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जैन शिक्षा : उद्देश्य एवं विधियाँ
डॉ. श्रीमती सुनीता जैन जैन दृष्टि से शिक्षा का उद्देश्य मानव व्यक्तित्व का समग्र विकास माना गया है । समग्र विकास से अभिप्राय उसके अन्तरंग एवं बाह्य सभी गुणों का विकास है। व्यक्तित्व के चरम विकास की स्थिति को ही जैन दर्शन में मोक्ष कहा गया है।' मोक्ष की अवस्था को प्राप्त व्यक्तित्व में दर्शन, ज्ञान, शक्ति और सुख पूर्ण रूप से विकास को प्राप्त हो जाते हैं, और उनमें किसी भी कारण कमी होने की सम्भावना नहीं रहती। इसीलिए उसे 'सिद्ध' कहा गया है । इससे पूर्व की स्थिति में 'अरहन्त' के भी दर्शन, ज्ञान, शक्ति और सुख का समग्र विकास हो चुकता है। कुछ औपाधिक प्रवृत्तियाँ सम्बद्ध रहने के कारण वह 'सिद्ध' नहीं माना जाता। किन्तु उसका सिद्ध होना निश्चित रहता है। व्यक्तित्व के समग्र विकास के लिए तीन कारण बताये
गये हैं।
(१) सम्यग्दर्शन । (२) सम्यग्ज्ञान । (३) सम्यक्चरित्र ।
ये तीनों मिलकर ही व्यक्तित्व विकास के साधक हैं, पृथक्-पृथक् नहीं। इसीलिए इन तीनों को 'मार्ग' कहा गया है ।
इस बात को समझाने के लिए जैन साहित्य में सुन्दर उदाहरण प्राप्त होते हैं।
जैसे कहीं चारों ओर से आग लगी हो और उसके बीच में एक अन्धा और एक पंगु मौजूद हों वे दोनों ही अपनी जान से हाथ धो देंगे। अन्धा रास्ता ज्ञात न होने के कारण भाग कर भी बाहर नहीं निकल पायेगा और पंगु देखते-देखते जल जायेगा पर यदि दोनों मिलकर कार्य करें अन्धा पंगु को अपने कन्धे पर उठा ले और पंगु रास्ता बताता जाये तो दोनों ही बाहर निकल सकते हैं। यहाँ अन्धा चरित्र
१. बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः ।-तत्त्वार्थसूत्र १०।२ । २. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।-तत्त्वार्थसूत्र १।१।। ३. अकलंक-तत्त्वार्थवार्तिक भाग १ । -भारतीय ज्ञानपीठ काशी ।
परिसंवाद -४
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जैन शिक्षा : उद्देश्य एवं विधियाँ का प्रतीक है और पंगु ज्ञान का अर्थात् ज्ञान और चरित्र अलग-अलग रहकर व्यक्ति का समग्र विकास नहीं कर सकते। इनके साथ एक शर्त और है, वह है सम्यग्दर्शन की। सम्यग्दर्शन न हो तो ज्ञान और चरित्र भी बेकार हैं। सम्यग्दर्शन का अर्थ है मूल तत्त्वों का सही बोध । सम्यक् तत्त्वबोध के बिना ज्ञान और चरित्र सम्यक् नहीं हो सकते।
इन तीनों को इस प्रकार समझा जा सकता है१. मूल तत्त्वों का सही बोध । २. तत्त्वों की सही सैद्धान्तिक जानकारी ।
३. वस्तु तत्त्वों का प्रायोगिक ज्ञान । शिक्षा विधियाँ
शिक्षा के इस महान् उद्देश्य की प्राप्ति के लिए जैन वाङ्मय में शिक्षा विषय, शिक्षा विधि, शिक्षा के माध्यम, गुरु एवं शिष्य का स्वरूप और शिक्षा संस्थाओं एवं शिक्षा केन्द्रों के बारे में अत्यन्त व्यवस्थित और विस्तृत विवरण प्राप्त होता है । तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवार्तिक, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक आदि ग्रन्थों में इनका विस्तार से विश्लेषण किया गया है। यहाँ पर केवल शिक्षा विधि के बारे में ही मैं कुछ कहूंगी।
शिक्षा के सम्पूर्ण विषय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चरित्र के अन्तर्गत समाहित हो जाते हैं। इन तीनों को सम्मिलित रूप से मोक्ष का मार्ग कहा गया है। जो तत्त्व जिस रूप में अवस्थित हैं, उनका ठीक उसी रूप में बोध होना, उनका प्रामाणिक रूप से सविवरण ज्ञान होना तथा व्यावहारिक रूप में उन्हें जीवन में उतारना, यह इनका तात्पर्यार्थ है। इसके लिए तत्त्वार्थसूत्रकार ने दो विधियाँ बतायी हैं
१. निसर्ग, २. अधिगम । निसर्गविधि
निसर्ग का अर्थ है स्वभाव । स्वयंप्रज्ञ व्यक्ति को गुरु और आचार्य द्वारा शिक्षा प्राप्त करने की अपेक्षा नहीं रहती। जीवन के विकासक्रम से वे स्वतः ही ज्ञान विज्ञान के विभिन्न विषयों को सीखते जाते हैं। तत्त्वों का सम्यक् बोध वे स्वतः प्राप्त करते हैं। उनका जीवन ही उनकी प्रयोगशाला होता है। सम्यक् बोध और सम्यक् ज्ञान की उपलब्धियों को वे जीवन की प्रयोगशाला में उतार कर सम्यक् चरित्र को उपलब्ध करते हैं । यह निसर्गविधि है । ४. निसर्गः स्वभाव इत्यर्थः । यद् बाह्योपदेशादृते प्रादुर्भवति तन्नैसर्गिकम् । सर्वार्थसिद्धिः १.३ ।
परिसंवाद ४
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जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन अधिगम विधि
अधिगम का अर्थ है पदार्थ का ज्ञान । दूसरों के उपदेशपूर्वक पदार्थों का जो ज्ञान होता है वह अधिगमज कहलाता है।
इस विधि के द्वारा प्रतिभावान् तथा अल्पप्रतिभा युक्त सभी प्रकार के व्यक्ति तत्त्वज्ञान प्राप्त करते हैं । यही तत्त्वज्ञान सम्यग्दर्शन का कारण बनता है।
निसर्ग विधि में प्रज्ञावान् व्यक्ति की प्रज्ञा का स्फुरण स्वतः होता है, किन्तु अधिगम विधि में गुरु का होना अनिवार्य है। गुरु से जीवन और जगत् के तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करना यही अधिगम विधि है । निक्षेप विधि
लोक में या शास्त्र में जितना शब्द व्यवहार होता है, वह कहाँ किस अपेक्षा से किया जा रहा है, इसका ज्ञान निक्षेप विधि के द्वारा होता है। एक ही शब्द के विभिन्न प्रसंगों में भिन्न-भिन्न अर्थ हो सकते हैं । इन अर्थों का निर्धारण और ज्ञान निक्षेप विधि द्वारा किया जाता है। अनिश्चय की स्थिति से निकालकर निश्चय में पहुँचाना निक्षेप है । निक्षेप विधि के चार भेद हैं-१. नाम, २. स्थापना, ३. द्रव्य, ४. भाव। १. नाम विक्षेप
___ व्युत्पत्ति की अपेक्षा किये बिना संकेत मात्र के लिए किसी व्यक्ति या वस्तु का नामकरण करना नाम निक्षेप विधि के अन्तर्गत आता है। जैसे किसी व्यक्ति का नाम हाथीसिंह रख दिया । नाम निक्षेप विधि ज्ञान प्राप्ति का प्रथम चरण है। २. स्थापना निक्षेप
वास्तविक वस्तु की प्रतिकृति, मूर्ति, चित्र आदि बनाकर अथवा उसका आकार बिना बनाये ही किसी वस्तु में उसकी स्थापना करके उस मूल वस्तु का ज्ञान कराना स्थापना निक्षेप विधि है । इसके दो भेद हैं:- .
(क) सद्भावस्थापना, (ख) असद्भावस्थापना । ५. अधिगमोऽर्थावबोधः । यत्परोपदेशपूर्वकं जीवाद्यधिगमनिमित्तं तदुत्तरम् । सर्वार्थसिद्धिः १.३ । ६. संशये विपर्यये अनध्यवसाये वा स्थितं तेभ्योऽपसार्य निश्चये क्षिपतीति निक्षेपः ।
-धवला भाग ४।१.३.१।२।६ । ७. अतद्गुणे वस्तुनि संव्यवहारार्थं पुरुषकारान्नियुज्यमानं संज्ञा कर्म नाम ।
-सर्वार्थसिद्धिः १.५ । ८. सद्भावेतरभेदेन द्विधा तत्त्वाधिरोपतः ।-श्लोकवार्तिक २.१.५ ।
परिसंवाद-४
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जैन शिक्षा : उद्देश्य एवं विधियाँ
(क) सद्भावस्थापना का अर्थ है मूल वस्तु या उसकी प्रतिकृति यह प्रतिकृति काष्ठ, मृत्तिका, पाषाण, दाँत, सींग आदि की बनाई जा सकती है। इस प्रकार की प्रतिकृति बनाकर उस वस्तु या व्यक्ति का जो ज्ञान कराया जाता है, वह सद्भावस्थापना विधि है।
(ख) असद्भावस्थापना में वस्तु की यथार्थ प्रतिकृति नहीं बनायी जाती प्रत्युत् किसी भी आकार की वस्तु में मूल वस्तु की स्थापना कर दी जाती है । जैसे शतरंज के मोहरों में राजा, वजीर, प्यादे, हाथी आदि की स्थापना कर ली जाती है।
षट्खंडागम, धवला तथा श्लोकवार्तिक आदि में इनका विस्तार से वर्णन किया गया है। ३. द्रव्य निक्षेप
वर्तमान से पूर्व अर्थात् भूत एवं बाद की स्थिति को ध्यान में रखते हुए वस्तु का ज्ञान कराना द्रव्य निक्षेप विधि है। इस विधि के भी आगम और नो आगम दो भेद हैं। नो आगम के भी तीन भेद हैं। ४: भाव निक्षेप
वर्तमान स्थिति को ध्यान में रखकर वस्तु स्वरूप का ज्ञान कराना भाव निक्षेप विधि है । इसके भी आगम और नो आगम ऐसे दो भेद हैं। प्रमाण विधि"
संशय आदि से रहित वस्तु का पूर्णरूप से ज्ञान कराना प्रमाण विधि है।
जैन आचार्यों ने प्रमाण का विस्तृत विवेचन किया है। जीव और जगत् का पूर्ण एवं प्रामाणिक ज्ञान इस विधि के द्वारा प्राप्त किया जाता है।
सम्यग्ज्ञान को ही प्रमाण के अन्तर्गत माना है। मिथ्याज्ञान प्रमाणाभास हो सकते हैं, प्रमाण नहीं। प्रमाण विधि के दो भेद हैं
(क) प्रत्यक्ष, (ख) परोक्ष ।
प्रत्यक्ष के भी दो भेद हैं-(१) सांव्यवहारिक या इन्द्रियप्रत्यक्ष (२) पारमार्थिक या सकल प्रत्यक्ष । ९. यद्भाविपरिणामप्राप्ति प्रति योग्यतामादधानं तद्रव्यमित्युच्यते अथवा अतद्भावं वा
द्रव्यमित्युच्यते । -तत्त्वार्थवार्तिक १.५ । १०. वर्तमानतत्पर्यायोपलक्षितं द्रव्यं भावः । सर्वार्थसिद्धिः १.५ । ११. प्रकर्षणेण मानं प्रमाणम्, सकलादेशीत्यर्थः । -धवला भाग ९, ४.१.४५।१६६।१ ।
परिसंवाद-४
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जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन
परोक्ष के पाँच भेद हैं- ( १ ) स्मृति (२) प्रत्यभिज्ञान ( ३ ) तर्क ( ४ ) अनुमान
(५) आगम ।
जैन आचार्यों ने इनका विस्तार से वर्णन किया है । १२
नयविधि
इस विधि के द्वारा वस्तुस्वरूप का आंशिक विश्लेषण करके ज्ञान कराया जाता है । नय के मूलतः दो भेद हैं
(१) द्रव्याथिक,
(२) पर्यायार्थिक |
इन दोनों के भी निम्नलिखित सात भेद हैं
१. नैगम - अनिष्पन्न अर्थ में संकल्पमात्र को ग्रहण करना ।
२. संग्रह - भेद सहित सब पर्यायों को अपनी जाति के अविरोध द्वारा एक मानकर सामान्य से सबको ग्रहण करना । जैसे घट कहने से सभी प्रकार के घटों का ग्रहण हो जाता है । '3
३. व्यवहार - संग्रहनय के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थों का विधिपूर्वक अवहरण या भेद करना । जैसे घट के स्वर्णघट, रजतघट, मृत्तिकाघट आदि भेद । १४ ४. ऋजुसूत्र — वर्तमान पर्याय मात्र को ग्रहण करना । '
१५
५. शब्दनय - शब्द प्रयोगों में आने वाले दोषों को दूर करके तदनुसार अर्थ भेद की कल्पना करना ।
६. समभिरूढ़ -
१७
इ-शब्द भेद के अनुसार अर्थ भेद की कल्पना करना ।'
७. एवंभूत - शब्द से फलित होने वाले अर्थ के घटित होने पर ही उसको उस रूप में मानना । १८
१२. द्रष्टव्य - परीक्षामुख, प्रमेयरत्नमाला, प्रमेयकमलमार्तण्ड, प्रमाणनयतत्वालोकालंकार, प्रमाणमीमांसा आदि ।
१३. स्वजात्यविरोधेनैकध्यनुपानीय पर्यायानाक्रान्तभेदानविशेषेण समस्तग्रहणात्संग्रहः ।
१४. संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहारः ।
१५. ऋजु प्रगुणं सूत्रयति तन्त्रयतीति ऋजुसूत्रः ।
१६. लिंगसंख्यासाधनादिव्यभिचारनिवृत्तिपरः शब्दनयः ।
१७. नानार्थसमभिरोहणात् समभिरूढः ।
१८. येनात्मनाभूतस्तेनैवाध्यवसाययतीति एवम्भूतः । - टि. १३ से १८ सर्वार्थसिद्धिः १०७ ।
परिसंवाद -४
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जैन शिक्षा : उद्देश्य एवं विधियाँ
१५५ ___ अनुयोगद्वार विधि-तत्त्वों का विस्तृत ज्ञान प्राप्त करने के लिए अनुयोग द्वार विधि बतायी गयी है । इसके निम्नलिखित छह भेद हैं।
(१) निर्देश-वस्तु के नाम का कथन करना। (२) स्वामित्व-वस्तु के स्वामी का कथन करना। (३) साधन-जिन साधनों से वस्तु बनी है, उसका कथन करना। (४) अधिकरण-वस्तु के आधार का कथन करना । (५) स्थिति-वस्तु के काल का कथन करना। (६) विधान-वस्तु के भेदों का कथन करना। प्ररूपण विधि-प्ररूपण के निम्नलिखित आठ भेद हैं(१) सत्-अस्तित्व कथन करके समझाना। (२) संख्या-भेदों की गणना करके समझाना। (३) क्षेत्र-वर्तमान काल विषयक निवास को ध्यान में रखकर समझाना । (४) स्पर्शन-त्रिकाल विषयक निवास को ध्यान में रखकर समझाना । (५) काल-समयावधि को ध्यान में रखकर समझाना । (६) अन्तर-समय के अन्तर को ध्यान में रखकर समझाना। (७) भाव-भावों का कथन करके समझाना ।
(८) अल्पबहुत्व-एक दूसरे की अपेक्षा न्यूनाधिक का ज्ञान करके समझाना। स्वाध्याय विधि२१
विशिष्ट ज्ञान प्राप्ति के लिए स्वाध्याय विधि का उपयोग किया जाता था। इसके निम्नलिखित पाँच भेद बताये गये हैं(१) वाचना-ग्रंथ, उसके अर्थ या दोनों का निर्दोष रीति से पाठ करना
वाचना है। (२) पुच्छना-शंका को दूर करने के लिए या विशेष निर्णय करने के लिए
पृच्छा करना-पृच्छना है। १९. निर्देशः स्वरूपानिधानम् । स्वामित्वमाधिपत्यम् । साधनमुत्पत्तिनिमित्तम् । करणमधिष्ठानम् ।
स्थितिः कालपरिच्छेदः । विधानं प्रकारः । -सर्वार्थसिद्धिः ११७ २०. सदित्यस्तित्वनिर्देशः । संख्या भेदगणना । क्षेत्रं निवासोवर्तमानकालविषयः । तदेव स्पर्शनं त्रिकालगोचरम् । कालो द्विविधः मुख्यो व्यावहारिकश्च । अन्तरं विरहकालः । भावः औप
शमिकादिलक्षणः । अल्पबहुत्वमन्योन्यापेक्षया विशेषप्रतिपत्तिः । सर्वार्थसिद्धिः ११८ २१. वाचनापृच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः । तत्त्वार्थसूत्र ९।२५ ।
परिसंवाद-४
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________________ 156 जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन (3) अनुप्रेक्षा-पढ़े हुए पाठ का मन से अभ्यास करना अर्थात् उनका पुनः (4) आम्नाय-जो पाठ पढ़ा है उसका शुद्धतापूर्वक पुनः-पुनः उच्चारण - करना आम्नाय है। (5 घर्मोपदेश-धर्म कथा करना धर्मोपदेश है। स्वाध्याय विधि का उपयोग प्रज्ञा में अतिशय लाने के लिए, अध्यवसाय को प्रशस्त करने के लिए, परम संवेग के लिए, तप में वृद्धि करने के लिए तथा अविचारों में विशुद्धि लाने आदि के लिए किया जाता है। ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि गूढ़ से गूढ़ विषय को भी इस रूप में प्रस्तुत किया जाता था कि शिष्य उसे भली प्रकार हृदयंगम कर सके / इसके लिए विषय वस्तु को सूत्र रूप में कहा जाता था, क्योंकि उस युग में सम्पूर्ण शिक्षा मौखिक और स्मृति के आधार पर चलती थी। इसी कारण प्रारम्भिक साहित्य सूत्र रूप में मिलता है। __ कभी-कभी विषयवस्तु को गेय रूप में भी प्रस्तुत किया जाता था जिससे उसे कण्ठस्थ किया जा सके / कथाओं के माध्यम से भी विषयवस्तु को कहा जाता था जिससे उन प्रसंगों के साथ मूल वस्तुतत्त्व को याद रखा जा सके / इन्हीं पद्धतियों का विभिन्न रूपों में विकास हुआ / जैसे सूत्र की व्याख्या की गई जिसे वार्तिक कहा गया। वार्तिक के बाद टीका और वृत्ति लिखी गई। नियुक्ति, भाष्य, चूणि नामक विशेष विवरण तैयार किए गए। जैन शिक्षा विधि की एक विशेषता यह भी रही है कि जैन आचार्यों ने मुख्य रूप से सदा लोक भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाया। उन्हीं भाषाओं को साहित्यिक स्वरूप देकर उनमें ग्रंथों की रचना की / इन भाषाओं को जनसामान्य की भाषा होने के कारण प्राकृत कहा गया तथा विभिन्न क्षेत्रों के अनुसार इनके अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री आदि नाम दिए गये। बाद में यही भाषाएँ अपभ्रंश हुईं और कन्नड़, तमिल, तेलुगु, राजस्थानी, गुजराती, मराठी, मगही, मैथिली, भोजपुरी आदि के रूप में विकसित हुईं। संस्कृत को भी जैन शिक्षकों ने शिक्षा के माध्यम के रूप में अपनाया तथा संस्कृत में विभिन्न विषयों पर अनेक ग्रंथों की रचना की / जैन बाला विश्राम, आरा, बिहार। परिसंवाद-४