्वथा स्वावलम्बी और स्व-आश्रित होना चाहिए। यदि कहा जाय कि अपने थोड़े से उपकरण किसी को दे दिये जायें तो इसमें वैसी क्या हानि है— साधारण सहयोग ही तो लिया पर गहराई से सोचने पर हम देखेंगे कि यदि ऐसा क्रम थोड़े को लेकर ही चल जाय तो यह थोड़ा आगे जाकर बहुत बड़ा हो जाय, अनाशंकनीय नहीं । व्यक्ति का मन ही तो है, जहाँ उसमें जरा भी दौर्बल्य का समावेश होने लगे, वह उसके औचित्य के लिए दलीलें गढ़ने लगता है । फिर यह औचित्य की सीमा न जाने आगे जाकर कितनी विस्तृत हो जाय, कुछ कहा नहीं जा सकता । फलतः औचित्य के परिवेश में अनौचित्य आ धमकता है, जो साधक-जीवन के ध्वंस का हेतु बनता है । भावनात्मक दृष्टि से सोचें तो काठ हलकेपन का प्रतीक है, वह पानी पर तैरता है, यह उसकी विशेषता है श्रमण को संसार सागर पार करना है। हर समय उसके ध्यान में रहना चाहिए कि उसका संयमी जीवन अनुप्राणित, परिपोषित और विकसित होता जाए । संसार एक सागर है, निर्वाण या मोक्ष उसके पार पहुंचना है । इस हेतु संसार रूपी सागर को सन्तीर्ण करना है । यह सन्तरण अध्यात्म की साधना है । इस भाव का रूपक प्रायः सभी धर्मों में रहा है । काष्ठपात्र स्थूल दृष्टि से इसकी प्रतीकात्मकता ले सकते हैं। यद्यपि यह विवेचन कुछ कष्ट कल्पना की सीमा में तो जाता है पर प्रेरणा की दृष्टि से इसकी ग्राह्यता है । रजोहरण संयमी जीवन के निर्वाह के हेतु श्रमण के लिए और भी कतिपय उपकरणों का विधान है, जिनमें रजोहरण मुख्य है । यह ऊन के मुलायम धागों से बना होता है । साधुओं द्वारा सदा इसे अपने पास रखे जाने के पीछे अहिंसा का दृष्टिकोण है । चलना फिरना, उठना, बैठना, सोना आदि दैनन्दिन क्रियाओं के प्रसंग में कृमि, कोड़े चींटी जैसे छोटेछोटे जीव-जन्तुओं की हिंसा आशंकित है, उससे बचने के लिए रजोहरण की अपनी उपादेयता है । उन-उन क्रियाओं के सन्दर्भ में प्रयुज्यमान स्थान का रजोहरण द्वारा प्रोञ्छन, प्रमार्जन आदि कर लिया जाता है, कोई जीव-जन्तु हों तो उन्हें बहुत धीरे से रजोहरण द्वारा हटा दिया जाता है। यों हिसा का प्रसंग टल जाता है । उपसंहार जैन श्रमण की वेशभूषा, उपकरण आदि की संख्या, परिमाण, प्रयोग, परिष्ठापन आदि और भी अनेक पहलू हैं, जिन पर विवेचन किया जा सकता है पर विषय-विस्तार के भय से यहाँ केवल उन्हीं कुछ उपकरणों को लिया गया है, जो एक श्रमण के दैनन्दिन जीवन में प्रस्फुट रूप से हमारे सामने आते हैं । इनके परिशीलन से यह स्पष्ट है कि श्रमण की जो पंचमहाव्रतात्मक चारित्रिक भूमिका है, उसमें यह नैमित्तिक दृष्टि से निस्सन्देह सहायक है । यद्यपि उपादान तो स्वयं अपनी आत्मा ही है पर निमित्त की सहकारिता का भी अपना स्थान है । कार्य-निष्पत्ति में उपादाननिमित्त की उपस्थिति की जो मांग करता है, वह अनिवार्य है । जैसा कि हमने देखा, उपकरण चयन में अपरिग्रह की भावना विशेष रूप से समाविष्ट है पर यह भी सर्वथा सिद्ध है कि महाव्रत अन्योन्याश्रित हैं । एक व्रत के खंडित होते ही दूसरे स्वयं खंडित हो जाते हैं । इसलिए अपरिग्रह की मुख्यता से सभी महाव्रतों के परिरक्षण और परिपालन में उपकरण शुद्धता का महत्त्व है । संयम मूलक शुद्धि के साथ-साथ सरल, निःस्पृह, सात्त्विक और पवित्र जीवन की स्थूल प्रतीकात्मकता भी इनमें है, जिसका आपाततः बहुत महत्त्व है। १ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २३, गाथा १-१६ २ अचलगो य जो धम्मो, जो इमो सन्तरुत्तरो । देसिओ वद्धमाणेण, पासेण य महाजसा ॥ एगकज्जपवन्नाणं, विसेसे किं नु कारणं । लिंगे दुविहे मेहावी, कहं विप्पच्चओ न ते ।। - उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २३, गाथा २६-३० 甌 www.joinelibrary.org

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