Book Title: Jain Shiksha Uddesh Evam Vidhiya Author(s): Sunita Jain Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf View full book textPage 4
________________ जैन शिक्षा : उद्देश्य एवं विधियाँ (क) सद्भावस्थापना का अर्थ है मूल वस्तु या उसकी प्रतिकृति यह प्रतिकृति काष्ठ, मृत्तिका, पाषाण, दाँत, सींग आदि की बनाई जा सकती है। इस प्रकार की प्रतिकृति बनाकर उस वस्तु या व्यक्ति का जो ज्ञान कराया जाता है, वह सद्भावस्थापना विधि है। (ख) असद्भावस्थापना में वस्तु की यथार्थ प्रतिकृति नहीं बनायी जाती प्रत्युत् किसी भी आकार की वस्तु में मूल वस्तु की स्थापना कर दी जाती है । जैसे शतरंज के मोहरों में राजा, वजीर, प्यादे, हाथी आदि की स्थापना कर ली जाती है। षट्खंडागम, धवला तथा श्लोकवार्तिक आदि में इनका विस्तार से वर्णन किया गया है। ३. द्रव्य निक्षेप वर्तमान से पूर्व अर्थात् भूत एवं बाद की स्थिति को ध्यान में रखते हुए वस्तु का ज्ञान कराना द्रव्य निक्षेप विधि है। इस विधि के भी आगम और नो आगम दो भेद हैं। नो आगम के भी तीन भेद हैं। ४: भाव निक्षेप वर्तमान स्थिति को ध्यान में रखकर वस्तु स्वरूप का ज्ञान कराना भाव निक्षेप विधि है । इसके भी आगम और नो आगम ऐसे दो भेद हैं। प्रमाण विधि" संशय आदि से रहित वस्तु का पूर्णरूप से ज्ञान कराना प्रमाण विधि है। जैन आचार्यों ने प्रमाण का विस्तृत विवेचन किया है। जीव और जगत् का पूर्ण एवं प्रामाणिक ज्ञान इस विधि के द्वारा प्राप्त किया जाता है। सम्यग्ज्ञान को ही प्रमाण के अन्तर्गत माना है। मिथ्याज्ञान प्रमाणाभास हो सकते हैं, प्रमाण नहीं। प्रमाण विधि के दो भेद हैं (क) प्रत्यक्ष, (ख) परोक्ष । प्रत्यक्ष के भी दो भेद हैं-(१) सांव्यवहारिक या इन्द्रियप्रत्यक्ष (२) पारमार्थिक या सकल प्रत्यक्ष । ९. यद्भाविपरिणामप्राप्ति प्रति योग्यतामादधानं तद्रव्यमित्युच्यते अथवा अतद्भावं वा द्रव्यमित्युच्यते । -तत्त्वार्थवार्तिक १.५ । १०. वर्तमानतत्पर्यायोपलक्षितं द्रव्यं भावः । सर्वार्थसिद्धिः १.५ । ११. प्रकर्षणेण मानं प्रमाणम्, सकलादेशीत्यर्थः । -धवला भाग ९, ४.१.४५।१६६।१ । परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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