Book Title: Jain Sanskruti me Samajwad Author(s): Umravkunvar Mahasati Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 3
________________ साध्वी उमराव कुंवर : जैन-संस्कृति में समाजवाद: ५५३ चिरपुरातन है. जैन परम्परा के युगप्रवर्तक प्रतिभाशाली आचार्य समन्तभद्र ने अब से लगभग पन्द्रह सौ शताब्दी पूर्व इस शब्द का प्रयोग किया था : 'सर्वोपदामन्तकरं दुरन्तं सर्वोदय तीर्थमिदं त्वदीयम्'. यहां आचार्य ने जिन-तीर्थ को 'सर्वोदयतीर्थ' कह कर उसे ही समस्त विपत्तियों का अन्त करने वाला बतलाया है. किन्तु आधुनिक युग में सर्वप्रथम गांधीजी ने इस शब्द का प्रयोग किया. उन्होंने पाश्चात्य विचारक रस्किन की ‘एन टू दिस लास्ट' पुस्तक का 'सर्वोदय' नाम से अनुवाद किया.. सर्वोदय शब्द 'सर्व' और 'उदय' दो शब्दों के संयोग से बना है. इसका अर्थ होता है-सब का उदय. आचार्य समन्तभद्र ने और गांधीजी ने भी इसी अर्थ में इस का प्रयोग किया था और इसका आधार अहिंसा, प्रेम, त्याग एवं सहिष्णुता को माना था. आज तो सर्वोदयसमाज का भी निर्माण हो गया है. उसका कहना है कि विश्व दो वर्गों में विभक्त है-उच्च वर्ग और निम्न वर्ग, या अमीर और गरीब. आज सुख-साधनों एवं सम्पत्ति के सभी स्रोतों पर प्रथम वर्ग का अधिकार है. इस से. उस के जीवन में अहंकार, निर्दयता, शोषण एवं विलासिता आदि मनोविकारों की बाढ़-सी आ गई है. विकारों के ढेर के नीचे उस की आत्मा दब गई है और उस की मानवता को अमानवीय एवं राक्षसी मनोवृत्तियों ने आवृत कर दिया है. अतः वह पतन की ओर फिसलता जा रहा है और द्वितीय वर्ग की दयनीय दशा तो सब के सामने स्पष्ट ही है. इस वैषम्य की स्थिति में सच्ची शान्ति की संस्थापना संभव नहीं है. इसलिए सर्वोदय समाज चाहता है कि धनिक वर्ग का भी उदय हो और निर्धन वर्ग का भी. धन वैभव के गुरुतर बोझ के नीचे दबी हुई पूंजीपति की अन्तरात्मा में मानवीय भावना का उदय हो, वह विकारों से ऊपर उठ कर दूसरे वर्ग के हित को भी सोचे-समझे और मानवजाति के हित को अखंड मानकर उस के लिये कार्य करे. प्रत्येक मानव विवेक पूर्वक कार्य करे, जिस से सब का हित हो, किसी के स्वार्थ को आघात न लगे. कोई किसी का अनिष्ट करने की भावना न रखे और न ऐसा कदम उठाए जिससे दूसरे व्यक्ति के सुख में बाधा उत्पन्न हो. कदाचित् संघर्ष की स्थिति आजाय तो उसे हिंसात्मक रूप न देकर प्रेम-स्नेह एवं मंत्री भावना को कायम रखते हुए दूर किया जाए. जैन-संस्कृति भी इस विचार को स्वीकार करती है. दोनों की विचारधारा में बहुत-कुछ समानता होने पर भी कुछ महत्त्वपूर्ण अन्तर है. पाश्चात्य विचारक मानते हैं : The greatest good for greatest number. इसके अनुसार अधिक लोगों का अधिकतम लाभ ही उनका आदर्श है. सर्वोदय विचारधारा इससे एक डग आगे बढ़ती है और मानती है कि मानव मात्र का उदय हो, मानव मात्र का हित हो, मानव मात्र का उन्नयन हो, मानव मात्र को समान सुख-साधन उपलब्ध हों और सब को समान रूप से विकसित होने का अवसर मिले. परन्तु जैन-संस्कृति का सिद्धान्त इससे भी अनेक कदम आगे है. जैन विचारक केवल मानव का ही नहीं, प्रत्युत प्राणीमात्र का उदय चाहते हैं. जैन-संस्कृति की यह मान्यता है कि विश्व का प्रत्येक प्राणी स्वतन्त्र है और सुख की अभिलाषा रखता है. अतः किसी भी प्राणी के सुख में, विकास में बाधा उपस्थित न की जाए. जैन-संस्कृति की दृष्टि में मनुष्य ही सब कुछ नहीं है. उसके अतिरिक्त अन्य असंख्य प्रकार के जो प्राणी विश्व में हैं, वे भी हमारे ही बृहत् परिवार के सदस्य हैं. उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती. उनके अधिकारों को भी स्वीकार किया जाना चाहिए. इसके विना सम्पूर्ण न्याय एवं बन्धुता की प्रतिष्ठा संभव नहीं है. जब तक मनुष्य, मनुष्येतर प्राणियों के प्रति बन्धुभाव स्थापित नहीं करेगा और उनका उत्पीड़न करता रहेगा तब तक मनुष्य-मनुष्य के बीच भी उत्पीड़न चालू रहेगा. वस्तुतः भगवान् महावीर का शासन 'सर्वोदय-शासन' है. उन के शासन में किसी एक के उदय का नहीं, प्रत्युत सब के अभ्युदय का, सब के निःश्रेयस् का पूरा खयाल रखा गया है. उसमें नारी-पुरुष, अमीर-गरीब, बालक-वृद्ध, कीड़ी-कुंजर आदि किसी के भी प्रति पक्षपात नहीं है. आत्मविकास की दृष्टि से दुनिया की समस्त आत्माएं एक समान Jain ducido Nw.ary.org VV/Page Navigation
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