Book Title: Jain_Satyaprakash 1949 03
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 27
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३ आदीश्वर फाग दि. ज्ञानभूषण (अनेकान्त वर्ष ४) १४ नेमि वसंत फाग दि. विद्याभूषण (दि, पंचायतो मंदिर, दिल्ली) इनके अतिरिक्त कहीं कहीं धमालकी भी फागु संज्ञा पाई जाती है। धमाल अब। भी होली में सर्वत्र गाई जाती है। राजस्थानी एवं हिन्दी में कई जैनेतर धमाले प्राप्त हैं। राजस्थानमें धमाल डफके साथ भी गाई जाति हैं। जैन धमालो में। निम्नोक्त ज्ञात हुई हैं ११ नेमिनाथ धमाल गाथा ४९ ज्ञानतिलक (हमारे संप्रहमें) २ स्थूलिभद्र धमाल-फाग (गाथा १०७) माल ( ) ३ नेमिनाथ धमाल, गाथा ६५ माल जै. गु. क. भा. ३ पृ. ४१६ ।। ४ असाढभूति घमाल कनकसोम (सं. १६३८) (हमारे संग्रहमें) ५ आर्द्रकुमार धमाल (सं. १६४४) ६ चेतनपुद्गल धमाल बूचा जैसलमेर भंडार ७ ढमाल (दि०) (अनेकान्तमें) उपयुक्त सूचीसे एक नयी बात का पता चलता है कि श्वे. समाज की भांति दि, साहित्य में भी फागं और धमाल संज्ञावाली र बनायें प्राप्त होती है। यहां यह स्पष्टीकरण कर देना आवश्यक है कि कई रचनाओं की संज्ञा प्रतिलेखकोंने अपनी सूचिके अनुसार दे दी है, जैसे आर्द्रकुमार धमाल को कहीं धमाल लिखा है तो कहीं। धवल । कभी कभी एक हो रचनाका विभिन्न प्रतियों में धवल, धमाल, फाग, विवाहला, सन्धि आदि मनमानी संज्ञा पाई जाती है। इसी प्रकार उन्हींको कहाँ रास, चौपइ, सज्झाय आदि भी लिखा है । बहुतसी रचनाओंमें ग्रन्थकारों ने उसकी संज्ञा सूचित नहीं की और न ऐसी रचनाओंका कोई खास लसण व एकरूपता पाई जाती है अतः रचनाओंको वास्तविक । मैज्ञाओं के सम्बन्ध में निश्चिततया कुछ कहा नहीं जा सकता। कतिपय फागु काव्यों का अध्ययन कर पं. अंबालाल प्रेमचन्द शाहने उनका जो लक्षण बतलाया है वह फागु संज्ञक बहुतसी रचनाओं में घटित नहीं होता; यद्यपि उनकी संज्ञा "फागु" स्वयं ग्रन्थकारकी हींदी हुई मिलती है । वास्तव में प्रत्येक संज्ञावाली जितनी रचनायें उपलब्ध हा उनका संग्रह कर स्वतंत्र रूपमें प्रकाशित किया जाय तभी विशेष वि वार किया जा सकना संभव है। For Private And Personal use only

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