Book Title: Jain Shiksha Darshan me Guru ki Arhataye
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf

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Page 4
________________ जैन शिक्षा दर्शन में गुरु की अर्हताएँ विनय तप-आभ्यन्तर तप को ही विनय तप कहते हैं। इससे मन, वचन और काय तीनों में कोमलता और मृदुता का वास होता है। वैयावत्य तप-धर्म की साधना तथा आत्मविकास में परस्पर एक दूसरे का सहयोग करना वैयावृत्य तप है। स्वाध्याय तप-मर्यादापूर्वक शास्त्रों का अध्ययन करना स्वाध्याय तप कहलाता है। ध्यान तप-मन की एकाग्रता का नाम ध्यान तप है। व्युत्सर्ग तप--धर्म और आत्मसाधना के लिए अपने आपको उत्सर्ग करने की विधि ही व्युत्सर्ग तप कहलाता है। उपर्युक्त बारह प्रकार के तपों का पालन करना आचार्य या गुरु के लिए आवश्यक बतलाया गया है। दस कल्प आचेलक्य-समस्त परिग्रह के त्याग को आचेलक्य कहते हैं। औद्देशिक--श्रमणों के उद्देश्य से बनाये गये भोजनादि को औद्देशिक कहते हैं। शय्यागृह का त्याग--शय्या और गृह दोनों का दूसरों के लिए त्याग करना। राजपिण्ड-राजा का पिण्ड अर्थात् जिस पिण्ड का वह स्वामी है उसका ग्रहण न करना राजपिण्ड कहलाता है। कृतिकर्म--चारित्र में स्थित साधु के द्वारा भी महान् गुरुओं की विनय-सेवा करना कृतिकर्म है। प्रतारोपणत्व - जीवों के भेद-प्रभेद को जाननेवाले को ही नियम से व्रत देना चाहिए। व्रत ज्येष्ठता -चिरकाल दीक्षित और पाँच महाव्रतों से युक्त आर्यिका से तत्काल दीक्षित पुरुष भी ज्येष्ठ होता है। प्रतिक्रमण-अचेलता आदि कल्प में स्थित साधु को यदि अतिचार लगता है तो उस अतिचार का परिहार करना प्रतिक्रमण है। मास-छः ऋतुओं में से एक-एक महीना ही एक स्थान पर रहना और अन्य समय में विहार करना नवम स्थितिकल्प है। पर्युषणा-वर्षाकाल के चार मासों में भ्रमण त्यागकर एक ही स्थान पर निवास करना पर्युषणा है। इस प्रकार इन दस प्रकार के कल्पों का धारक एवं शिष्यों से इनका पालन करवाने में सक्षम व्यक्ति ही आचार्य या गुरु है। छः आवश्यक (१) सामायिक--राग-द्वेष से रहित समभाव को सामायिक कहते हैं। (२) चतुविंशतिस्तव--ऋषभ आदि चौबीस तीर्थङ्करों के जिनवरत्व आदि गुणों के ज्ञान और श्रद्धापूर्वक चौबीस स्तवनों को पढ़ना चतुविशतिरतव कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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