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जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन
परोक्ष के पाँच भेद हैं- ( १ ) स्मृति (२) प्रत्यभिज्ञान ( ३ ) तर्क ( ४ ) अनुमान
(५) आगम ।
जैन आचार्यों ने इनका विस्तार से वर्णन किया है । १२
नयविधि
इस विधि के द्वारा वस्तुस्वरूप का आंशिक विश्लेषण करके ज्ञान कराया जाता है । नय के मूलतः दो भेद हैं
(१) द्रव्याथिक,
(२) पर्यायार्थिक |
इन दोनों के भी निम्नलिखित सात भेद हैं
१. नैगम - अनिष्पन्न अर्थ में संकल्पमात्र को ग्रहण करना ।
२. संग्रह - भेद सहित सब पर्यायों को अपनी जाति के अविरोध द्वारा एक मानकर सामान्य से सबको ग्रहण करना । जैसे घट कहने से सभी प्रकार के घटों का ग्रहण हो जाता है । '3
३. व्यवहार - संग्रहनय के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थों का विधिपूर्वक अवहरण या भेद करना । जैसे घट के स्वर्णघट, रजतघट, मृत्तिकाघट आदि भेद । १४ ४. ऋजुसूत्र — वर्तमान पर्याय मात्र को ग्रहण करना । '
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५. शब्दनय - शब्द प्रयोगों में आने वाले दोषों को दूर करके तदनुसार अर्थ भेद की कल्पना करना ।
६. समभिरूढ़ -
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इ-शब्द भेद के अनुसार अर्थ भेद की कल्पना करना ।'
७. एवंभूत - शब्द से फलित होने वाले अर्थ के घटित होने पर ही उसको उस रूप में मानना । १८
१२. द्रष्टव्य - परीक्षामुख, प्रमेयरत्नमाला, प्रमेयकमलमार्तण्ड, प्रमाणनयतत्वालोकालंकार, प्रमाणमीमांसा आदि ।
१३. स्वजात्यविरोधेनैकध्यनुपानीय पर्यायानाक्रान्तभेदानविशेषेण समस्तग्रहणात्संग्रहः ।
१४. संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहारः ।
१५. ऋजु प्रगुणं सूत्रयति तन्त्रयतीति ऋजुसूत्रः ।
१६. लिंगसंख्यासाधनादिव्यभिचारनिवृत्तिपरः शब्दनयः ।
१७. नानार्थसमभिरोहणात् समभिरूढः ।
१८. येनात्मनाभूतस्तेनैवाध्यवसाययतीति एवम्भूतः । - टि. १३ से १८ सर्वार्थसिद्धिः १०७ ।
परिसंवाद -४
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