Book Title: Jain Shraman Veshbhusha Ek Tattvik Vivechan
Author(s): Onkarlal Sethiya
Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf

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Page 1
________________ ---------------------------------- 10 ओंकारलाल सेठिया, सनवाड़ -----0-0-0--0--0--0-2 वेश-भूषा एक विशेष व्यक्तित्व तथा विशिष्ट जीवन पद्धति का परिचायक है । संन्यासी और गृही की वेश-भूषा का अन्तर उसको जीवन-पद्धति का अन्तर सूचित करते हैं । जैन श्रमण की विशेष वेश-भूषा का मनोवैज्ञानिक । तथा ऐतिहासिक औचित्य तथा अन्तर्हित जीवन दृष्टि का विश्लेषण पढ़िए ------- ०००००००००००० ०००००००००००० n-0--0-0--0--0--0--0--0--0-0-0--0--0-0-0 जैन-श्रमण : वेशभूषाएक तात्त्विक विवेचन पागमा HOW जीवन के दो पक्ष हैं, अन्तरंग तथा बहिरंग । अन्तरंग का सम्बन्ध वस्तु स्थिति से है, जिसे दर्शन की भाषा में निश्चय नय कहा जाता है । वह सत्य का निरावरण और ठेठ रूप है। यथार्थतः साध्य उसी से सधता है। इसलिए उसका निर्व्याज महत्त्व है । बहिरंग निश्चय का परिवेश है, जिसे व्यवहार कहा जाता है। तात्त्विक उपयोगिता तो निश्चय की ही है पर व्यवहार भी स्थूल जीवन और लौकिकता की दृष्टि से सर्वथा उपेक्षणीय नहीं। इसलिए वह जहाँ जिस स्थिति में परिगठित होता है-निश्चयपरक होता है। जैन श्रमण का जीवन अध्यात्म-साधना में सम्पूर्णत: समर्पित जीवन है-प्रमाद, मोह, राग और एषणा के जगत् को विजित करते हुए आत्मा के अपने साम्राज्य में पहुंचने का जीवन है । अतः श्रमण के लिये जो व्रत गठन की भूमिका है, वह इन्हीं विजातीय-अनध्यात्म भावों के विजय मूलक आधार पर अधिष्ठित है । चतुर्दश गुणस्थान का क्रम इसका स्पष्ट परिचायक है। साधक के लिए निश्चय की भाषा में बहिरंग परिगठन अनिवार्य नहीं है। पर, व्यावहारिक साहाय्य तथा स्व-व्यतिरिक्त अन्य सामान्य-जनों के हेतु उसकी अपनी दृष्टि से उपादेयता है। यही कारण है कि भारतीय जीवन में संन्यासी और गृही की वेश-भूषा में एक अन्तर रहा है । संन्यासी की वेश-भूषा, वस्त्र आदि के निर्धारण में मुख्य दृष्टिकोण यह रहा है कि उस द्वारा गृहीत परम पावन जीवन की बाह्य अभिव्यक्ति उससे सधती रहे । दर्शकों के लिए यह परिवेश अध्यात्म मूलक उदात्त भाव की जागृति का प्रेरक या हेतु बने । इस सन्दर्भ में हम यहाँ जैन श्रमण की वेशभूषा पर तात्त्विक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से संक्षेप में विचार करेंगे। अवस्त्र : सवस्त्र जैन परम्परा में यह बहुर्चा चत प्रश्न है कि श्रमण सवस्त्र हो या निर्वस्त्र । कुछ का अभिमत यह है कि वस्त्र परिग्रह है, इसलिए परिहेय है। उनका यह भी कहना है कि श्रमण के लिए लज्जा-विजय भी आवश्यक है । वस्त्र लज्जा का आच्छादन है, इसलिये दुर्बलता है। दूसरा पक्ष है कि लज्जा या अन्यान्य मनोरागों का विजय मन की वृत्तियों पर आधृत है । वस्त्र आदि वस्तुएं गौण हैं। जैन परम्परा में दिगम्बर-श्वेताम्बर के रूप में जो भेद है, इसकी मूल भित्ति यही है । दिगम्बर और श्वेताम्बर की प्राचीनता-अर्वाचीनता, मौलिकता-अमौलिकता आदि पर यहाँ विचार नहीं करना है । यह एक स्वतन्त्र विषय है और विशदता से आलोच्य है, यहां इसके लिये अवकाश नहीं है। अस्तु प्रागैतिहासिक स्थिति पर हम न जाकर ऐतिहासिक दृष्टिकोण से विचार करें तो जैन-परम्परा में तेईसवें तीर्थकर भगवान पार्श्व एक इतिहास-पुरुष के रूप में हमारे समक्ष हैं क्योंकि उनके सम्बन्ध में प्राचीन वाङमय में LABAR

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